वर्धमान मंत्र
ॐ
णमो भयवदो
वड्ढ-माणस्स
रिसहस्स
जस्स चक्कम् जलन्तम् गच्छइ
आयासम् पायालम् लोयाणम् भूयाणम्
जूये वा, विवाये वा
रणंगणे वा, रायंगणे वा
थम्भणे वा, मोहणे वा
सव्व पाण, भूद, जीव, सत्ताणम्
अवराजिदो भवदु
मे रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते मे रक्ख-रक्ख स्वाहा ।।
ॐ ह्रीं वर्तमान शासन नायक
श्री वर्धमान जिनेन्द्राय नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
=पूजन=
थिरके है सदलगा ।।
साख कुछ खास है ।
जो न चार-धाम पास है ।।
साख कुछ ऐसी खास है ।
आये जमाना भागा-भागा ।
विद्याधर रंँग रँगा ।।
खेती-बाड़ी वाह वाह ।
सूती-साड़ी वाह वाह ।
वेदी नाड़ी वाह वाह ।
मनु वसुन्धरा स्वर्ग उतरा ।
माँझी नैय्या वाह-वाह ।
साँझी गैय्या वाह वाह ।
माँ जी छैय्या वाह-वाह ।
मनु वसुन्धरा स्वर्ग उतरा ।
सादी बतियाँ वाह-वाह ।
चाँदी रतियाँ वाह-वाह ।
गाँधी अँखियाँ वाह-वाह ।
मनु वसुन्धरा स्वर्ग उतरा ।
विद्याधर रंँग रँगा ।।
थिरके है सदलगा ।।स्थापना।।
रख देते सर पे हाथ जल्दी से
मान लेते बच्चों की बात जल्दी से
जा समाते दिल तभी आँखों के रस्ते
लम्बी सी दे मुस्कान देते हैं
खुद से पहले रख बच्चों का ध्यान लेते हैं
यूँ ही नहीं कहाते उसके भिंजाये फरिश्ते
जल्दी से पढ़ने लगते दुवाएँ
सर अपने ले लेते बच्चों की बलाएँ
जोड़ कर ताउम्र निभाते रिश्ते
गुरु जी देख ही नहीं सकते
रोते बिलखते
अपने बच्चों के लिये
सिसकियाँ भरते
गुरु जी देख ही नहीं सकते ।।जलं।।
अपना था ही क्या
ये नव-जीवन गुरु जी ने दिया
आ करते कुरबाँ
उन्हीं पे करते ये दिलो-जाँ
जनम-जनम खुद के लिये जिये
आ एक जनम जीते गुरु जी के लिये
आशा रख विश्वास
छुवा देंगें आकाश
चूँकि हैं, बागबाँ
आ करते कुरबाँ
उन्हीं पे करते ये दिलो-जाँ
उलझ सपनों में
पछताये करके मनमानी
गुरु चरणों में
आ सौंप दें बाकी की जिन्दगानी
वैसे जनम ‘मानौ’ ईख काना
बलजोर भी रस निकलता ना
चलो धर्म धरती, देते बुवा,
आ करते कुरबाँ
उन्हीं पे करते ये दिलो-जाँ
अपना था ही क्या ।।चंदनं।।
नेकी का रास्ता दिखा हो
गुरु जी ढ़ाई आखर सिखा दो
दुनिया का दूनिया कुछ हटके है
एक को दूसरा यहाँ खटके है
जायका मानवता चखा दो
छोटी मछली, बड़ी परेशाँ है
सर चढ़ के बोलता आज पैसा है
लकीरों में सहजता लिखा दो
अत्त फिर ढ़ाने लगी हिंसा है
संवेदना शून कलजुग इन्साँ है
शरमो-हया लाज रखा दो
नेकी का रास्ता दिखा हो
गुरु जी ढ़ाई आखर सिखा दो ।।अक्षतं।।
गुरुदेव के श्रीमुख से, हैं आये सुनते
दो नहीं, मिल के एक, एक, ग्यारा बनते
कभी न आपस में लड़ना ।
हाथ मिला आगे बढ़ना ।।
लक्ष्य नहीं छोटा-मोटा ।
खड़ी चढ़ाई है चढ़ना ।।
सुन दो बातें मत खीजो ।
टाँग किसी की मत खींचो ।।
जान एक हम जुदा जिसम
काँधे उठा गगन भेजो ।।
कोई रंक नहीं राणा ।
इक ताना दूजा बाना ।।
पत्थर नींव बने आ हम ।
ताश-महल तो गिर जाना ।।
दो नहीं, मिल के एक, एक, ग्यारा बनते
गुरुदेव के श्रीमुख से, हैं आये सुनते ।।पुष्पं।।
गुरु जी ने शंख नाद कर दिया
है अब बारी हमारी
वैसे नई न बात कोई हमें,
जीतना हारी पारी
है अभी छोटा ही परिन्दा
पर भरने चला उड़ान
हौंसले जो बुलन्द हैं
छू ही लेगा आसमान
माँ ने जो सर पर हाथ रख दिया
है अभी छोटी ही चींटी
पर चली उलाँघने पहाड़
हौंसले जो बुलन्द हैं
टक ही लेगी, चादर चाँद-सितार
माँ ने जो सर पर हाथ रख दिया
गुरु जी ने शंख नाद कर दिया ।।नैवेद्यं।।
राह में काँटे देखेंगे
गुरुजी गोद उठा लेगें
आशीष गुरु का साथ है
सर पर गुरु का हाथ है
डरने की क्या बात है
सर पर गुरु का हाथ है
पूरा है विश्वास
छू लेंगे आकाश
आज नहीं तो कल
चल बटरोही चल
चल बटरोही चल
राह में ठोकर देखेंगें
गुरु जी दीप थमा देंगें
गुरु का आशीर्वाद है
राह चौराहा देखेंगे
छोड़ कदमों के निशाँ देंगें
झिर लग करुणा बरसात है
डरने की क्या बात है ।।दीपं।।
रिश्ता जो जुड़ गया तुझसे
जुड़ गई है खुशियाँ मुझसे
चिड़िया घर मेरे फिरके आने लगी
मेरा होंसला बढ़ाने लगी
आ घौंसला बनाने लगी
मेरा हौंसला बढ़ाने लगी
चिड़िया घर मेरे फिरके आने लगी
हर तरफ से,
रिश्ता जो जुड़ गया तुझसे
जुड़ गई हैं खुशिंयाँ मुझसे
पेड़-मेरे आँगन का पा सावन गया है
फिर के नया सा बन गया है
फूल ही नहीं, पा फल भी अनगिन गया है
फिर के नया सा बन गया है
हर तरफ से
रिश्ता जो जुड़ गया तुझसे
जुड़ गई हैं खुशिंयाँ मुझसे
चिड़िया घर मेरे फिरके आने लगी ।।धूपं।।
दिन रैना, विनन्ति नम नैना
नन्हें नन्हें कदम बढ़ाऊँ
मुझे सँभालो गिर ना जाऊँ
गुरुवर इतनी शक्ति देना
थक रस्ते पर बैठ न जाऊँ
आगे बढ़कर मंजिल पाऊँ
गुरुवर इतनी शक्ती देना
अपनी फीकी पड़ती रेखा
देख पराई बढ़ती रेखा
गुरुवर इतनी शक्ति देना
रेखा अपनी बने बढ़ाऊँ
पर की रेख मिटा ना आऊँ
काँधे बिठा आसमाँ लाये
कोई ना हनुमान दिखाये
गुरुवर इतनी शक्ति देना
रख काँधे आसमाँ छुवाऊँ
टाँग किसी की खींच न आऊँ
थोथा चना घना बाजे है
सूखा घन दुगना गाजे है
गुरुवर इतनी शक्ति देना
पा अधिकार न रौब जमाऊँ
करतब पथ पर बढ़ते जाऊँ
रोड़े क्या रस्ते में पाता
मन विश्वास डगमगा जाता
गुरुवर इतनी शक्ति देना
उतर आग दरिया तर आऊँ
ठेल पर्वतों को बढ़ जाऊँ
तीर न मनमानी बाँतों का
गीड़ दिखे न निज आँखों का
गुरुवर इतनी शक्ति देना
देख आईना खींज न जाऊँ
बनें चलूँ रस्ते, न बनाऊँ
कस्ती भँवर खबर ले लेना
गुरुवर इतनी शक्ती देना ।।फलं।।
सबकी रक्षा हो
सबका अच्छा हो
श्री गुरु जी अहो, सबकी दीक्षा हो
‘जि गुरु जी, यही पहली,
यही अगली,
यहीं अंतिम, विनन्ति,
लाल माँ श्री मन्ती ।
ऋद्धि-सिद्धि हो,
समृद्ध-विशुद्धि हो
श्री गुरु जी अहो, सबकी सद्-बुद्धि हो ।।
‘जि चाँदी चाँदी हो,
छू आधि व्याधि हो
श्री गुरु जी अहो, सबकी समाधि हो ।।
ईति-भीति इति हो
संस्कृत-संस्कृति हो
श्री गुरु जी अहो, सबकी सद्-गति हो ।।अर्घ्यं।।
विधान प्रारंभ
हाई-को ?
प्रथम सम्यक् दर्शन वलय
(१)
हाई-को ?
कलि-सत्-जुग से ना कम ।
श्रमणों का समागम ।।
ले दृग् सजल अरदास ।
दो जन्म जरा मृत्यु विनाश ।
लिये चन्दन दूजी सुवास ।
दो भौ-ताप विनाश ।
पद अक्षत प्यास ।
धाँ ये स्वीकार लो अरदास ।
चढ़ाऊँ पुष्प राश ।
मदन फिर के न ले फाँस ।
भेंटूँ नैवेद्य फूटे सुवास ।
हित रोग क्षुध् ह्रास ।
प्रजालूँ दीप घृत गो गिर खास ।
हित प्रकाश ।
हेतेक कर्म विनाश ।
धूप खेऊँ, छुऊँ हुलास ।
ले स्वर्ग-मोक्ष आश ।
भेंटूँ श्रीफल-दूजी मिठास ।
द्रव्य आठों के आठों खास ।
अपना लो बना दास ।।अर्घ्यं।।
(२)
हाई-को ?
गुरु जी पढ़ लें जिनके खत ।
वे खुश किस्मत ।।
दृग् जल ले, आया इसलिये,
शरणा तेरी चाहिये ।
संगत तेरी चाहिये ।
एक झलक तेरी चाहिये ।
मुस्कान तेरी चाहिये ।
किरपा तेरी चाहिये ।
देशना तेरी चाहिये ।
‘कि सेवा तेरी चाहिये ।
पीछिका, तेरी चाहिये ।
जल-फल ले, आया इसलिये,
सन्निधि तेरी चाहिये ।।अर्घ्यं।।
महा अर्घ्य
कहा आचार्य श्री जी ने
“कलौ एकता बलम्”
मर-हम बने मरहम
कहा आचार्य श्री जी ने
करके रहमो-करम
माना जीने
भर भाव भीने
पार उसके सफीने
दो चार क्या मिले धागे
बन चले देखो बड़-भागे
लाग अब हाथ कहाँ लागे
तोड़ पाना कब सहज-सुगम
“कलौ एकता बलम्”
जाने किस मदरसे पढ़ा
वजन चींटी रही चढ़ा
खुद से कई गुना बड़ा
और फहरा लिया परचम
“कलौ एकता बलम्”
गिन अँगुलियों पे नही सकते
मिल के इक-एक इतने बनते
आ कीर्तिमान नया रचते
आपस में रह के संगठित हम
“कलौ एकता बलम्” ।।पूर्णार्घ्यं।।
द्वितीय सम्यक् ज्ञान वलय
(१)
हाई-को ?
हैं मेरे ‘गुरु महाराज’ ।
विदिग्-दिग् गूँजे आवाज ।।
जल लग न पाया हाथ ।
दृग्-जल ले आया साथ ।
चन्दन लगा न हाथ ।
काम ‘गो रे’ ले आया साथ ।
अक्षत लगा न हाथ ।
परिणत ले आया साथ ।
सुमन लग न पाया हाथ ।
मन ले आया साथ ।
व्यञ्जन लगा न हाथ ।
सिमरन ले आया साथ ।
घी-दिया लग न पाया हाथ ।
धिया ले आया साथ ।
अगर लगा न हाथ ।
सरस गिर् ले आया साथ ।
श्रीफल लगा न हाथ ।
दोनों जोड़ के आया हाथ ।
अर्घ लगा न हाथ ।
झुका कर के आया माथ ।।अर्घ्यं।।
(२)
हाई-को ?
सौंपी जिसने गुरु ड़ोरी ।
दिवाली उसकी होली ।।
लाया दृग्-जल बेशुमार,
नजरों में लो उतार ।
लाया चन्दन खुश्बू-दार,
अपनों से जाने हार ।
लाया अक्षत खुश्बूदार,
सपनों से पाने पार ।
लाया द्यु-पुष्प खुश्बूदार,
चरणों में लो बिठार ।
लाया रु-चरु खुश्बूदार,
बिदाई क्षुधा विचार ।
लाया दीपों की कतार,
विघटाने ‘ही’ अंधकार ।
लाया सुगंध मनहार,
खोलने मुक्ति का द्वार ।
लाया श्रीफल पिटार,
हेत एक आत्म उद्धार ।
लाया आठों ही द्रव्य-न्यार,
लेने दो पाँव पखार ।।अर्घ्यं।।
(३)
हाई-को ?
दें डाँट ।
गुरु ‘शिष्य शीशी’
न होवे ‘कि बारा-बाट ।।
चढ़ाऊँ यूँ ही न मैं उदक,
चाहूँ आत्म झलक ।
चढ़ाऊँ यूँ ही न मैं चन्दन,
चाहूँ शिव-स्पंदन ।
चढ़ाऊँ यूँ ही न मैं अक्षत,
चाहूॅं पद शाश्वत ।
चढ़ाऊँ यूँ ही न मैं सुमन,
चाहूँ अक्ष दमन ।
चढ़ाऊँ यूँ ही न मैं व्यञ्जन,
चाहूँ धी निरञ्जन ।
चढ़ाऊँ यूँ ही न मैं संज्योत,
चाहूँ माँ वसु गोद ।
चढ़ाऊँ यूँ ही न मैं सुगंध,
चाहूँ अबाधानंद ।
चढ़ाऊँ यूँ ही न मैं श्रीफल,
चाहूँ कल-उज्ज्वल ।
चढ़ाऊँ यूँ ही न मैं अरघ,
चाहूँ मोचन अघ ।।अर्घ्यं।।
(४)
हाई-को ?
कङ्कर मोती हो ।
गुरु कृपा होती तो माटी सोना ।।
जल चढ़ाया,
‘कि जन्म जरा मृत्यु का हो सफाया ।
‘कि संसार ताप ले समेट माया ।
पद-अक्षत काम हो हाथ बाँया ।
‘कि पग उल्टे लौटे, मदन आया ।
‘कि उखाडूँ पैर ‘क्षुध्’ जमा जमाया ।
‘कि हो चित् चारो खाने कर्मों का राया ।
उतरे बंध, चिर सिर बिठाया ।
‘कि मोक्ष महा फल अबकी भाया ।
पद अनर्घ पाऊँ, पा ज्ञान काया ।।अर्घ्यं।।
महा अर्घ्य
विद्यासागर सा दूजा नहीं ।
मैं न कहता जमाना यहीं ।।
पूर्ण-मासी शरद वो निशी ।
पाई माँ श्रीमति ने खुशी ।।
मल्लप्पा जी का कहना ही क्या ।
बन्द होटों से फूटे हँसी ।।
विद्या सागर सा दूजा नहीं ।
मैं न कहता जमाना यहीं ।।
दूज चाँद से बढ़ने लगे ।
बीज बन, पौध चढ़ने लगे ।।
माटी हा ! बनना इनको घड़ा ।
पाठशाला जा पढ़ने लगे ।।
विद्यासागर सा दूजा नहीं ।
मैं न कहता जमाना यहीं ।।
देशभूषण जी साधक महा ।
एक दिन जाके इनने वहाँ ।।
बांस हा ! बनना जो बांसुरी ।
दे दीजे व्रत ब्रमचर कहा ।।
विद्या सागर सा दूजा नहीं ।
मैं न कहता जमाना यहीं ।।
ज्ञानसागर जी ज्ञानी बड़े ।
ये जा चरणों में उनके खड़े ।।
पत्थर हा ! बनना जो ईश्वर ।
फेंके कपड़े जो तन थे चढ़े ।।
विद्यासागर सा दूजा नहीं ।
मैं न कहता जमाना यहीं ।।पूर्णार्घ्यं।।
तृतीय सम्यक् चारित्र वलय
(१)
हाई-को ?
दूर से देखें, भक्तों को आते,
‘गुरु’ मुस्कुरा जाते ।
कुछ कर दो,
चुगली विहँसाऊँ,
‘पल’-पृष्ठ न खाऊँ
भित्ति कान हटाऊँ,
गजस्-नान छकाऊँ,
पंक्ति-आप बढ़ाऊँ,
बेजोड़ जोड़ लाऊँ,
शीघ्र आ आपे जाऊँ,
अपनों को जिताऊँ,
कुछ कर दो,
निराकुल कहाँऊ,
ऐसा वर दो ।।अर्घ्यं।।
(२)
हाई-को ?
था तुम्हारा मैं, तुम्हारा हूॅं ।
तुम्हारा ही रहूॅंगा मैं ।।
पहुँचे कर्ण-द्वार हृदय पीर,
भेंटूॅं दृग्-नीर ।
शीतल आप पा जाऊँ दो वचन,
भेंटूॅं चन्दन ।
पदवी अब ‘कि पा जाऊँ, शाश्वत,
अक्षत ।
‘के कर सकूँ देह सनेह गुम,
कुसुम ।
द्वार मेरा पा ले तुम्हें पाँव रज,
भेंटूॅं नेवज ।
निहारने यूँ ही तुम्हें एक-टक,
भेंटूॅं दीपक ।
आप भाँति ‘कि होऊँ दर्द-मन्द ,
भेंटूॅं सुगंध ।
‘के रह सकूँ जागृत हर-पल,
भेंटूॅं श्रीफल ।
रखने फूक-फूक अपने डग,
भेंटूॅं अरघ ।।अर्घ्यं।।
(३)
हाई-को ?
गुरु-आशीष त्यों ।
जरूरी ‘जीवन-गाड़ी’ ग्रीस ज्यों ।।
आश ले ध्यान निश्चल,
चरणन रखूँ दृग् जल ।
आश ले सम्यक् दर्शन,
चरणन रखूँ चन्दन ।। ।
भेंटूँ धाँ-शाली अखण्डित,
आश ले सम्यक् चरित ।
आश ले अख-अविकार,
चढ़ाऊँ पुष्प पिटार ।
भिंटाऊँ घृत पकवान,
आश ले क्षुद् रोग हान ।
भेंटूँ दीया न तले तम,
आश ले दृग् और नम ।
भिंटाऊँ धूप दश-गंध,
आश ले गति निर्बंध ।
आश ले महा मोक्ष फल,
भिंटाऊँ थाल श्रीफल ।
आश ले शिव-सुरग,
भिंटाऊँ सहजो अरघ ।।अर्घ्यं।।
(४)
हाई-को ?
स्वप्न में,
‘जाते’
गुरु जिनके घर में, न दिन में ।
भेंटूॅं जल मैं,
लगाम रक्खूँ, होऊँ जो उतार में ।
भेंटूॅं चन्दन मैं,
आने महकते किरदार में ।
भेंटूॅं अक्षत मैं,
जन्मने फिर न संसार में ।
भेंटूॅं पुष्प मैं,
नहीं खोजता फिरूँ ‘सार-मार’ मैं ।
भेंटूॅं चरु मैं,
साँझ साँझ पाट लूँ क्षुध्-दरार मैं ।
भेंटूॅं दीप मैं,
आने सीप-मराल-धी कतार में ।
भेंटूॅं धूप मैं,
पतझड़ भुलाऊँ न बहार में ।
भेंटूॅं फल मैं,
दूँ बदल न खींच स्प्रिंग तार में ।
भेंटूॅं अर्घ मैं,
अबकी बार रोऊँ न फुहार में ।।अर्घ्यं।।
(५)
हाई-को ?
गुरु ने डाँट लगाई ।
तो होगी ही छुपी भलाई ।।
पायें दूरियाँ,
‘कि फितूरियाँ, मुँह की खाएं,
बुरी बलाएँ ।
हो छूमन्तर,
पाप नजर ।
स्नेह मन्मथ,
जाये विघट ।
क्षुध् पिपासा,
ले अंतिम श्वासा ।
बालू दिया,
न उठा लठिया ।
रखूँ सबर,
न घाई कर ।
गाने तराने,
‘भी’तर आने ।
भेंटूॅं मैं,
अर्घ तुम्हें,
खोने खिलौने,
सलोने होने ।।अर्घं।।
(६)
हाई-को ?
गिनती उसी से हो शुरु ।
जिसकी तरफी गुरु ।।
‘के जन्म-जरा मरण देवें चल,
चढ़ाते जल ।
संताप पाये ‘शम-जल’,
चढ़ाते घिस संदल ।
ले आश, पद अविचल,
चढ़ाते धान धवल ।
काम-बाण ‘कि हों विफल,
चढ़ाते पुष्प नवल ।
करे रोग क्षुद् न विकल,
चढ़ाते चरु पत्तल ।
मिथ्यातम न पाये पल,
चढ़ाते दीप चपल ।
ध्यानाग्नि कर्म जायें जल,
चढ़ाते धूप निर्मल ।
‘के मोक्ष प्राप्ति प्रयास हो सफल,
चढ़ाते फल ।
शाही आप सा ही ‘कि हो कल,
चढ़ाते द्रव्य सकल ।।अर्घ्यं।।
(७)
हाई-को ?
पाती आपको ।
गुरु-देव ‘जी’ स्लेट जाती साफ हो ।।
जन्म मृत्यु से पिण्ड छुड़ाने ।
संसार ताप विहँसाने,
अविनश्वर पद पाने,
काम बाण, दो टूक बनाने,
क्षुध् रोग जड़ से मिटाने,
मिथ्या तिमिर दूर भगाने,
कर्मों का नमो-निशां मिटाने
‘सम्यक् ज्ञान श्री’,फल पाने,
पद अनर्घ पा पाने,
लाये थाल अर्घ्य चढ़ाने ।।अर्घ्यं।।
(८)
हाई-को ?
हीरा न मोती ।
‘चाहिये’ मुस्कान, हाँ भले ही छोटी ।।
आंखों में झिर जल लाये ।
आपके पीछे-पीछे चलने आये ।
पल दुर्भाव सँभलने आये ।
दया-मूरत में ‘जि ढलने आये ।
मन्मथ भावों को विथलने आये ।
वेदना क्षुधा निगलने आये ।
विमोह भवों से निकलने आये ।
सभी आठों ही कर्म दलने आये ।
छला जिन्होंने उन्हें छलने आये ।
एक और माँ से पलने आये ।
हाथों में जल-फल लाये ।।अर्घ्यं।।
महा अर्घ्य
अपने सा बना लो ।
श्री गुरु अपना लो ।।
हम है सीधे-सादे ।
दुनिया स्वारथ साधे ।।
बिन्दु सिन्धु मिला लो ।
श्री गुरु अपना लो ।
अपने सा बना लो ।।
श्री गुरु अपना लो ।
हम है भोले-भाले ।
मग भूले, पग छाले ।।
ले गोदी जरा लो ।
श्री गुरु अपना लो ।।
अपने सा बना लो ।।
श्री गुरु अपना लो ।
हम बाला-गोपाला ।
न जमाने मुँह ताला ।।
नीर, क्षीर बना लो ।
श्री गुरु अपना लो ।।
अपने सा बना लो ।
श्री गुरु अपना लो ।।
हम है अनपढ़-अनगढ़ ।
बोले दुनिया सिर चढ़ ।।
कर हल्का उठा लो ।
श्री गुरु अपना लो ।
अपने सा बना लो ।।
श्री गुरु अपना लो ।
हम छोने-सलोने ।
ठेले दुनिया कोने ।।
दिल कोने बिठा लो ।
श्री गुरु अपना लो ।
अपने सा बना लो ।।
श्री गुरु अपना लो ।।पूर्णार्घ्यं।।
“जयमाला”
यही प्रार्थना मेरे भगवन्,
इन हाथों को जोड़ के ।
भगवन् हमें बना दो ऐसा,
काम आ सकूँ और के ।।
कुछ हो, भले बहुत कुछ हो पर,
सब-कुछ ना होवे पैसा ।
मानवता ही भूल गया जो
बोलो वो मानव कैसा ।।
जोड़ा जुड़ा, यही रह जाना
जाना सब कुछ छोड़ के ।
बोझ हमारी बने जिन्दगी
ऐसा दिन ना देखें हम ।
मात पिता परिवार सभी को
चलें साथ में लेके हम ।।
बनें साहसी, ना ‘कि आलसी,
पालें मंजिल दौड़ के ।
हाथ-पैर क्या नहीं हमारे,
क्यों विदेश का मुँह ताँकें ।
चीजें अपने हाथ बना के
क्यूँ न लाज भारत राखें ।।
ठानें, श्वास-चैन लेगें, रुख-
हवा पश्चिमी मोड़ के ।
धागे क्या दो, चार मिल पड़े,
कोई तोड़ न पाता फिर ।
बिन्दु, बिन्दु जुड़ चलते कितना,
दूर सिन्धु रह जाता फिर ।।
बात हमेशा याद रखें यह,
गोट-मरे, जुग तोड़ के ।
बड़ा पुण्य अवसर, आ मिल के
गुरु-सपने साकार करें ।
खुद के लिये जियें पशु भी,
पर-हित जीवन न्यौछार करें ।।
‘सहज निराकुल’ बनते हैं,
आ चलते हैं, कुछ न्योर के ।
यही प्रार्थना मेरे भगवन्,
इन हाथों को जोड़ के ।
भगवन् हमें बना दो ऐसा,
काम आ सकूँ और के ।।
।।जयमाला पूर्णार्घ्यं।।
‘सरसुति-मंत्र’
ॐ ह्रीं अर्हन्
मुख कमल-वासिनी
पापात्-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-ज्-ञानज्-ज्वाला
सह(स्)-स्र(प्) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-संभवे
वं वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*विसर्जन पाठ*
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।१।।
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।२।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।३।।
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।४।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
दोहा-
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
बनी रहे यूँ ही कृपा,
सिर ‘सहजो’ निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
“आरती”
करें आरतिया आओ ।
दीप की थरिया लाओ ।।
नरक अब पड़े न जाना ।
दिगम्बर ओढ़ा वाना ।।
बन चले पत्थर जैसे,
साक्षि मृग खाज खुजाना ।
थिरक ता थैय्या गाओ ।
दीप की थरिया लाओ ।
करें आरतिया आओ ।।१।।
खड़े चौराहे जाड़े ।
ग्रीष्म चढ़ पर्वत ठाड़े ।।
आन तरु मूल खड़े हैं,
मेघ गरजें जब कारे ।।
हृदय लौं भक्ति जगाओ ।
थिरक ता थैय्या गाओ ।
दीप की थरिया लाओ ।
करें आरतिया आओ ।।२।।
मल पटल पहने गहने ।
निराकुलता क्या कहने ।।
पराई पीर देख सुन,
लगे दृग् झरने बहने ।।
स्वर्ग शिव कदम बढ़ाओ ।।
हृदय लौं भक्ति जगाओ ।
थिरक ता थैय्या गाओ ।
दीप की थरिया लाओ ।
करें आरतिया आओ ।।३।।
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