वर्धमान मंत्र
ॐ
णमो भयवदो
वड्ढ-माणस्स
रिसहस्स
जस्स चक्कम् जलन्तम् गच्छइ
आयासम् पायालम् लोयाणम् भूयाणम्
जूये वा, विवाये वा
रणंगणे वा, रायंगणे वा
थम्भणे वा, मोहणे वा
सव्व पाण, भूद, जीव, सत्ताणम्
अवराजिदो भवदु
मे रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते मे रक्ख-रक्ख स्वाहा ।।
ॐ ह्रीं वर्तमान शासन नायक
श्री वर्धमान जिनेन्द्राय नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*पूजन*
हाई-को ?
दे भी दो वक्त हमें ।
जाऊँ कहाँ ? हूँ तेरा भक्त मैं ।।
भरे न मन, पा सपनों में ।
रख लो अपनों में ।।
सद्-गुरु श्री भगवन्
यही वो, अंधेरे में जो, बनते है दिया ।
यही तो, घेरे प्यास तो बनते नदिया ।
हैं मन्शा-पूरण ।
यही वो, बिछुड़े को जो, देते हैं मिला ।
यही तो, दुखड़े को, जो करें अलबिदा ।।
हैं दया-अवतरण |
यही वो, भूलों को जो, दें मंजिल थमा ।
यही तो, भूलों को, जो दे मंजुल क्षमा ।
हैं दाता सुमरण ।
सद्-गुरु श्री भगवन्
आ-के जरा शरण ।
छू के जरा चरण ।।
लो सुलझा उलझन ।।स्थापना।।
बस…इतनी सी बस
है मेरे दिल की आरजू
तू मोती बने,
तो मैं सीप बनूँ
तू ज्योती बने,
तो मैं दीप बनूँ
अय ! मुझ कागजी फूल खुशब
तू राखी बने,
तो मैं डोर बनूँ
तू चंदा बने,
मैं चकोर बनूँ
तू कलम बने,
तो मैं स्याही बनूँ
तू कमल बने,
मैं ललाई बनूँ
बस…इतनी सी बस
है मेरे दिल की आरजू ।।जलं।।
दिल के बडे़ नेक हैं गुरु जी
अन्दर के ज्ञान के
हैं समुन्दर मुस्कान के
अहिंसा अभिलेख हैं गुरु जी
चंद्रमा और भान के
है प्रतिरूप भगवान् के
भक्त जीवन-रेख हैं गुरु जी
तूर स्वाभिमान के
है नूर आसमान के
रखते हंस विवेक हैं गुरु जी
जरा सा पास कान के
कह गया मनुआ आन के
लाखों में एक हैं गुरु जी ।।चन्दनं।।
खूब खूबसूरत हो,
इस सुन्दर दुनिया के अन्दर,
इक तुम्हीं ज्ञान समुन्दर,
इक तुम्हीं शुभ-मुहूरत हो
छूते ही तेरे चरण,
खुदबखुद जाते हैं काम बन,
समाँ जादू-मन्तर,
तुम्हीं करुणा की मूरत हो
करते ही तेरे दर्शन,
खुदबखुद सुलझती उलझन,
इक तुम्हीं आज की जरूरत हो,
सुनते ही तेरे प्रवचन,
पा जाता खुद समाधान मन ।।अक्षतं।।
चाँद में चाँदनी जिस तरह
हवाओं में रागिनी जिस तरह
तितली में रंग जिस तरह
जलधी में तरंग जिस तरह
दरिया में रवानी जिस तरह
दिया में जिन्दगानी जिस तरह
पास माँ दुआएँ जिस तरह
आसमाँ ताराएँ जिस तरह
बसे हो तुम,
अय ! दृग्-नम,
बसे हो तुम नैनों में इस तरह
बसे खुशबू फूलों में जिस तरह ।।पुष्पं।।
मुस्कान बाँटते हैं
प्रात से रात तक,
फिर रात से प्रात तक,
सद्-ज्ञान बाँटते हैं
सद्-गुरु मुस्कान बाँटते हैं
और बदले में,
न बात करते ‘फी’ की,
‘रे और ऐसा भी नहीं,
‘के बात करते हैं फीकी,
स्वाभिमान राखते हैं ।
‘रे ऐसा भी नहीं,
‘के देते हैं चीन-चीन के,
चश्मा न रखते नाक,
न रसिक दूरबीन के,
न दीवाल कान रखते हैं ।।नैवेद्यं।।
आपको,
खूब आता,
गुरु देव अहो !
हवाओं सा, जा घर-घर गा, रागिनी आना ।
आ चाँद सा, घर-घर बिखरा, चाँदनी जाना ।।
उठा के गोद में छुवा आसमाँ आना ।
हाथों से आँखों के आँसु चुरा लाना ।।
‘दिया’ सा और हित पल पल मिटते जाना ।
नदिया सा और हित पल पल घटते जाना ।।
अहो मिरे प्रभो ! ।।दीपं।।
प्यार-दुलार, मिलता रहे
यूँ ही दीदार, मिलता रहे
मिलती सफलता रहे
हृदय कमल खिलता रहे
मिलता रहे भीतर सुकूँ
न मुरझाये भक्ति प्रसूँ
यही प्रार्थना माथ झुका के
मोह निद्रा से जगा के
मेरे छोटे बाबा ने मुझे
आज दर्शन दिये
मेरे सपने में आ के
हूँ शुक्र-गुजार, अपने छोटे बाबा का
मैं कर्जदार, अपने छोटे बाबा का ।।धूपं।।
तेरे अलावा, न और कोई मेरा
मेरे अपने, जा खड़े हुये गैरों में हैं
सितारे मेरे, आज गर्दिशों में हैं
न और कोई मेरा, तेरे अलावा
आ, जरा आ, मेरी मदद कर
अय ! मेरे छोटे बाबा
पाँसे मेरे सब के सब उलटे पड़ रहे
एक भी न बन रहा,
मेरे सब काम बिगड़ रहे
सुनते हैं, कम न रहमो-करम तेरा
तेरे अलावा, न और कोई मेरा
मैं सुलझाता इधर से,
धागा उलझे उधर
जाने खुशियाँ मेरीं,
खा चलीं किसकी नज़र
सुनते हैं, शैतान पे तू भारी अकेला
तेरे अलावा, न और कोई मेरा ।।फलं।।
गुरु जी से माँगना न पड़ा,
और मुँह माँगा मिल चला
लगता कल्प-तरु दूसरी कक्षा न पढ़ा
बिना माँगे कुछ भी देता ही नहीं
आ जाओ यहीं,
न जाओ, और कहीं छोड़कर
आ जाओ यहीं, श्री गुरु के द्वार पर
घिसते रहो चिराग,
तब कहीं जा चमके भाग
लगता चिराग दूसरी कक्षा न पढ़ा
घुमाते रहो छड़ी,
तब कहीं जा बनती बिगड़ी
कतार इसी काम-धेनु खड़ी
खड़ी आगे ही चिंता-मणी
लगता इन्होंने आखर ढ़ाई न पढ़ा
बिना याचना देने से नाता ही नहीं
आ जाओ यहीं ।।अर्घ्यं।।
*विधान प्रारंभ*
(१)
लाया चरणन जल गंग
लो रंग केशरिया रंग
घट चन्दन संग, लाया मैं धान अभंग
गुल रंग-बिरंग, लाया व्यंजन सतभंग
लौं विगत-तरंग, लाया सुगंध दश भंग
फल अर नारंग, द्रव लाया साथ उमंग
लो रंग केशरिया रंग
तुम पूरण मनो-काम
विश्वास दूसरे नाम
मां श्री मन्त नन्दनम्
वन्दनम्, कोटिक प्रणाम ।।अर्घ्यं।।
(२)
मणी जड़ी,
जल गगरी
मलय गिरी
गंध निरी
थाल भरी,
धाँ विरली
पुष्प लरी,
सुर सुर’भी
चरु गिर घी,
अठपहरी
अनलहरी
लौं गहरी
कस्तूरी
मण चूरी
फल गठरी
सरस बड़ी
दिव छव ‘री
द्रव सबरी
क्यूँ न चढ़ाऊँ मैं
बलिहारी जाऊँ मैं
तेरी मुस्कान पे, बारी जाऊँ मैं
बारी जाऊँ मैं,
बलिहारी जाऊँ मैं ।।अर्घ्यं।।
(३)
गंगा नदिया का नीर
लाया जल सागर क्षीर
चन्दन झारी रतनार
लाया महके दिश् चार
गहरी श्रद्धा के साथ
लाया धाँ शालि परात
सुन्दर नमेर मंदार
लाया गुल नन्दन क्यार
षट्-रस मिश्रित गुणधान
लाया गो घृत पकवान
मण-मरकत मण्ड़ित थाल
लाया घृत दीपक माल
चन्दन चूरी, कर्पूर
लाया परिमल कस्तूर
फल मिसरी आप समान
लाया नन्दन बागान
जल, फल, गुल, तण्डुल, गंध
लाया चरु, दीप, सुगंध
गुरुदेव मोक्ष आधार
जय जयकार जय जयकार
भटकन संसार से
दुख पारावार से
करने भक्तों को पार
गुरुवर लेते अवतार ।।अर्घ्यं।।
(४)
क्यूँ न चढ़ाऊँ जल कंचन
मेरी तुमसे लागी लगन
घट चन्दन, क्यूँ न चढ़ाऊँ अक्षत कण
दिव्य सुमन, क्यूँ न चढ़ाऊँ घृत व्यंजन
दीवा-मण, क्यूँ न चढ़ाऊँ सुर’भी धन
फल नन्दन, क्यूँ न चढ़ाऊँ जल फल अन
मेरी तुमसे लागी लगन
‘जि गुरुजी,
मेरी भक्ति
मेरी श्रद्धा,
तुम पे गहराती है
तुम्हें एक जो सोना और माटी है ।।अर्घ्यं।।
(५)
रतनारी छव न्यारी
मैं लाया जल झारी
गौरव गिर मलयाचल
मैं लाया गंध नवल
कुछ हट थाली मरकत
मैं लाया धान अछत
वन नन्दन फुल्ल प्रफुल
मैं लाया मंजुल गुल
मण थाली कुछ गहरी
मैं लाया चरु मिसरी
छव परात सोनाली
मैं लाया दीपाली
सुरभी सौरभ कुछ हट
मैं लाया सुगंध घट
मीठे खुद सारीखे
मैं लाया फल नीके
चोखे अनोखे सरब
मैं लाया सरब दरब
उमड़े श्रद्धा भक्ती
अवतार दया कहती
मय्यूर पंख पीछी
तुम हाथ खूब फबती
अवतार दया कहती
करुणा रग-रग बहती ।।अर्घ्यं।।
(६)
गद-गद हृदय, सजल दृग् आया
सागर क्षीर, नीर भर लाया
मलयागिर से चंदन लाया
मरकत थाल शालि धाँ लाया
रंग-बिरंग नन्द गुल लाया
नवल-नवल घृत व्यंजन लाया
बाति कपूर जगा कर लाया
घट हाटक अन सुगंध लाया
फल विमान वन नन्दन लाया
सारे द्रव्य मिलाकर लाया
गद-गद हृदय, सजल दृग् आया
श्रद्धा सुमन साथ सविनय
जय विद्या जय, जय विद्या जय
जयतु जयतु जय
जयतु जयतु जय
जय जय, जयतु जयतु जय, जय जय
जय विद्या जय, जय विद्या जय
चलते-फिरते ग्रन्थालय
सम्यक् तप त्याग हिमालय ।।अर्घ्यं।।
(७)
हरष-हरष
ले जल कलश, मण मरकत
ले मलय जश, कंचन घट
ले धाँ दरश, सित अक्षत
ले दल सहस, मानस तट
लिये षट्-रस, थाल रजत
ले लौं सदृश, गिर गो घृत
ले गंध दश, सुगंध हट
ले फल सरस, समस्त रित
ले दरब वस, सुन्दर सत्
साथ श्रद्धा सुमन
ले हृदय गदगद
कह रहा कोन-कोन
न कह रहा कौन-कौन
जीवेत शत-शरद्
जीवेत शत-शरद् ।।अर्घ्यं।।
(८)
जो भक्त होगा
वो क्यूँ न चढ़ायेगा
भरकर जल गागर
गंध मलय घिसकर
शालि धान पातर
गुल नमेर सुन्दर
घृत व्यंजन रचकर
दीवा घी भर कर
सार्थक नाम इतर
फल वन नन्दन ‘तर’
जल गंधाक्षत चर
भक्तों के ऊपर
गुरु कृपा बरसती है,
छप्पर फाड़-कर ।।अर्घ्यं।।
(९)
ला मनुआ
‘रे आ मनुआ
जल गंगा भरकर
घट चन्दन घिसकर
दाने धान अखर
गुल नमेर सुन्दर
घृत व्यंजन मनहर
मण दीपक घृत भर
फूटे गंध ‘इतर’
फूल वन नन्दन ‘तर’
सरब दरब छव अर
आ मनुआ
‘रे आ मनुआ
करते हम मिलकर
श्री गुरुवर पूजा ।।अर्घ्यं।।
(१०)
दूर पूरी पूजा
चढ़ाते ही जल क्षीर
बन चलती है तकदीर
दूर तेरी पूजा
चढ़ाते ही घट गंध
जुड़ चाले निधि संबंध
दूर पूरी पूजा
चढ़ाते ही धाँ शाल
पग उलटे लौटाये काल
दूर पूरी पूजा
चढ़ाते ही गुल स्वर्ग
लग चले हाथ अपवर्ग
दूर पूरी पूजा
चढ़ाते ही नैवेद
जश झोली ऊरध-रेत
दूर पूरी पूजा
चढ़ाते ही घृत दीप
वजनी हो चाले सीप
दूर पूरी पूजा
चढ़ाते ही घट धूप
हिस्से में डूब अनूप
दूर पूरी पूजा
चढ़ाते ही फल नेक
रीझे झट हंस-विवेक
दूर पूरी पूजा
चढ़ाते ही फल फूल
दिख पड़े जन्म-जल कूल
दूर तेरी पूजा
लेते ही तेरा नाम
बनते हैं बिगड़े काम
मेरे भगवन् !
तुम्हे मेरे अनगिन प्रणाम ।।अर्घ्यं।।
(११)
मैं लाया हूँ दृग-जल तुम चरण में
आया हूँ समेत श्रद्धा सुमन मैं
मैं लाया हूँ चन्दन, अक्षत
लर-गुल, व्यंजन
दीपक सुर’भी
श्री फल जल, फल तुम चरण में
आया हूँ समेत श्रद्धा सुमन मैं
बस गुजारिश
न और ख्वाहिश
मैं जब तक रहूँ इस नश्वर तन में
तुम चरण विराजें मेरे मन में
मेरा मन विराजे तुम चरण में ।।अर्घ्यं।।
(१२)
जल कंचन हाथों में
आँसू इन आँखों में
लिये आया मैं
घट चन्दन अक्षत कण
गुल नन्दन, घृत व्यंजन
लौं अनगिन, सुगंध अन
फल सुरगन, जल चन्दन
इन हाथों में, लिये आया मैं
है फक्र मुझे इस बात का
‘के गली गली जिक्र इस बात का
बन के लहू मेरी रंगों में बहते हो
सिर्फ एक तुम
मेरे मन में रहते हो ।।अर्घ्यं।।
(१३)
आया मैं नैन सजल
लाया मैं गंगा जल
आया मैं सदय हृदय
लाया मैं गंध मलय
आया मैं ले श्रद्धा
लाया मैं शालिक धाँ
आया मैं तर रग रग
लाया मैं सुमन सुरग
आया मैं गद-गद मन
लाया मैं घृत व्यंजन
लाया मैं ज्योत जगा
आया में लगन लगा
आया मैं ले पुलकन
लाया मैं सुगंध अन
आया मैं सजल नयन
लाया मैं फल नन्दन
आया मैं भींगे दृग्
लाया है अलग अरघ
करुणा के निधान तुम
जैन धर्म की शान तुम
अय ! आँख नम
हम भक्तों के भगवान् तुम ।।अर्घ्यं।।
(१४)
आ चढ़ाओ, बनती बिगड़ी
लाओ लाओ जल गगरी
लाओ चन्दन मलय-गिरी
लाओ शालि धाँ सुनहरी
लाओ गुल-पिटार गहरी
लाओ चरु घृत अठपहरी
लाओ दीपिका घृत भरी
लाओ घट सुगंध विरली
लाओ लाओ फल मिसरी
लाओ दिव्य द्रव्य शबरी
आ चढ़ाओ, बनती बिगड़ी
न जाते खाली कभी,
विद्या सागर जयकारे
आ मनुआ ‘रे
लगायें मिल के हम सभी,
विद्या सागर जयकारे ।।अर्घ्यं।।
(१५)
पाई मुख तक भरी हुई झोली
जाकर, क्षीर सागर,
लाकर नीर गागर
गुरु चरणों में, जल धारा छोड़ी
पर्वत मलय जाकर
लाकर गंध गागर
पाई मुख तक भरी हुई झोली
शाली-ग्राम जाकर
सादर धान पातर
गुरु चरणों में, रखी हाथ जोड़ी
सर-मानस मँगाकर
सादर पुष्प झालर
सुर महानस लाकर
चरु चारु मनवा-हर
मानो अर दिवाकर
लौं अनबुझ जगाकर
दश सुगंध मिलाकर
गुण नाम जग जाहर
वन नन्दन मँगाकर
फल रित-रित सँजाकर
दिश दश दिव्य लाकर
जल आदिक मिलाकर
गुरु चरणों में, रखी हाथ जोड़ी
पाई मुख तक भरी हुई झोली
जय विद्या सागर जय
जय विद्या सागर जय
सदय-हृदय
निलय-विनय
जय विद्या सागर जय
जय विद्या सागर जय
जिसने जय विद्या सागर बोली
पाई मुख तक भरी हुई झोली
जय विद्या सागर जय
जय विद्या सागर जय ।।अर्घ्यं।।
(१६)
तेरे आस-पास लगता
है कोई मोहन माया
चल के आया
कलशे लाया
अर्चन भाया
चन्दन लाया
सादर आया
चावल लाया
नन्दन ‘छाया’
गुल वन लाया
दिश्-दश पाया
षट्-रस लाया
भागा आया
दीवा लाया
सनन्द आया
सुगंध लाया
दृग्-नम आया
फल द्रुम लाया
सविनय आया
सब द्रव लाया
है कोई मोहन माया
तेरे आस-पास लगता
आके पास तेरे लगता
सुख कोई अपूर्व ही पाया
है कोई जादू टोना
तेरे आस-पास लगता
आके पास तेरे लगता
खोना तुझे अपनी जाँ खोना ।।अर्घ्यं।।
(१७)
हैं तेरे शुक्रगुजा़र हम
ले गागर नीर
और उड़ा अबीर
ले चन्दन मलय
और गद गद हृदय
ले शाली धान
और भ्रामरी गान
ले गुल वन नन्द
और गुरुकुल सुगंध
ले चारु चरु घृत
और एक गुरु व्रत
ले दीपक अबुझ
ओ ! हमारे सब कुछ
ले चन्दन चूर
ओ ! श्री-मन्त नूर
ले पिटारी फल
द्यु अधिकारी कल
ले द्रव्य समस्त
और भद्र समन्त
शुक्रगुजा़र हम
हैं तेरे शुक्रगुजा़र हम
आके तुमने द्वारे,
अपनाया जो ये अजनबी
ले नैन नम,
गुरु जी तेरे शुक्रगुजा़र हम ।।अर्घ्यं।।
(१८)
छुवा मैंने आसमां ।
मुझको मिले चले दो-जहां
ये जल क्षीर
अपनाया आपने ये दृग् नीर
ये घट चन्दन
अपनाया आपने ये हट नन्दन
ये धाँ शाली
अपनाया आपने ये सवाली
ये पुष्प विमान
अपनाया आपने ये पुतला गुमान
ये चरु घी का
अपनाया आपने ये गरीबा
ये दिया
अपनाया आपने ये दुखिया
ये घट धूप
अपनाया आपने ये कूप मण्डूक
ये फल सरस
अपनाया आपने ये खल नीरस
ये अर्घ थाल
अपनाया आपने ये ग्वाल-बाल
हुआ पूरा
था सपना,
तुमने जो लिया अपना ।।अर्घ्यं।।
(१९)
भेंट तन-मन-वचन
घट हाटक जल कण
वन-नन्दन चन्दन
धान छव मोति धन
गुल गुलशन नन्दन
घृत अमरित व्यंजन
अबुझ दीपक रतन
नाम गुण गंध अन
फल सरस नन्द वन
द्रव्य वसु थाल मण
भेंट तन-मन-वचन
लिये गद-गद हृदय
नम दृग्-द्वय, सविनय
साथ-श्रद्धा सुमन
साधु विद्या नमन
साधु विद्या नमन
साथ श्रद्धा सुमन
साधु विद्या नमन ।।अर्घ्यं।।
(२०)
सब्र का पुल टूट चुका,
लो बह चले नयना ।
हो ऐसा ‘कि आ,
जुबां पे जायें छुपे जिया-वयना ।।
लिये गदगद वयन
न बस भींगे नयन
भेंटूँ कलशे,
भर के जल से
भेंटूँ चन्दन,
उपवन नन्दन
भेंटूँ अक्षत
शिव सुन्दर सत्,
भेंटूँ लर-गुल,
मंजुल मंजुल
भेंटूँ मिसरी,
घृट अठपहरी
भेंटूँ ज्योती,
थाली मोती
भेंटूँ सुर’भी,
द्यु-पुर तर घी
भेंटूँ ऋत-ऋत
फल दिव अमरित
भेंटूँ सारे
द्रव्य निराले
न बस भींगे नयन
लिये गदगद वयन
साथ श्रद्धा सुमन
यही अभिलाष मन
हो सोना सोना,
‘कि दे दो ‘ना’,
अपना पड़गाहन
है सूना-सूना,
तेरे बिना,
ये मेरा घर आँगन ।।अर्घ्यं।।
(२१)
उठा दो कभी,
पलक भर,
भूल से ही नजर ।
आ जाओ कभी,
ए ! गुरुवर
भूल से ही इधर ।।
ओ ! भावी शिव-नागर
‘के घर कब आओगे,
पूछती जल गागर,
पूछती करताली
सुरभित चन्दन प्याली
पूछती धाँ शाली
भा थाली रतनारी
पूछती फुलवारी
सुगंध नन्दन क्यारी
पूछती चरु न्यारी
घृत वाली मनहारी
पूछती दीवाली
अक्षरा घृत वाली
पूछती सुगंध अन
ओ ! श्री मन्ती नन्दन
पूछती पिटार फल
मूसला धार दृग्-जल
पूछती द्रव शबरी
जल, संदल, फल मिसरी
पूछती कहो कब आओगे,
मैं और मेरा घर,
देखे हैं कब से तेरी राहें
बिछा पलक पावड़े राहों पर,
भिंगा निगाहें ।। अर्घ्यं।।
(२२)
बड़ी दूर से आया हूँ चल
दृग् जल, संदल
चावल, दिव गुल
रस दल, अविचल
परिमल, श्रीफल
मैं लाया हूॅं जल फल
बड़ी दूर से आया हूँ चल
यह देख के,
दे दिये, जो अपने दो पल
सच आप से आप
गुस्ताखिंयाँ
मेरी नादानिंयाँ
कर दीं जो मुआफ़
सच आप से आप ।।अर्घ्यं।।
(२३)
जाये रोजाना मन, ‘के दीवाली मेरी
स्वीकार लो, कृपया जल झारी मेरी
ये चन्दन प्याली
ये अक्षत धाँ-शाली
ये गुल मंजुल थाली
ये अरु चरु घृत वाली
ये अबुझ दीप आली
ये गंध नन्द क्यारी
ये सरस फल पिटारी
ये न्यारी द्रव सारी मेरी
जाये रोजाना मन, ‘के दीवाली मेरी
कुछ कर दो ऐसा,
‘कि रहे झोली न खाली मेरी
ऐसा न कहो,
दे तो हैं चुके तुम्हें, पड़गाहन ।
भरता भी, क्या कभी,
एक बार से, भला ये मन ।।अर्घ्यं।।
(२४)
निराशा अपहर लेते हैं
जरा सा दृग्-जल लेते हैं
महकते सत्-कृत लेते हैं
कण्ठ संस्कृत कर देते हैं
पीले चावल लेते हैं
खुशी से दृग् भर देते हैं
रोमिल पुलकन लेते है
सुमन सा मन कर देते है
कुछ सुर व्यंजन लेते हैं
बस निरंजन कर देते हैं
अबुझ लागी लौं लेते हैं
जगा ज्योति मन देते हैं
बोल दो गदगद लेते हैं
पुन गंध अन भर देते हैं
हाथ जुग श्रीफल लेते हैं
शिव-सुरग में धर देते हैं
सुमन श्रद्धा बस लेते हैं
भाँत अपने कर लेते हैं
गुरु जी हमें
निराकुल कर ही देते हैं
आ जरा घुल-मिल लेते हैं
गुरु जी हमें
निराकुल कर ही देते हैं
जयतु गुरुवरम्
जय विद्या सागरम् ।।अर्घ्यं।।
(२५)
अय ! शरण बेवजह
सागर क्षीर तो नहीं है,
स्वीकार लो सागर नीर यह
चन्दन न्यार तो नहीं है,
स्वीकार लो चन्दन झार यह
शाली धान तो नहीं है,
स्वीकार लो खाली धान यह
नन्दन पुष्प तो नहीं है,
स्वीकार लो वन-वन पुष्प यह
व्यंजन सुरग तो नहीं है,
स्वीकार लो व्यंजन अलग यह
नीका दिया तो नहीं है,
स्वीकार लो घी का दिया यह
सुगंध धाम तो नहीं है,
स्वीकार लो सुगंध नाम यह
फल नेक तो नहीं है,
स्वीकार लो श्री फल एक यह
शबरी दिव्य तो नहीं है,
स्वीकार लो सबरी द्रव्य यह
अय ! शरण बेवजह
चरण कमल में,
आपके दिल में
मैंने ये सुना है
है बहुत सी जगह
कुछ दे दो, हमें भी वह
अय ! शरण बेवजह ।।अर्घ्यं।।
(२६)
तुम्हें दृग्-जल भिंटाता हूँ मैं
कहो तुम कभी, अपना भी हमें
तुम्हें संदल भिंटाता हूँ मैं
अपने अपनों में बिठा लो हमें
तुम्हें चावल भिंटाता हूँ मैं
सही, सपनों में दिख चलो हमें
तुम्हें रस-दल भिंटाता हूँ मैं
दे पद-रज दो, घर आके हमें
तुम्हें अविचल भिंटाता हूँ मैं
भर दो ‘भी’ रोशनी से हमें
तुम्हें परिमल भिंटाता हूँ मैं
सहजो ‘शरण’ अपनी ले लो हमें
तुम्हें श्री-फल भिंटाता हूँ मैं
अपना लो, अपना बना लो हमें
तुम्हें जल-फल भिंटाता हूँ मैं
निरा ‘कुल’ स्वयं सा बना लो हमें
फिर फिर दे, पड़गाहन
होती ये अभिलाषा
लगता है तू, ए ! मुसाफिर
जाने क्यूँ अपना सा तुझे देखते ही,
ये डबडबा-से जाते नयना ।।अर्घ्यं।।
(२७)
है किससे छुपा
पन्ने-पन्ने तो छपा
मेंटते ही दृग्-नीर
दीख पड़ता भव-तीर
भेंटते ही दिव चन्दन
हाथ लागे शिव स्यंदन
भेंटते ही धाँ शाल
हो चाले मत मराल
भेंटते ही पुष्प द्यु
दिश्-विदिश् महके खुशबू
भेंटते ही चरु परात
गुरुर गुम हाथ के हाथ
भेंटते ही दीवाली घी
मने होली दीवाली
भेंटते ही सुगंधी
आप बनती जिन्दगी
भेंटते ही फल पिटार
जिन गुण सम्पद् दृग्-चार
भेंटते ही सब दरब
हाथ सुमरण, पल-अब-तब
गुरु जी को पा
पा श्री गुरु कृपा
छोड़िये बात और की
अंजन से चोर भी
चन्दन-से, और भी
पा गये रोशनी
है किससे छुपा
पा श्री गुरु कृपा ।।अर्घ्यं।।
(२८)
जिया-बगिया,
देख तुझे खिलती रहे रोजाना ।
यूँ ही मुस्कान तेरी,
मुझे मिलती रहे रोजाना ।।
और कुछ न चाहते बस,
मुझे मत भुलाना ।
है तू ही सिर्फ मेरा
लो ये स्वीकार हमारी
जल झारी रतनारी
दिव क्यार ‘द्रव’ झारी
मण थाल धाँ शाली
फुल माल मनहारी
चरु न्यार घृत वाली
दृग्-हार दीवाली
मनहार गंधा ‘ई
रतनार फल थाली
जुग चार द्रव सारी
लो ये स्वीकार हमारी
दुनिया अंधेरा,
एक तू बस सबेरा
है तू ही सिर्फ मेरा ।।अर्घ्यं।।
*जयमाला*
कहीं और न जाऊँगा
लेकर के के अपना रोना
और जाऊँ भी तो कहाँ
तुम अकेले ही जो मेरे हो ना
कृपा बरसा भी दो ना
बन चला कुन्द-कुन्द भगवन् ।
करने वाला गायों का पालन ।
मेरी भी चाँदी मचले होने सोना ।।
छू के जटायु गन्धोदक ।
पा गया कुछ हटके की चमक ।
जानते ही होगे कुछ जादू टोना ।।
नाग नकुल कपि ‘दिया’ पा गये ।
पार वैतरणी नदिया पा गये ।।
दे मुझे भी दो एक चरणन कोना ।।
कृपा बरसा भी दो ना ।
हाई-को ?
पीछे से रहे हाथ जोड़ ।
ओ ! देख लो मेरी ओर ।
‘सरसुति-मंत्र’
ॐ ह्रीं अर्हन्
मुख कमल-वासिनी
पापात्-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-ज्-ञानज्-ज्वाला
सह(स्)-स्र(प्) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-संभवे
वं वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*विसर्जन पाठ*
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।१।।
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।२।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।३।।
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।४।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
दोहा-
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
बनी रहे यूँ ही कृपा,
सिर ‘सहजो’ निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
“आरती”
आरतिया आरतिया
विद्यागुरु की आरतिया, उतारें आओ ।
विद्यागुरु की मूरतिया, निहारें आओ ।।
चीर चीर ये निकले घर से ।
पीर पराई लख दृग् बरसे ।।
सूरज, चांद न तारे इनसे ।
लख गुणियों को परणति हरसे ।।
ज्योति जगाओ ।
विद्यागुरु की आरतिया, उतारें आओ ।
विद्यागुरु की मूरतिया, निहारें आओ ।।१।।
ज्ञान ध्यान संलीन सदा ही ।
बनने सुदृढ़ प्रतिज्ञ सुराही ।।
भाव अलस ना करें कदापि ।
कलजुग शिव राधा वर शाही ।।
दीप सजाओ ।
ज्योति जगाओ ।
विद्यागुरु की आरतिया, उतारें आओ ।
विद्यागुरु की मूरतिया, निहारें आओ ।।२।।
खुद में मगन दृष्टि रख नासा ।
आश प्रथम, अंतिम विश्वासा ।।
चल दी आशा-विषय उदासा ।
सहज-निरा-कुल सुख अभिलाषा ।।
शीष झुकाओ ।
दीप सजाओ ।
ज्योति जगाओ ।
विद्यागुरु की आरतिया, उतारें आओ ।
विद्यागुरु की मूरतिया, निहारें आओ ।।३।।
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