वर्धमान मंत्र
ॐ
णमो भयवदो
वड्ढ-माणस्स
रिसहस्स
जस्स चक्कम् जलन्तम् गच्छइ
आयासम् पायालम् लोयाणम् भूयाणम्
जूये वा, विवाये वा
रणंगणे वा, रायंगणे वा
थम्भणे वा, मोहणे वा
सव्व पाण, भूद, जीव, सत्ताणम्
अवराजिदो भवदु
मे रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते मे रक्ख-रक्ख स्वाहा ।।
ॐ ह्रीं वर्तमान शासन नायक
श्री वर्धमान जिनेन्द्राय नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*पूजन*
हाई-को ?
भक्तों की चिंता करते मिले गुरु जी ।
ख्वाबों में भी ।।
किसी का बुरा न सोचते गुरु जी ।
दूजे प्रभु ही ।।
गुरु-शरण
रज-चरण,
जिसको गई है मिल
निध-वचन
शिव-तरण
उसने पाई मंजिल,
गुरु चरणों का,
जो अनुरागी, वो बड़भागी
लगन गुरु जी से, जिसकी लागी ।
वो बड़भागी ।।स्थापना।।
आ मनुआ
‘रे आ मनुआ
श्रद्धा सुमन समेत
लेकर कोरी स्लेट
थाम अहिंसा केत
जोड़ने भगवन् से, अपना अटूट नाता ।
साथ हृदय गद-गद
रुखसत कर नफरत
शिवम् सुन्दरम् सत्
गुरु चरणों में रखते हैं, अपना माथा ।
रोमिल पुलकन साथ
बना के श्री फल हाथ
साथ-साथ रख माथ
गुरु चरणों में रखते हैं, अपना माथा ।
ललक अनूठी एक
समेत हंस विवेक
खींच गुरु-दास रेख
जोड़ने भगवन् से, अपना अटूट नाता ।।जलं।।
सिवाय मेरे राम के
‘भक्त वत्सल’
सभी और नाम के
नहीं देखना पड़ा, करके ओट हाथ की ।
सहज हो गई कृपा मुझ पे मेरे नाथ की ।।
न पुकारना पड़ा, कहके लौट आओ जी ।
सहज हो गई कृपा मुझ पे मेरे नाथ की ।।
न ही सोचना पड़ा, दे सपोट हाथ की ।
सहज हो गई कृपा मुझ पे मेरे नाथ की ।।
नहीं और काम के ।।चन्दनं।।
अपने रँग में रँगा लो
रँग केशरिया लगा दो
लाजो शरम से हैं रीती आँखें
दोष पराये चला करके ताँकें
कुछ सिखा दो इन्हें
कुछ सिखा दो इन्हें
ये गिरेवान जर्रा अपना भी झाँकें
जय, जयतु जय गौरव सदलगा ओ ! ।
काबू कहाँ मेरा अपनी जुबां पर
रक्खा ही रहता है बोझ नासिका पर
सूरज निकल आया कहके जगा दो ।
पापों के रँग में रँगे हाथ म्हारे
चिट्ठे क्या खोलूँ, हा ! परिणाम काले
पाँव अँधेरे जमे, डगमगा दो
जय, जयतु जय गौरव सदलगा ओ !
अपने रँग में रँगा लो ।।अक्षतं।।
मैं था, कल भी तुम्हारा
हूँ आज भी,
‘जि गुरु जी
रहूँगा कल भी तुम्हारा
और सिवा आपके,
हैं भी, कौन हमारा
चकोर मैं, और तुम चाँद म्हारे ।
हूँ मोर मैं, और तुम मेघ काले ।
मैं पतंग हूँ, तुम मेरी डोर हो ।
मैं तरंग हूँ, तुम जल बेछोर हो ।
हमें बिन आपके,
ना ‘जी ना
एक पल भी, न जीना गवारा ।।पुष्पं।।
होने मोती अद्भुत सीप
आँचल मटमैला धो लें ।
आ पल बैठ के रो लें ।
अपने गुरु जी के समीप
पशु बन पशुता कीनी हाथ ।
स्वर्ग मुख सीधे की न बात ।।
आया पुण्य उदय इस बार ।
भटके लख चौरासी जोन
क्या दुख थे, न जाने कौन
आया पुण्य उदय इस बार ।
मरना जीना गोद निगोद ।
उखाड़े मुर्दे नरकन खोद ।।
आया पुण्य उदय इस बार ।
पाया हमने गुरु दरबार ।।
होने ज्योती अनबुझ दीप ।।नैवेद्यं।।
ये मुस्कान तेरी
है दिलो-जान मेरी
है मेरी हम-सफर
ये तेरी इक नज़र
कहीं ये छिन न जाये मुझसे
पल पल मुझे,
ये बना रहता है डर
अय ! मेरे गुरुवर
अजनबी या अपने की,
कहीं किसी की भी
‘जि गुरु जी
ये रिश्ता हमारा,
तुम चाँद मैं तारा
ये रिश्ता हमारा
सपनों से प्यारा
दुनिया से न्यारा
ये रिश्ता हमारा
‘जि गुरु जी
कहीं किसी की, खा न बैठे नज़र ।।दीपं।।
पल ढ़ेर सुमरनी साथ बिताया है ।
तब कहीं जा करके पाया है ।
आपका साथ,
‘जि गुरु जी कर लीजिये
पल पलक ही सही, मुझसे दो बात
‘जि गुरु जी रख दीजिये,
मेरे इस सिर पर, ये अपने दोनों हाथ
‘जि गुरु जी, बनाये रखिये,
आगे भी कृपया यूं ही, कृपा बरसात ।
न और फरियाद ।।धूपं।।
ज्यादा कुछ है ही नहीं, ख्वाहिश मेरी
जर्रा सी पाँवों की रज,
जुदा सी एक नज़र सहज,
पा जाऊँ मैं बस तेरी
बस इतनी सी गुरु जी, है गुजारिश मेरी
तू देखते ही मुझे, दे मुरुकान दे
औरों से पहले तू मुझपे ध्यान दे
तू करने लगे ‘के विश्वास मुझ-पर
बुलाने लगे तू मुझे,
अपना कुछ खास कहकर
बस होती रहे इतनी,
रहमते बारिश तेरी ।।फलं।।
मीठी छुरी है
रावन जुड़ी है
दाने दिखाती
फन्दे फँसाती
दे चाले धोखा
मिलते ही मौका
दुनिया दुरंगी
मतलब की संगी
अय ! छोटे बाबा
तुम्हारे अलावा
न कोई हमारा
न कोई सहारा
दे जगह दो चरण में
ले लो अपनी शरण में ।।अर्घ्यं।।
=हाईकू=
छू उलझन सारी,
गुरु-दर्शन चिच्-चमत्कारी
(१)
कर दूँ नाम तेरे,
मैं सरगम के सुर सारे ।
मन करता मेरा,
पाँवों में तेरे बिछा दूँ तारे ।।
सपना मेरा,
तेरे पखारूँ चरण,
कभी पानी परात बिन
कभी साथ श्रद्धा सुमन
सपना मेरा,
तेरे पखारूँ चरण,
अपने भी कभी आँगन
कभी पुष्प ले नन्द वन
सपना मेरा,
तेरे पखारूँ चरण,
कभी लेके जल नयन
आ बाहर कभी सुपन
सपना मेरा,
तेरे पखारूँ चरण,
कभी बाद पड़गाहन
कभी रूबरू मेरे भगवन्
सपना मेरा,
तेरे पखारूँ चरण,
कभी लेके शिशु सा मन
सपना मेरा,
है अकेला ही तो तू,
अपना मेरा ।।अर्घ्यं।।
(२)
हो चला पूरा सपना
लिया अपना,
तूनें जो मुझे,
लिया अपना बना
भेंटूँ जल गगरी
नाचूँ बन चकरी
भेंटूँ घट चन्दन
थिरकाऊँ नँग-नँग
भेंटूँ धाँ शाली
नाचूँ दे ताली
भेंटूँ गुल-नंदा
नाचूँ बन अंधा
भेंटूँ चरु घृत का
नाचूँ दृग्-मटका
भेंटूँ दीप अबुझ
नाचूँ रुक झुक-झुक
भेंटूँ सुगंध अन
नाचूँ झूम झनन
फल ये रहा भिंटा
नाचूँ पैर उठा
भेंटूँ अरघ अलग
नाचूँ थिरख थिरक
आँखों के आँसू मेरे,
आज थमने से करें मना ।
लिया अपना,
तूनें जो मुझे,
लिया अपना बना ।।अर्घ्यं।।
(३)
कब आओगे,
ले सुमरनी,
जपे थी धड़कन ।
आ गये तुम जो,
तो जा रही, थमी-सी धड़कन ।।
और बन-के गंग-जमुन,
झिर चाले नयन ।
कृपा तुम्हारी जो हुई, मैं जाऊँ बलिहारी
जल झारी, भिंटाऊँ गंधा ‘री
धाँ शाली, भिंटाऊँ फुलबारी
चरु थाली, भिंटाऊँ दीपाली
मनहारी भिंटाऊँ फल डाली
मैं तो भिंटाऊँ द्रव-सारी
कृपा तुम्हारी जो हुई, मैं जाऊँ बलिहारी
सुन मेरी आवाज
यूँ ही भगवन्, राखना लाज,
सुन मेरी आवाज ।।अर्घ्यं।।
(४)
तेरे चेहरे पे,
आ रुक जाती है नजर मेरी ।
और हाँ…झुक जाती है,
उठते ही नज़र तेरी ।।
है ये मुझे क्या हुआ,
दे बता, है यह मुझे क्या हुआ ।
वही तो नहीं,
जो दीवानी मीरा को कभी,
था हुआ ।।
चन्दना से मिल के आई हूँ
वही प्रासुक जल लाई हूँ
वही चन्दन घिस लाई हूँ
वही अक्षत कण लाई हूँ
वही नन्दन गुल लाई हूँ
वही व्यंजन घृत लाई हूँ
वही अनबुझ लौं लाई हूँ
वही सुगंध अन लाई हूँ
वही ऋत-ऋत फल लाई हूँ
दोहा=
जल, फल, गुल, तण्डुल लिये,
आये तेरे द्वार ।
घर मेरे आओ कभी,
कहती अँसुअन धार ।।
चन्दना से मिल के आई हूँ
वही शबरी द्रव लाई हूँ
थे रीझे जिससे महावीर
अय ! मेरे वीर
तुम्हें रिझाने आई हूँ ।।अर्घ्यं।।
(५)
मैंने जन्नत ही पा ली
तेरे अपनों में आके
साथ रोमिल पुलक,
क्यूँ न भेंटूँ उदक लाके
साथ गदगद हृदय
क्यूँ न भेंटूँ रज मलय, लाके
साथ मिसरी जुबां
क्यूँ न भेंटूँ शालि धाँ, लाके
साथ अनबुझ लगन,
क्यूँ न भेंटूँ दिव सुमन, लाके
साथ थिरकने सहज,
क्यूँ न भेंटूँ नेवज, लाके
साथ सुर लहरी,
क्यूँ न भेंटूँ दीव घी, लाके
साथ श्रद्धा सुमन
क्यूँ न भेंटूँ गंध अन लाके
साथ लोचन सजल
क्यूँ न भेंटूँ श्रीफल, लाके
साथ जयतु निनाद
क्यूँ न भेंटूँ जल फलाद लाके
मनाऊँ रोज दीवाली
सोई किस्मत जगा ली
तुझे सपनों में पाके
तेरे अपनों में आके
मैंने जन्नत ही पा ली ।।अर्घ्यं।।
(६)
आओ मिल के हम सभी,
बोलें विद्यासागर जी की जय
भिंटाओ ले लोचन सजल
लाओ भर के गंगा जल
लाओ चन्दन मलयाचल
लाओ सित साबुत चावल
लाओ शतदल धवल कँवल
लाओ व्यंजन नवल-नवल
लाओ घी का दीवाचल
लाओ गंध सुगंध सकल
लाओ मीठे-मीठे फल
लाओ गुल-तण्डुल जल-फल
भिंटाओ ले लोचन सजल
मेंटने मृत्यु का भय
करने दुक्खों का क्षय
पाने कर्मों पे जय
आओ मिल के हम सभी,
बोलें विद्यासागर जी की जय ।।अर्घ्यं।।
(७)
श्रद्धा गहरी लाके
मण जल गगरी लाके
रस मलय-गिरी लाके
धाँ शालि-निरी लाके
गुल नन्द लरी लाके
चरु घृत विरली लाके
दीवा ‘गिर-घी’ लाके
अक्षर सुर’भी लाके
फल-रित मिसरी लाके
वस द्रव शबरी लाके
श्रद्धा गहरी लाके
आ मनुआ ‘रे, गुरु चरणों में भेंट दे
और मेंट ले,
किये हुये, अब-तक के पाप पिछले
जय-विद्या जप ले
‘रे मनुआ जय-विद्या जप ले ।।अर्घ्यं।।
(८)
पानी गंगा
झारी गंधा
शाली कण धाँ
गुल निशि-गंधा
छप्पन पकवाँ
अनबुझ दीवा
दश-विध गंधा
श्रीफल भेला
जल चन्दन धाँ
ला मनुआ
आ मनुआ
जप जय-विद्या
साथ गहरी श्रद्धा
धन्य आँगन होता है
मन पावन होता है
‘जय-विद्या’ गुरु-मन्त्र से
पतझड़ जैसा अपना जीवन सावन होता है
मन पावन होता है ।।अर्घ्यं।।
(९)
निर्मल अंतरंग
हम लाये जल गंग
घट गंध, हम लाये धाँ ‘नन्द’
निशि-गंध, हम लाये गुलकंद
लौं नन्त, हम लाये दश-गंध
नारंग, हम लाये जल-गंध
दिग्-दिगन्त
गगन पर्यन्त
नहीं दूजा
उतर कर स्वर्गों से, जिसे देवों ने पूजा
विद्या सागर जैसा सन्त नहीं दूजा ।।अर्घ्यं।।
(१०)
लिये रतनार जल गागर
गन्ध मनहार मलयागिर
मोति छव शालि धाँ पातर
पुष्प लर क्यार अलकापुर
चारु चरु थाल मण झालर
दीप घृत न्यार गैय्या गिर
गंध घट माल जग जाहिर
सरस फल पार बागा-तर
द्रव्य जुग चार मनवा-हर
जय सूरि विद्या सागर
वन्दना सादर
मेरी वन्दना सादर
जय सूरि विद्या सागर
मेरी वन्दना सादर ।।अर्घ्यं।।
(११)
क्यूँ न नीर गंग लाऊँ
विनत चरणों में चढ़ाऊँ
क्यूँ न मलय गंध लाऊँ
क्यूँ न धाँ अखण्ड लाऊँ
क्यूँ न पुष्प नन्द लाऊँ
क्यूँ न चरु दिगन्त लाऊँ
क्यूँ न लौं अमन्द लाऊँ
क्यूँ न दिव सुगंध लाऊँ
क्यूँ न फल वसन्त लाऊँ
क्यूँ न निम्ब, अम्ब लाऊँ
विनत चरणों में चढ़ाऊँ
चलते फिरते ग्रन्थ हैं
गुरु कुन्द-कुन्द के
माहन्त पन्थ के
कलि शिरोमण सन्त हैं
चलते फिरते ग्रन्थ हैं
सूरि विद्या-सागर
वन्दना सादर
मेरी वन्दना सादर ।।अर्घ्यं।।
(१२)
जैन दीक्ष चीर चीर !
भेंट क्षीर सिन्ध नीर
कल अकेल आत्मकेल !
भेंट गंध मलय शैल
गात्र जल्ल-मल्ल मण्ड !
भेंट शाल धाँ अखण्ड
काल-कल दयाल द्वार !
भेंट पुष्प नन्द-क्यार
छाँव घनी वृक्ष भाँत !
भेंट चारु चरु परात
मोति माँ श्री मन्त सीप !
भेंट अबुझ ज्योति दीप
शिख अनन्य ज्ञान सिन्ध !
भेंट नाम-गुण सुगंध
जगत् जगत मत-मराल !
भेंट फल रसाल थाल
हाथ काल-कल समाध
भेंट द्रव्य जल फलाद
जयतु जय, जयतु जय, जयतु जय
आसमान नूर जय
विद्या-सिन्ध-सूर जय
साथ तन, मन-वचन योग त्रय
जयतु जय, जयतु जय, जयतु जय
विद्या-सिन्ध-सूर जय ।।अर्घ्यं।।
(१३)
जल गंगा
घट गंधा
अक्षत धाँ
दिव फुल्वा
चरु घी का
घृत दीवा
दश गंधा
फल नंदा
जल गंधा
साथ श्रद्धा
भेंटूँ सविनय
जय-विद्या जय
देखा सपना अपना हुआ
जय विद्या जपना हुआ
‘के पापों का कँपना हुआ
जय-विद्या जय,
जयतु जय, जय-विद्या जय ।।अर्घ्यं।।
(१४)
जल कंचन
घट चन्दन
अक्षत कण
नन्द सुमन
घृत व्यंजन
दीप रतन
सुगंध अन
फल नन्दन
जल चन्दन
गुरु-चरणन
रखो मन
जपो मन
गदगद वयन
भींगे नयन
साथ गहरी श्रद्धा
जपो मन जय विद्या
छिन छिन
हो रात, या हो दिन
छिन छिन
जपो मन जय विद्या ।।अर्घ्यं।।
(१५)
जल गुणकारी
गागर न्यारी
छव रतनारी
चन्दन झारी
अक्षत शाली
मरकत थाली
नन्दन क्यारी
पुष्प पिटारी
चरु मनहारी
गो घृत वाली
तुरत प्रजाली
घृत दीपाली
गंध अहा ’री
विध विध सारी
नन्द निराली
फल-फल डाली
फल फुलवारी
दिव अवतारी
लिये खड़े है द्वार तुम्हारे
शरण सहारे
तारण हारे
जयवन्तो गुरुदेव हमारे
जब तक सूरज, चाँद, सितारे
जयवन्तो गुरुदेव हमारे ।।अर्घ्यं।।
(१६)
चढ़ाऊँगा मैं तो जल गागर
भरने जाऊँगा क्षीर सागर
चढ़ाऊँगा चन्दन मलयागर
लेने जाऊँगा बीच विषधर
चढ़ाऊँगा मैं तो धाँ पातर
ले आऊँगा धाँ-कटोरे शहर
चढ़ाऊँगा मैं तो फुलबा-लर
ले आऊँगा वन नन्दन जाकर
चढ़ाऊँगा चरु घृत गैय्या गिर
लेने जाऊँगा अलकापुर
चढ़ाऊँगा दीवा मण झालर
ले आऊँगा रत्न रत्नाकर
चढ़ाऊँगा सुगंध जग जाहर
ले आऊँगा दूर देश नागर
चढ़ाऊँगा फल सुर-बागा-तर
लेने जाऊँगा पंख लगाकर
चढ़ाऊँगा द्रव सब मनवाहर
ले आऊँगा देवों से मँगाकर
जगाकर ऐसी भक्ति,
जिसका कोई भी अन्त नहीं
क्योंकि, गुरु-विद्या जैसा कोई भी सन्त नहीं
न सिर्फ़ कहता मैं ही
‘रे भारत का बच्चा-बच्चा कहता यही
गुरु-विद्या जैसा कोई भी सन्त नहीं
जय-विद्या जैसा कोई भी मन्त्र नहीं
गुरु-विद्या जैसा कोई भी सन्त नहीं ।।अर्घ्यं।।
(१७)
सातिशय पुण्य झोली भर लें
गुरु चरणन जल घारा कर लें
गुरु चरणन रज-मलयज धर लें
गुरु चरणन धाँ अर्पण कर लें
गुरु चरणन गुल बरसा कर लें
गुरु चरणन रख चरु पातर लें
गुरु चरणन लौं जागृत कर लें
गुरु चरणन रख गंध इतर लें
गुरु चरणन रख फल तर-तर लें
गुरु चरणन रख द्रव्य, सुमर लें
सातिशय पुण्य झोली भर लें
प्रति-रुप भगवन्त हैं
सिद्ध स्वयमेव मन्त्र हैं
सन्त चलते फिरते ग्रन्थ हैं
आ देव शास्त्र गुरु पूजन कर लें
सातिशय पुण्य झोली भर लें ।।अर्घ्यं।।
(१८)
साँचा गुरु विद्या दरबार
घट रतनार, ले हाथों में चन्दन झार
अक्षत शाल, ले हाथों में पुष्प पिटार
चरु रसदार, ले हाथों में दीप प्रजाल
सुगन्ध न्यार, ले हाथों में फल मनहार
लागी भक्तों की कतार
ले हाथों में द्रव जुग-चार
साँचा गुरु विद्या दरबार
सुनता भक्तों की पुकार
जय जयकार
जय जयकार
साँचा गुरु विद्या दरबार ।।अर्घ्यं।।
(१९)
तेरी चरण-शरण आया
जल से कलशे भर लाया
चन्दन वन-नन्दन लाया
सित सुरभित, अक्षत लाया
गुल गुलशन-गुलशन लाया
घृत निर्मित, अरु चरु लाया
अनबुझ मण दीपक लाया
कुछ हट, घट सुगंध लाया
और न, फल बटोर लाया
जल-फल-दिव्य द्रव्य लाया
तेरी चरण-शरण आया
दे दो थोड़ा सा,
अपने चरणों में स्थान
रख लो ना ध्यान
अय ! मेरे भगवान् ।।अर्घ्यं।।
(२०)
गागर क्षीर सागर
चन्दन, स्वर्ण गागर
शालिक धान पातर
नन्दन पुष्प लाकर
व्यञ्जन घृत बनाकर
दीपक मण जगाकर
सुगन्ध दश सजाकर
फल वन नन्द ‘भा’ अर
सब-द्रव गा बजाकर
चढ़ाते ही सादर
बन चला काम
अय ! नूर सदलगा ग्राम
लेते ही नाम
बार अनन्त प्रणाम
अय ! नूर सदलगा ग्राम ।।अर्घ्यं।।
(२१)
चढ़ाते ही दृग्-जल
लग चली हाथ मंजिल
चढ़ाते ही चन्दन
दो टूक हुये बंधन
चढ़ाते ही अक्षत
हो चली शान्त परणत
चढ़ाते ही लर-गुल
बँध चले प्रशंसा पुल
चढ़ाते ही षट्-रस
भर चली दया नस-नस
चढ़ाते ही दीपक
आ चाला हिस्से हक
चढ़ाते ही सौरभ
आया छूने में नभ
चढ़ाते ही श्री फल
रीझी जागृति पल-पल
चढ़ाते ही सब कुछ
जागी लौं भक्ति अबुझ
गुरु नाम छाहरी
घनी बरगदी छाहरी
और दुनिया घाम
घनी बरगदी छाहरी गुरु नाम
जपा नाम बन चाला बिगड़ा काम
सन्त शिरोमण विद्या-सागर
गंगा की धारा का पावन नाम
सन्त शिरोमण विद्या-सागर ।।अर्घ्यं।।
(२२)
न भेंटूँ खाली,
भर जल झारी,
चन्दन प्याली,
धानिक शाली,
पुष्प पिटारी,
चरु घृत वाली
अबुझ दिवाली,
गंध निराली,
फल दिव क्यारी,
द्रव दिव सारी,
न भेंटूँ खाली,
शुभकामनाएँ,
साथ भेंटूँ दुआएँ,
‘के तुम साल-हजार जिओ,
अजि ओ !
गुरु जी अहो !
अन्छुये नजारे छुओ,
तुम चाँद-सितारे छुओ,
बस यही,
दिली-ख्वाहिश मेरी,
तुम साल-हजार जिओ ।।अर्घ्यं।।
(२३)
अय ! मेरे मन के देवता
मैं चाहता हूँ,
तुम्हारे अपने दो-चार पल,
न यूँ ही आता हूँ,
मैं चढ़ाने रोज ही दृग्-जल,
मैं चढ़ाने रोज ही चन्दन,
मैं चाहता हूँ,
घर अपने आप चरण वन्दन,
बनना आपका अनन्य भगत,
न यूँ ही आता हूँ,
मैं चढ़ाने रोज ही अक्षत,
मैं चढ़ाने रोज ही लर-गुल,
मैं चाहता हूँ,
दरवेश प्रवेश आप गुरुकुल,
आप मुख अमोल दो बोल अमृत,
न यूँ ही आता हूँ,
मैं चढ़ाने रोज ही चरु-घृत,
मैं चढ़ाने रोज ही दीपक,
मैं चाहता हूँ,
बाहर स्वप्न भी आप झलक,
नेक एक मुस्कान गुरु जी,
न यूँ ही आता हूँ,
मैं चढ़ाने रोज ही सुरभी,
मैं चढ़ाने रोज ही भेले,
मैं चाहता हूँ,
पड़गाना तुम्हें कभी अकेले,
खुशियों वाला आँखों में जल,
न यूँ ही आता हूँ,
मैं चढ़ाने रोज ही जल-फल,
अय ! मेरे मन के देवता
चन्द्रमा चकोरा जैसे,
मकरन्द भौंरा जैसे,
तुम्हें चाहता,
अय ! मेरे मन के देवता
ये मेरा मन मयूरा वैसे,
तुम्हें चाहता,
अय ! मेरे मन के देवता ।।अर्घ्यं।।
(२४)
उनकी बदल तकदीर गई,
धार छोड़ी जिनने,
गहल तोड़ी जिनने,
गुरुदेव चरणों में,
पुन समेटा जिनने,
गंध भेंटा जिनने,
गुरुदेव चरणों में,
चढ़ाये धाँ जिनने,
लगाया ध्याँ जिनने,
गुरुदेव चरणों में,
लगाया मन जिनने,
‘कि भेंटे सुमन जिनने,
गुरुदेव चरणों में,
चढ़ाया चरु जिनने,
के झिरा अश्रु जिनने,
गुरुदेव चरणों में,
जगाई लौं जिनने,
जपा ‘जि न’मो जिनने,
गुरुदेव चरणों में,
धूप खेई जिनने,
डूब सुर’भी जिनने,
गुरुदेव चरणों में,
गुजारे पल जिनने,
चढ़ाये फल जिनने,
गुरुदेव चरणों में,
भिंटाया सब जिनने,
समेत अदब जिनने,
नैय्या उपल लग तीर गई,
लग हाथों में,
टिक आँखों में,
जिनके श्री गुरु तस्वीर गई,
उनकी बदल तकदीर गई ।।अर्घ्यं।।
(२५)
धूल चरणन तेरी चन्दन मुझे ।
मैं तो चढ़ाऊँगा कलशे,
क्यूँ न मनाऊँ मैं जलसे,
मैं तो चढ़ाऊँगा चन्दन,
क्यूँ न करूँगा झुक वन्दन,
मैं तो मनाऊँगा खुशियाँ,
क्यूँ न चढ़ाऊँ अक्षत धाँ,
मैं तो उड़ाऊँगा गुलाल,
क्यूँ न चढाऊँ फूलमाल,
मैं तो चढ़ाऊँगा चरु घी,
क्यूँ न छेडूँ मैं सुर-लहरी,
मैं तो गाऊँगा जश विरद,
क्यूँ न चढ़ाऊँ दीवा-घृत,
मैं तो चढ़ाऊँगा अगर,
क्यूँ न थिरकूँ इक पैर पर,
मैं तो चढ़ाऊँगा श्री फल,
क्यूँ न करूँ मैं दृग्-सजल,
मैं तो चढ़ाऊँगा सब द्रव,
क्यूँ न मनाऊँ मैं उत्सव,
तेरी इक नजर,
मेरी हमसफर ।
जीने के लिये,
अब न चाहिये धडकन मुझे ।
धूल चरणन तेरी चन्दन मुझे ।।अर्घ्यं।।
(२६)
भर-के आँख आया हूँ
न खाली हाथ आया हूँ,
लिये श्रद्धा सुमन आया
गंग जल घट कंचन लाया
गंध घट मण्डित-मण लाया
शालि धाँ अक्षत कण लाया
पुष्प सर-मानस चुन लाया
महानस ‘सुर व्यंजन’ लाया
ज्योत अनबुझ अनगिन लाया
मनोहर सुगंध अन लाया
ढ़ेर फल वन-नन्दन लाया
फूल, फल, चरु, चन्दन, लाया
कर दीजिये बरसा कृपा की
बस दे दीजिये एक मुस्कान जरा सी,
‘जि गुरु जी
करना तुम्हें,
न चाहता मैं,
परेशान जरा भी,
‘जि गुरु जी ।।अर्घ्यं।।
(२७)
बिठा अपने दृग् पथ तुम्हें
भिंटाता हूँ जल घट तुम्हें
भिजाता हूँ वन्दन तुम्हें
भिंटाता हूँ चन्दन तुम्हें
मान सुन्दर शिव सत् तुम्हें
भिंटाता हूँ अक्षत तुम्हें
मान अपनी मंजिल तुम्हें
भिंटाता हूँ लर गुल तुम्हें
मान अपना कुल गुरु तुम्हें
भिंटाता हूँ घृत चरु तुम्हें
लगा झिर दृग् मोती तुम्हें
भिंटाता हूँ ज्योती तुम्हें
मान अपना सब कुछ तुम्हें
भिंटाता हूँ सौरभ तुम्हें
बिठाता पलकों पर तुम्हें
भिंटाता हूँ श्री फल तुम्हें
मान के अपना रब तुम्हें
भिटाता द्रव सब तुम्हें
हरदम,
दर कदम,
जब देखो तभी,
‘जि गुरु जी
तेरे ख्यालों में खोये रहते है हम
अपनी आँखें भिंजोये रहते है हम
तुम्हारे सिवा मेरे दिल में,
कोई और रहता नहीं
कहता यही रोंआ-रोंआ,
सिर्फ मैं ही कहता नहीं ।।अर्घ्यं।।
(२८)
सुनो ना, गुरु जी सुनो ना
यूँ ही न आये दृग्-सजल
स्वर्ण घट भर के लाये जल
लाये चन्दन मलय-अचल
लाये अक्षत धान धवल
लाये मानस सरसि कँवल
लाये नेवज नवल-नवल
लाये दीप ज्योत अविचल
लाये हट घट धूप अनल
टोकरी भर के लाये फल
लाये मनहर द्रव्य सकल
सुनो ना, गुरु जी सुनो ना
है न कुछ और कहना
यूँ ही थामे डोर रखना
खींचे अपनी ओर रखना
है न कुछ और कहना ।।अर्घ्यं।।
…जयमाला…
कब पाती आसमाँ छू ।
खुशबू, वगैर वायु ।
देख-देख ना तू ।
सो सुन,
अय ! मन,
दे गुमा गुमाँ ।
ले छू, और तू आसमाँ,
गुरु जी का, ले हाथ थाम या ।
गुरु जी को, दे हाथ आ-थमा ।।
कब सीप बन पाती ।
मोति, बिन बिन्दु स्वाती ।
देख देख ‘ना’ ‘जी, ।
कब छू पाये दाना ।
आसमां, बिना बागबां ।
‘रे देख देख ‘ना’ ।।
हाई-को ?
सुहाना गुरु का अन्तरंग,
समां मयूर पंख
।। जयमाला पूर्णार्घं ।।
‘सरसुति-मंत्र’
ॐ ह्रीं अर्हन्
मुख कमल-वासिनी
पापात्-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-ज्-ञानज्-ज्वाला
सह(स्)-स्र(प्) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-संभवे
वं वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*विसर्जन पाठ*
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।१।।
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।२।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।३।।
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।४।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
दोहा-
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
बनी रहे यूँ ही कृपा,
सिर ‘सहजो’ निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
=आरती=
दीपों की थाल सजाओ ।
विद्यागुरु की आ-रति उतारें आओ ।।
विद्यागुरु सतजुग निर्ग्रन्था ।
विद्यागुरु कलजुग अरिहन्ता ।।
भावी इक शिव राधा कन्ता ।
विद्यागुरु चल आगम ग्रन्था ।।
उर लौं गुरु नाम जगाओ ।
दीपों की थाल सजाओ ।
विद्यागुरु की आ-रति उतारें आओ ।।१।।
विद्यागुरु इक गगन सितारे ।
विद्यागुरु इक तारणहारे ।।
प्रतिभा रत संस्कृति रखवाले ।
विद्यागुरु इक शरण सहारे ।।
ला श्रद्धा सुमन चढ़ाओ ।
उर लौं गुरु नाम जगाओ ।
दीपों की थाल सजाओ ।
विद्यागुरु की आ-रति उतारें आओ ।।२।।
विद्यागुरु बल बालक बाला ।
विद्यागुरु कलिकाल गुपाला ।।
नभ धरती पाताल उजाला ।
विद्यागुरु व्रति भाल विशाला ।।
मोती से आंख भिंजाओ ।
ला श्रद्धा सुमन चढ़ाओ ।
उर लौं गुरु नाम जगाओ ।
दीपों की थाल सजाओ ।
विद्यागुरु की आ-रति उतारें आओ ।।३।।
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