वर्धमान मंत्र
ॐ
णमो भयवदो
वड्ढ-माणस्स
रिसहस्स
जस्स चक्कम् जलन्तम् गच्छइ
आयासम् पायालम् लोयाणम् भूयाणम्
जूये वा, विवाये वा
रणंगणे वा, रायंगणे वा
थम्भणे वा, मोहणे वा
सव्व पाण, भूद, जीव, सत्ताणम्
अवराजिदो भवदु
मे रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते मे रक्ख-रक्ख स्वाहा ।।
ॐ ह्रीं वर्तमान शासन नायक
श्री वर्धमान जिनेन्द्राय नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
=पूजन=
हाई-को ?
सदलगा में
चाँद
तारा जनमा अजमेर में ।
।। धन-धन ! दिखे स्वप्न माँ सन्ता ।।
याद कथा अभिमन्यु करके ।
मरणावीचि समाधि धरके ।।
लगी गूँथने गुण अरहन्ता ।
माँ मदालसा कर फिर आगे ।
बँध सनेह शिशु कच्चे धागे ।।
प्रसव पीर सह गई अनन्ता ।
बना दोल हाथों को अपने ।
सुना रही लोरी मिस सपने ।।
शुद्ध बुद्ध तू सिद्ध भदन्ता |
वर्ष आठ रख सिर-पलकों पे ।
फेर हाथ फिर शिशु अलकों पे ।।
कहे मुक्ति मारग निर्ग्रन्था ।
स्वप्न हुआ साकार ले रही ।
बलाँ सभी, आशीष दे रही ।।
जा बन शीघ्र मुक्ति वधु कन्ता ।
धन-धन ! दिखे स्वप्न माँ सन्ता ।।स्थापना।।
गायें सखिंयाँ मंगलाचार
माँ श्री मन्ति आँगन
छाईं खुशिंयाँ अपार
गायें सखिंयाँ मंगलाचार
जय जयकार, जय जयकार
पूरण चन्दा
आ गया जो
पूरण मंशा
आ गया जो
माँ श्री मन्ति आँगन
ऊरध-रेता
आ गया जो
अवध प्रणेता
आ गया जो
गो कन्हैया
आ गया जो
भौ-खेवैय्या
आ गया जो
छाईं खुशिंयाँ अपार ।।जलं।।
बाजे पैजनिया
बाजे पैजनिया
छम छम छम
छम छम छम
छम छमा छम छम
दुमक ठुमक के चाले विद्याधर
फूला नहीं समाये सारा घर
बड़ी चीकनी, घुँघरालीं
अलकें पिक-कण्ठी कालीं
माँ ले रही बलाएँ,
तिनके तोड़ कर
दिठौना माथे से जोड़ कर
नैन सुरमई तीते हैं
बोल तोतले मीठे हैं
दाँये तिल वाला मुखड़ा
निष्कलंक चन्दा टुकड़ा
दिव छव प्यारी मनहारी ।
कलरव जैसी किलकारी ।।चन्दनं।।
आँगन-आँगन उत्सव छाया ।
गगन सदलगा चाँद दिखाया ।।
नामो-निशाँ न धब्बा-दाग ।
कुल मल्लप्पा अबुझ चिराग ।।
नयन नयन को, मन को भाया ।
अमिरत झिर अद्भुत मुस्कान ।
शीतल कोकिल मिसरी वाण ।।
रस्ते दृग् जा हृदय समाया ।
सिन्ध न बस उमड़ा तिहु-लोक ।
भावी तीर्थंकर आलोक ।।
सहज निराकुल अचिन्त्य-माया ।
आँगन-आँगन उत्सव छाया ।
गगन सदलगा चाँद दिखाया ।।अक्षतं।।
पालने झूलें विद्याधर ।
सुलाये माँ लोरी गाकर ।।
तुम शुद्ध हो ।
तुम बुद्ध हो ।
मत-हंस तुम, कल सिद्ध हो ।
सुनो, तुम मोती चुगना,
भव मानस पाकर ।
सुलाये माँ लोरी गाकर ।
उड़ाने काग खातिर तुम,
मणि मनुज, कर ना देना गुम ।
चढ़ाना भगवन् चरणन,
हित सु-मरण जाकर ।
सुलाये माँ लोरी गाकर ।।
राख खातिर मेरे नन्दन ।
खाक न करना भव-चन्दन ।
चर्चना भगवन् चरणन,
हित सु-मरण आकर ।।
सुलाये माँ लोरी गाकर ।।
पालने झूलें विद्याधर ।
सुलाये माँ लोरी गाकर ।।
तुम शुद्ध हो ।
तुम बुद्ध हो ।
मत-हंस तुम, कल सिद्ध हो ।।पुष्पं।।
दूजा शरद पून चन्दा ।
माई श्री मन्ती नन्दा ।।
झील गहरी जिसकी आँखें ।
घोल मिसरी जिसकी बातें ।
साँस खुशबू रजनी गंधा ।
बाल काले घूँघर वाले ।
दाहिने-तिल चूनर-तारे ।।
गला आवर्त लिये शंखा ।
हिमालय से ऊँचा माथा ।
पुष्प चम्पक नासा नाता ।।
कुल मिला के स्वर्ण सुगंधा ।
दूजा शरद पून चन्दा ।
माई श्री मन्ती नन्दा ।।नैवेद्यं।।
वन्दन, वन्दन
शामो-सुबहा
ग्राम सदलगा की
आबो-हवा
सरीखी दुवा
ग्राम सदलगा की
मीठी जुबां
बाल गोपाला सभा
ग्राम सदलगा की
गुशाला, पाठशाला जुदा
बाल-विद्याधर जो गई पा
धन-धन, धन-धन
पाई खुशबू न्यारी ।
सदलगा फुलबारी ।।
आई सुर्ख़िंयों में ।
पानी अँखिंयों में ।।
जाऊँ मैं बलिहारी ।
पाई खुशबू न्यारी ।
नया एक फूल खिला ।
दूसरा न और मिला ।।
देखी दुनिया सारी ।
अनूठा मुस्कुराना ।
न छेड़ती पवमाना ।।
नया एक फूल खिला ।
दूसरा न और मिला ।।
देखी दुनिया सारी ।
सदलगा फुलबारी ।।
कण-पराग कुछ हटके ।
नूर आसमाँ टपके ।।
नया एक फूल खिला ।
दूसरा न और मिला ।।
पाई खुशबू न्यारी ।।दीपं।।
माँ ने सँजोये थे सपने कई
कैसी होगी मेरे विद्या की बहुरिया नई
चाँद जैसी होगी
नहीं…नहीं
चाँद में तो दाग है
चाँद से भी सुन्दर, अनोखी होगी
आँसू गिराने लगीं,
टप-टप आँखें
मानो मनाने लगीं,
देख इक-टक आँखें
तुम जो कहने लगे,
जाने की छोड़ के
अपनी माँ का,
दिल तोड़ के
बाबू बना क्या विद्या,
मेरी खुल लॉटरी गई
काटूँगी चाँदी मैं
न मनाऊँगी सादी मैं
बड़े धूम-धाम से मनाऊँगी
अपने विद्या की शादी में ।।धूपं।।
विद्याधर, विद्याधर, विद्याधर ।
गुरुकुल कुन्द-कुन्द, आ पहुँचे छोड़ घर ।।
छोड़ी श्री मन्ति माता ।
बचपन से जिनसे नाता ।।
पिता श्री मल्लप्पा, उनको छोड़ कर ।
गुरुकुल कुन्द-कुन्द, आ पहुँचे छोड़ घर ।।
दुकाँ, मकाँ, खेती-बाड़ी ।
धन-पैसा, मोटर-गाडी ।।
दिवा सुपन से, इनसे मुखड़ा मोड़ कर ।
गुरुकुल कुन्द-कुन्द, आ पहुँचे छोड़ घर ।।
पकड़ निराकुल-सुख रस्ता ।
चल काँटों पर आहिस्ता ।।
इक अपूर्व वैराग दुशाला ओड़ कर ।
गुरुकुल कुन्द-कुन्द, आ पहुँचे छोड़ घर ।।
विद्याधर, विद्याधर, विद्याधर ।।फलं।।
सदलगा की माटी में खेले हैं
विद्या-सागर सन्त बड़े अलबेले हैं
जनमें शरद पूर्णिमा दिन
छब सूरज की पहली किरण
धन्य गोदी माँ श्री मन्ती
आँगन पिता मलप्पा धन
एक पाठी मति-धारी आज अकेले हैं
विद्या-सागर सन्त बड़े अलबेले हैं
दक्षिण सन्त पधारे हैं
दृग्-जल चरण पखारे हैं
किया समर्पण चरणों में
व्रत प्रतिमा के धारे हैं
साथी हुये इकासन, बेले, तेले हैं
विद्या-सागर सन्त बड़े अलबेले हैं
जा पहुँचे अजमेर नगर
जहाँ ज्ञान सागर गुरुवर
हो चाले लो दैगम्बर,
तुम किरपा से इक पल में
मूकमाटी रच कवि से, रवि से पहले हैं
विद्या-सागर सन्त बड़े अलबेले हैं ।।अर्घ्यं।।
=विधान प्रारंभ=
(१)
हाई-को ?
लेने लगतीं बलाएँ ।
देखते ही बच्चों को मांएं ।।
अब न जल बिलोने ।
जल चढ़ा रहा ।
आ चरणों में, चन्दन चढ़ा रहा ।
आप सा होने ।
सुकृत बोने ।
अक्षत चढ़ा रहा ।
आ चरणों में, पुष्प चढ़ा रहा ।
न वर्षों में रोने ।
रोग क्षुध् खोने ।
नैवेद्य चढ़ा रहा ।
आ चरणों में, दीप चढ़ा रहा ।
‘के भूलूँ खिलौने ।
‘के भाव हों नोने ।
धूप चढ़ा रहा ।
आ चरणों में, श्रीफल चढ़ा रहा ।
न पल सोने ।
ले भाव सलोने ।
आ चरणों में, अर्घ चढ़ा रहा ।।अर्घ्यं।।
(२)
हाई-को ?
मिसरी घुली ।
‘गुरु-जिंदगी’ होती किताब खुली ।।
ले आये जल हम ।
‘सुन-तू लेता’ सिर सितम ।
‘सुन-तू लेता’ भर जखम ।
‘सुन-तू लेता’ चूँकि दृग् नम ।
‘सुन-तू लेता’ झगड़ यम ।
‘सुन-तू लेता’ आहार कम ।
‘सुन-तू लेता’ खदेड़ तम ।
‘सुन- तू लेता’ ध्याँ शुद्धातम ।
‘सुन-तू लेता’ रस-आगम ।
‘सुन-तू लेता’ व्यथा ‘अधम’ ।।अर्घ्यं।।
(३)
हाई-को ?
अरिहन्त की निधि ।
देती है दिला, सन्त सन्निधि ।
चढ़ाऊँ जल ये,
चाह ले ‘बस’ तद्-गुण लब्धये ।
संदल ये, भेंटूँ तण्डुल ये ।
गुल ये, भेंटूँ शकल ये ।
दिया अचल ये, भेंटूँ अनल ये ।
श्री फल ये, भेंटूँ सकल ये ।
चाह ले ‘बस’ तद्-गुण लब्धये ।।अर्घ्यं।।
(४)
हाई-को ?
न चीन के ।
श्री गुरु दें पतझड़ सा न छीन के ।।
भेंटूँ जल नयन ।
विकलता, चंचलता खो जाये ‘के मन ।
मादकता, आकुलता खो जाये ‘के मन ।
विमूढ़ता, गृद्धता खो जाये ‘के मन ।
वंचकता, पामरता खो जाये ‘के मन ।
गहलता खो जाये ‘के मन ।
भेंटूँ जल नयन ।।अर्घ्यं।।
(५)
हाई-को ?
राहत जख्म बच्चों के पा-ही जाएँ ।
जो फूँके माँएँ ।
बढूँ, न लडूँ जल जैसा ।
भेंटूँ जल कलशा ।
मैं भेंटूँ चन्दन घिसा ।
महकूँ, जल भी चन्दन सा ।
पूजा करते-करते बनूँ पूज ।
भेंटूँ धाँ दूज ।
मैं ‘सुमन’ चरणों में रखूँ ।
‘के नाम सार्थक कर सकूँ ।
लगने लगे सजीव से, अजीव ।
भेंटूँ प्रदीव ।
स्वर-‘व्यंजन’ चरणों में रखूँ ।
रख सलीके सकूँ ।
‘के कर स्वाध्याय ।
भेंटूँ अगर खोलूँ स्व-अध्याय ।
फल चरण रखूँ ।
पा कुछ वृक्ष सा झुक सकूँ ।
बन सके कि अबकि बात ।
भेंटूँ अर्घ परात ।।अर्घ्यं।।
(६)
हाई-को ?
गुरु उनके होते जाते ।
जो पापों को खोते जाते ।।
जल चढ़ायें ।
पाप कपूर से, ‘के धू-धू कर जायें ।
भाव कि छू ‘भी’ तर सूनर जायें ।
गंध चढ़ायें ।
शालि-धान चढ़ायें ।
ओड़ी चूनर ‘के हूबहू धर जायें ।
भूल ‘कि भूल-कूकर जायें ।
पुष्प चढ़ायें ।
पा आप कृपा ‘के बन भू-सुर जायें ।
चरु चढ़ायें ।
‘के देशना शब्द-शब्द छू कर जायें ।
दीप चढ़ायें ।
धूप चढ़ायें ।
योग बेंत से हो ‘कि दूनर जायें ।
आयें, ‘फिर के’ न द्यु-पुर जायें ।
श्री फल चढ़ायें ।
अर्घ्य चढ़ायें ।
चाँद-तारे ‘के टक चूनर जायें ।।अर्घ्यं।।
(७)
हाई-को ?
हैं देते मिला मंजिल से ।
गुरु दे अंक दिल से ।।
लाये चढ़ाने नीर,
आप के जैसी रिझाने धीर ।
लाये चढ़ाने गंध,
आप के जैसा पाने आनन्द ।
लाये चढ़ाने अक्षत,
आप सा पद पाने शाश्वत ।
लाये चढ़ाने गुल,
हो जाने आप सा बिलकुल ।
लाये चढ़ाने व्यंजन,
आप सा हो पाने सज्जन ।
लाये चढ़ाने दीव,
आप के और आने करीब ।
लाये चढ़ाने धूप,
आप सी कला पाने अनूप ।
लाये चढ़ाने श्रीफल,
आप जैसा हो पाने निश्छल ।
लाये चढ़ाने अरघ,
आप सा हो पाने अनघ ।।अर्घ्यं।।
(८)
हाई-को ?
ले सीढ़ी खड़ी माँएँ !
जा बच्चे ‘कि छू आसमाँ आएँ ।
जल लाये,
न खेल बन के रह जीवन जाये ।
न द्वन्द बन के रह जीवन जाये ।
गंध लाये,
सुधाँ लाये,
न सोपाँ बन के रह जीवन जाये ।
न पुल बन के रह जीवन जाये ।
गुल लाये,
चरु लाये,
न स्वप्न बन के रह जीवन जाये ।
न सीप बन के रह जीवन जाये ।
दीप लाये,
धूप लाये,
न ‘कूप मण्डूक-रह’ जीवन जाये ।
न ‘किल-किल’ निकल जीवन जाये ।
फल लाये,
अर्घ लाये,
न नर्क बन के रह जीवन जाये ।।अर्घ्यं।।
(९)
हाई-को ?
रहे न छुये बिना जादू ।
जादुई संगति साधु ।।
डराया डर ने, डर को डराऊँ ।
जल चढ़ाऊँ ।
भेंटूँ चन्दन धार ।
डर ‘कि लगे एक किनार ।
के मिटे डर का नामोनिशान ।
तेरे दर पे, मैं खड़ा लिये धान ।
चढ़ाऊँ पुष्प ‘इतर’ ।
काँपे ‘कि डर थर-थर ।
करने डर का सफाया
नैवेद्य ये भेंटने लाया ।
चढ़ाऊॅं मैं दीप घृत-गो ।
‘के डर चारों खाने चित् हो ।
आया डर को भगाने
धूप घट लाया चढ़ाने ।
भेंटूँ श्री फल न्यारा ।
डर ‘कि देखे यम का द्वारा ।
छोड़ने डर थामी छिगरी ।
भेंटूँ द्रव्य सबरी ।।अर्घ्यं।।
(१०)
हाई-को ?
अनूठी
‘गुरु-कृपा’
मौसमे-ठण्डी, धूप सी मीठी ।।
मुँह की खाये जन्मान्तक,
चढ़ाने लाये उदक ।
खाये ‘कि मुँह की बन्धन,
चढ़ाने लाये चन्दन ।
मुँह की खाये गफलत,
चढ़ाने लाये अक्षत ।
अबकि मुँह की खाये कुप्,
चढ़ाने लाये पहुप ।
खाये ‘कि मुँह की क्षुध्-रुज,
चढ़ाने लाये नेवज ।
खाये ‘कि मुँह की धिया धिक्,
चढ़ाने लाये दीपिक ।
खाये ‘कि मुँह की फिकर,
चढ़ाने लाये अगर ।
खाये ‘कि मुँह की गहल,
चढ़ाने लाये श्रीफल ।
खाये ‘कि मुँह की धी-अघ,
चढ़ाने लाये अरघ ।।अर्घ्यं।।
(११)
हाई-को ?
न खाते ।
‘बना’ गुरु जी ‘लड्डू-मन के’ न खिलाते ।।
जन्म मरण पीछे पड़े,
त्राहि माम् ले जल खड़े ।
परावर्तन पीछे पड़े,
त्राहि माम् ले गंध खड़े ।
दुरित पन पीछे पड़े,
त्राहि माम् ले धान खड़े ।
बाण मदन पीछे पड़े,
त्राहि माम् ले पुष्प खड़े ।
सप्त व्यसन पीछे पड़े,
त्राहि माम् ले चरु खड़े ।
भ्रम ना…गिन पीछे पड़े,
त्राहि माम् ले दीप खड़े ।
‘वस’ दुश्मन पीछे पड़े,
त्राहि माम् ले धूप खड़े ।
कोरे सपन पीछे पड़े,
त्राहि माम् ले फल खड़े ।
अपशगुन पीछे पड़े,
त्राहि माम् ले अर्घ खड़े ।।अर्घ्यं।।
(१२)
हाई-को ?
ढाई आखर ओ ।
मेरी भी खबर रखने लगो ।
लाये जल,
‘कि हों मनसूबे जन्म-मृत्यु विफल ।
लाये चन्दन,
‘कि हों मनसूबे भौ-वन विफल ।
लाये धान,
‘कि हों मनसूबे अप-ध्यान विफल ।
लाये पहुप,
‘कि हों मनसूबे कुप् अब विफल ।
लाये पकवाँ,
‘कि हों मनसूबे धिक् क्षुधा विफल ।
लाये ज्योत,
‘कि हों मनसूबे पाप-पोथ विफल ।
लाये सुगंध,
‘कि हों मनसूबे भौ-बन्ध विफल ।
लाये फल,
‘कि हों मनसूबे छल-बल विफल ।
लाये अरघ,
‘कि हों मनसूबे धी-अघ विफल ।।अर्घ्यं।।
(१३)
हाई-को ?
थी ही जै गुरु जी बोली ।
‘चार चाँद’ ‘कि पाई झोली ।
ले खड़े, जल घड़े,
जन्म ‘मृत्यु’ ‘कि राह पकड़े ।
लिये चन्दन खड़े,
त्राहि माम् भवा-ताप बिगड़े ।
कुछ करो ‘कि निरापद जुड़े,
ले अक्षत खड़े ।
ले खड़े पुष्प द्यु बागान,
बिखरें ‘कि पुष्प बाण ।
रोग क्षुधा ‘कि, जड़ से उखड़े,
ले नैवेद्य खड़े ।
मिथ्या-तम ‘कि किनार पकड़े,
ले घी-दिये खड़े ।
ले खड़े धूप घट,
प्रकटे ‘कि चित् स्वरूप झट ।
ले खड़े फल परात,
मोक्ष फल ‘कि लागे हाथ ।
ले खड़े द्रव्य शबरी,
पाने भुक्ति-मुक्ति नगरी ।।अर्घ्यं।।
(१४)
हाई-को ?
‘और’ नाजुक कमल ।
गुरु खुद को नारियल ।।
‘के दृग् जल चढ़ा रहा ।
भै जन्म और न जाये सहा ।
भौ ताप और न जाये सहा ।
विजोड़ न जाये सहा ।
मन्मथ और न जाये सहा ।
क्षुध् रोग और न जाये सहा ।
अज्ञान और न जाये सहा ।
अत्त ‘ही’ और न जाये सहा ।
मिथ्यात्व और न जाये सहा ।
‘के जल-फल चढ़ा रहा ।
विरह और न जाये सहा ।।अर्घ्यं।।
(१५)
हाई-को ?
छू नर्मी,
सर्दी, वर्षा, गर्मी,
हैं सहें साधू
‘समाँ भू’ ।
‘कि बिलायें,
घट जल-गंग चढ़ायें ।
कर्म-बन्ध ‘कि बिलायें,
जन्म मृत्यु, जरा द्रोह
राग-द्वेष, मान-मोह
काम-क्रोध, रोग-शोक
पाप ताप, माया-लोभ
सर्व द्वन्द ‘कि बिलायें ।
हट जल-गंध चढ़ायें ।।अर्घ्यं।।
(१६)
हाई-को ?
कहीं और न जन्नत ।
सिवाय सत्-गुरु संगत ।।
जल कंचन स्वीकार लो घट चन्दन ।
जन्म मरण, मेंट दो झट बन्धन ।
अक्षत-कण, स्वीकार लो स्वर्ग सुमन ।
असत् वचन, मेंट दो स्नेह मदन ।
घृत व्यंजन, स्वीकार लो दीप रतन ।
क्षुदा वेदन, मेंट दो धी, पर-तन ।
सुगंध अन, स्वीकार लो फल गगन ।
भव बंधन मेंट दो छल-रमन ।
स्वीकार लो अर्घ शगुन ।
मेंट दो नर्क गमन ।।अर्घ्यं।।
(१७)
हाई-को ?
समय आ ही जाये हाथ में ।
गुरु जी के साथ में ।।
चढ़ाऊँ जल क्या, सारी ही निधि,
पा आप सन्निधि ।
दया जाये ‘कि बरस आया,
घिस चन्दन लाया ।
आया ले हाथों में अक्षत,
चाहत पद-शाश्वत ।
आया ले पुष्प थाल,
हा ! पुष्प बाण लीजे सँभाल ।
आया ले घृत-व्यंजन,
करने क्षुध् मद-मर्दन ।
आया ले दिया पवमान अगम,
भगाने तम ।
आये ले धूप महके गगन,
‘कि थमे ‘ही-रण’ ।
आये ले फल मीठे पके,
‘कि मोक्ष-मंजिल दिखे ।
आया ले अर्घ अपने-सा,
त्राहि-माम् खींचता पैसा ।।अर्घ्यं।।
(१८)
हाई-को ?
तेरी मुस्कान ।
माटी के पुतले में भी फूँके जान ।।
साथ विश्वास
दृग् जल ये रखे पाँव-पास,
ले आशीष आश ।
ले छांव आश ।
ले कृपा आश ।
ले शरण आश ।
ले दृष्टि आश ।
ले संबोधि आश ।
ले समाधि आश ।
ले मोक्ष आश ।
जल-फल ये रखे पाँव-पास ।
साथ विश्वास ।
ले दीक्षा आश ।।अर्घ्यं।।
(१९)
हाई-को ?
गाँठ सरक-फूँद भी न लगाते ।
‘गुरु’ बताते ।।
जल-कलश, भेंटते घट-चन्दन ।
लौं-फरस, दो टूक हो ‘कि भौ-बन्धन ।
थाल अक्षत, भेंटते पुष्प-बागान ।
पाप-मत, दो टूक हों ‘कि पुष्प-बाण ।
चरु-परात, भेंटते ज्योत-अखर ।
क्षुध् मुराद, दो टूक हो ‘कि मौत-डर ।
सुगंध-घट, भेंटते श्रीफल-थाल ।
द्वन्द-रट, दो टूक हो ‘कि ‘ही’ जंजाल,
भेंटते सब-दरब
दो टूक हों ‘कि डर-सब ।।अर्घ्यं।।
(२०)
हाई-को ?
दिल का रिश्ता तुमसे अटूट ।
न कहते झूठ ।।
छोड़ते जल-धार ।
जनम ‘कि चित् हो खाने चार ।
बन्धन ‘कि चित् हो खाने चार ।
चन्दन न्यार, भेंटूॅं धाँ दाने चार ।
अपध्याँ ‘कि चित् हो खाने चार ।
मार ‘कि चित् हो खाने चार ।
द्यु-पुष्प पिटार, भेंटूॅं व्यञ्जन मनहार ।
क्षुध् ‘कि चित् हो खाने चार ।
भौ ‘कि चित् हो खाने चार ।
दीप गो दुग्ध सार, भेंटूॅं सुगंध गुणकार ।
कुप् ‘कि चित् हो खाने चार ।
‘ही’ ‘कि चित् हो खाने चार ।
श्रीफल जटादार, भेंटूॅं भर के अर्घ थाल ।
‘मैं’ ‘कि चित् हो खाने चार ।।अर्घ्यं।।
(२१)
हाई-को ?
थे, है, तेरे ही ।
रहेंगे भगवन् मेरे ! आगे भी ।।
‘कि हो छू-मन्तर,
जल इतर, लाये चन्दन अर ।
यम-जन्म पाप-ताप, ‘कि हो छू-मन्तर ।
धाँ मनहर, लाये पुष्प अमर ।
नाम-काम, आधि-व्याधि ‘कि हो छू-मन्तर ।
व्यंजन सुर, लाये दीप अखर ।
मोह-द्रोह, संध-बंध ‘कि हो छू-मन्तर ।
अर-अगर, लाये फल मधुर ।
राह-श्याह लोभ-क्षोभ ‘कि हो छू-मन्तर ।
लाये अर्घ पातर ।
नेह-देह ‘कि हो छू-मन्तर ।।अर्घ्यं।।
(२२)
हाई-को ?
आशीर्वाद, श्री गुरु ! ।
‘हाथ फलता’ ‘बाद’री’ तरु ।।
आश ले, जल-गंध कलशे भेंटूँ ।
जन्म-मृत्यु से, द्वेष-क्लेश से छूटूँ ।
मान-ग्लान से, वाम-काम से छूटूँ ।
आश ले, शाली धाँ निरे, पुष्प द्यु वर्षे भेंटूँ ।
आश ले, चरु घी भरे, दीप मन से भेंटूँ ।
भोग-रोग से, माया काया से छूटूँ ।
राग-आग से, द्वन्द-फन्द से छूटूँ ।
आश ले, धूप कलशे, फल विरले भेंटूँ ।
आश ले, द्रव्य वसु ले भेंटूँ ।
दौड़-होड़ ‘के जोड़-तोड़ से छूटूँ ।।अर्घ्यं।।
(२३)
हाई-को ?
कमाने अच्छे दिन ।
‘सँग सत्सँग’ आ खर्चे दिन ।।
दे दो अपनी इक झलक,
उदक, खड़े लिये चन्दन ।
मुझे अपनी ले लो शरण ।
अपने रख लो गुरुकुल ।
तण्डुल खड़े लिये द्यु-गुल ।
स्वयं सा कर लो निराकुल ।
रख चाहत स्वानुभवन ।
व्यंजन, खड़े लिये घी दिया ।
सहज रह सके ‘कि धिया ।
बस उठा दो एक नजर ।
अगर, खड़े लिये श्रीफल ।
कर पायें ‘कि बात दो पल ।
बनने आप जैसे अनघ ।
खड़े लिये अरघ ।।अर्घ्यं।।
(२४)
हाई-को ?
अट-पट-भी ।
‘प्रश्न-बूझें-गुरु जी’ झट-पट ही ।।
खातिर घर साक्षात् दरश ।
जल कलश, भेंटूँ चन्दन घिसा ।
खातिर आप कृपा बरसा ।
खातिर इक मुस्कान ।
शाली अक्षत धान, भेंटूँ बागन फूल ।
खातिर पाँव-पावन धूल ।
खातिर भक्ति नौ-धा ।
घृत निर्मित पकवाँ, भेंटूँ गो-घृत दीपक ।
खातिर घर गन्धोदक ।
खातिर एक आप नजर ।
अर-अगर, भेंटूँ फल पिटारे ।
खातिर पद-प्रक्षाल द्वारे ।
खातिर पल दो पल बात ।
भेंटूँ अर्घ परात ।।अर्घ्यं।।
(२५)
हाई-को ?
जोड़ें, तो फिर दें टूटने न रिश्ते ।
‘गुरु’ फरिश्ते ।।
राग विषयों का ‘कि छोड़ पाऊँ,
दृग् जल चढ़ाऊँ ।
विषय खींचें बलात् मन,
‘त्राहि माम्’ भेंटूँ चन्दन ।
प्रीत विषयों से हटाने,
धाँ दाने लाये चढ़ाने ।
तोड़ सकने विषयों से नाता,
द्यु पुष्प चढ़ाता ।
छोडूँ विषय ‘कि विष जान,
भेंटूँ घी पकवान ।
लाये दीप ‘घी-गो’
वासना विषयों की जाये ‘कि खो ।
लेने विषयों की खबर,
चढ़ाने लाये अगर ।
विषय मारें बाजी,
त्राहि माम् भेंटूँ श्री फल राजी ।
‘कि विषयों को लूँ आड़े हाथ,
भेंटूँ अर्ध परात ।।अर्घ्यं।।
(२६)
हाई-को ?
सहज बच्चों की जाते मान ।
गुरु और भगवान् ।।
‘के निधि निज तकूँ ।
दृग् जल रखूँ, तुम पाँवों में चन्दन रखूँ ।
‘के होड़ मृग थकूँ ।
‘के स्वानुभव चखूँ ।
अक्षत रखूँ, तुम पाँवों में फूल रखूँ ।
मस्तूल ‘कि आ निरखूँ ।
‘के रस-रस छकूँ ।
नैवेद्य रखूँ, तुम पाँवों में दीप रखूँ ।
आ ‘के शिखर पे दिखूँ ।
बाद लखने के लिखूँ ।
धूप रखूँ, तुम पाँवों में श्रीफल रखूँ ।
पाँव भीतर रखूँ ।
‘के मग अघ विसरूँ ।
तुम पाँवों में अर्घ रखूँ ।।अर्घ्यं।।
(२७)
हाई-को ?
तेरी कृपा से ।
पड़ने लगे मेरे सीधे-से पाँसे ।।
दृग् जल चढ़ाऊँ,
हसरतें ‘कि नफरतें
गफलतें ‘कि हरकतें
बैर पर्तें ‘कि सरहदें
सिर-मदें ‘कि धी जी मथें
‘कि भित्ति-छतें जड़ से मिटा पाऊँ
जल-फल चढ़ाऊँ ।।अर्घ्यं।।
(२८)
हाई-को ?
गुँथी-गुत्थी, दें सुलझा ।
गुरु की भक्ति करें आ ।।
भेंटूँ झारी पानी की ।
रुचि पापों की,
करने फीकी रुचि गंधों की
भेंटूँ झारी गंधी की ।
भेंटूँ शाली धाँ नीकी ।
रुचि रसों की,
करने फीकी रुचि स्पर्शों की ।
भेंटूँ पुष्प द्यु दीखी ।
भेंटूँ चरु मिश्री की ।
रुचि भोगों की,
करने फीकी रुचि रंगों की ।
भेंटूँ दीपाली घी की ।
भेंटूँ द्यु सुगंधी ही ।
रुचि पैसों की,
करने फीकी, रुचि रिश्तों की ।
भेंटूँ फल मिश्री ही ।
भेंटूँ द्रव्य सारी ही ।
रुचि लाठी की करने फीकी ।।अर्घ्यं।।
=जयमाला=
शरद पूनम निशि सुहानी,
शशि जमीं अद्वितिय आया ।
झील सी आंखें गुलाबी,
गाल ग्रीवा शंख की सी ॥
कमर पतली देख बगलें,
झाँकता है केसरी भी ।
पुष्प चम्पक नासिका शशि,
पंक्ति नख, अलि श्याह अलकें ॥
पद्म पाँखुरि होंठ,
पगतलियाँ मणी मरकत सरीखी ।
अँगुलिंयाँ पतली धनुष सी,
भ्रुएँ चारु चिबुक आहा ॥
दिव्य भासुर भाल उजियाला,
हरिक दिश् विदिश् छाया ।
कुमुदनी सा हो प्रफुल्लित,
गया चेहरा माँ पिता का ।
दिश् नहीं फहरा रही मुस्कान,
किस बोलो पताका ॥
लग रहा ये विधाता की ,
कृति अमोलक अहा जिसमें ।
रंग भर किस अंग से बोलो,
प्रकृति ने नहीं झाँका ॥
हाँस गुल, अलि-गान, मृग-लोचन,
मराली चाल आहा ।
कौन नहिं अँगुलियाँ दाबे दाँत,
रूपसी देख काया ॥
जिसे अपलक चकोरे सा,
देखता संसार सारा ॥
रख नयन हिय सिन्धु बन्धु,
फाँदने तत्पर किनारा ।
कहाँ नामो-निशाँ लाँछन कहीं,
लग नहिं नजर जाये ॥
लगा भ्रू मिस दिठौना,
भेजा गया, कृतिकार द्वारा ।
सिर्फ शंकर शीश नहिं,
दिल राज सबके करे आहा ॥
झिरा झारी रहा अमरित,
भले कोई रंक राया ।
शरद पूनम निशि सुहानी,
शशि जमीं अद्वितिय आया
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
‘सरसुति-मंत्र’
ॐ ह्रीं अर्हन्
मुख कमल-वासिनी
पापात्-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-ज्-ञानज्-ज्वाला
सह(स्)-स्र(प्) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-संभवे
वं वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*विसर्जन पाठ*
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।१।।
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।२।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।३।।
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।४।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
दोहा-
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
बनी रहे यूँ ही कृपा,
सिर ‘सहजो’ निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
*आरती*
आओ करे आरती आओ ।
थाल सजाओ, दीप जगाओ ।।
आओ करे आरती आओ ।।
नरक भयभीत चले वन को ।
छोड़ घर-बार कुटुम धन को ।।
सुख निरा-कुल रख अभिलाषा,
दृष्टि नासा, वशि कर मन को ।।
पग थिरकाओ, ढ़ोल बजाओ ।
आओ करे आरती आओ ।
थाल सजाओ, दीप जगाओ ।।
आओ करे आरती आओ ।।१।।
खड़े आ चौराहे जाड़े ।
लू लपट पर्वत आ ठाड़े ।।
सहज आ खड़े वृक्ष नीचे,
देख बिजुरी बदरा काले ।।
गुलाल लाओ, रंग उड़ाओ ।
आओ करे आरती आओ ।
थाल सजाओ, दीप जगाओ ।।
आओ करे आरती आओ ।।२।।
जगत् भर से मैत्री रखते ।
दीन लख नैन बरस पड़ते ।।
प्रेम उमड़े गुणिजन देखे,
अत्त दुर्जनन क्षमा करते ।।
पुण्य कमाओ, भव्य कहाओ ।।
आओ करे आरती आओ ।
थाल सजाओ, दीप जगाओ ।।
आओ करे आरती आओ ।।३।।
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