परम पूज्य १०८ मुनिश्री निराकुलसागर महाराजजी द्वारा रचित
आचार्य छत्तीसी विधान
*पूजन*
कपि मद गले पड़े ऐसी,
ठण्डी गुजरे चौराहे पर ।
तीर बन चुभे बूँद-बूँद,
थित वृक्ष-मूल चौमासे भर ।।
गर्मी पड़े दरार फोड़, बन-
सूर्यमुखी गिर चढ़ आये ।
यथा नाम गुण तथा ‘सूर’ इन,
मुनियों के मन गुण गाये ॥
ॐ ह्रूॅं षट्-त्रिंशद्गुण-समन्वित-आचार्यश्री विद्यासागर मुनीन्द्र अत्र अवतर 2 संवौषट् आह्वानम् अत्र तिष्ठ 2 ठः ठः स्थापनम्
अत्र मम सन्निहितो भव 2 वषट् सन्निधीकरणम्!
काँटों का होते ही दर्शन ।
गोद उठा लेते हैं तत्क्षण ॥
गुण गाऊॅं ऐसे गुरुवर के ।
लिये हाथ में कलशे जल के ।।
ॐ ह्रूॅं षट्त्रिंशद्गुण-समन्वित आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
पंजे उठा, बिठा काँधे पर ।
हाथ थमाते तारे-चन्दर ।।
गुण गाऊॅं ऐसे गुरुवर के ।
लिये हाथ में घट-चन्दन के ॥
ॐ ह्रूॅं षट्त्रिंशद्गुण-समन्वित आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।
पूरी नजर नहीं उठ पाई ।
अंधियारे ने पीठ दिखाई ।
गुण गाऊँ ऐसे गुरुवर के ।
लिये हाथ में कण-अक्षत के ॥
ॐ ह्रूॅं षट्त्रिंशद्गुणसमन्वित आचार्य श्री विद्या सागर मुनीन्द्राय अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।
परहित होते रहें परेशाँ ।
दिल रखते बिलकुल माँ जैसा ।।
गुण गाऊँ ऐसे गुरुवर के ।
लिये हाथ में पुष्प-सुरग के ।।
ॐ ह्रूॅं षट्त्रिंशद्गुणसमन्वित आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।
दुखी किसी को देख न पाते ।
दृग् गंगा-जमुना बन जाते ।।
गुण गाऊॅं ऐसे गुरुवर के |
लिये हाथ में व्यंजन-घृत के ।।
ॐ ह्रूॅं षट्त्रिंशदगुणसमन्वित आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
ले जोखिम, दे भॅंवर सहारा ।
हाथ लगाते, और किनारा ।।
गुण गाऊँ ऐसे गुरुवर के ।
लिये हाथ में दीप-रतन के ।।
ॐ ह्रूॅं षट्त्रिंशद्गुण-समन्वित आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
अपना समय खरच अनमोला ।
औरन नैन-तीसरा खोला ।।
गुण गाऊॅं ऐसे गुरुवर के ।
लिये हाथ में घट-सुगंध के ।।
ॐ ह्रूॅं षट्त्रिंशदगुणसमन्वित आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
पल बदलें लकीर माथे की ।
दरिया डालें, करके नेकी ॥
गुण गाऊॅं ऐसे गुरुवर के ।
लिये हाथ में पिटार-फल के ।।
ॐ ह्रूॅं षट्त्रिशद्गुण समन्वित आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
हित-मित-प्रिय-वाणी संजीवन ।
पर-हित एक समर्पित जीवन ।।
गुण गाऊॅं ऐसे गुरुवर के ।
लिये हाथ में थाल-अरघ के ।।
ॐ ह्रूॅं षट्त्रिंशद्गुण समन्वित आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
दोहा-
गुरुवर के गुण गान से,
हट कुछ मिले सुकून ।
आ गुरु-गुण कीर्तन रचें,
भले इकीसा-ऊन ।।
‘जयमाला’
गुरु किरपा बिन उद्धार नहीं ।
गुरु की महिमा का पार नहीं ।।
लग हाथ चली शिल्पी माटी ।
नत-माथ, चली दुख परिपाटी ।।
सिर उठा रखी सबने मटकी,
रखना नीचे स्वीकार नहीं ।
गुरु की महिमा का पार नहीं ।
गुरु किरपा बिन उद्धार नहीं ।
गुरु की महिमा का पार नहीं ।।
कह गया कान में एकलव्य ।
गुरु प्रतिमा महिमा भी अकव्य ।।
माना बल हाथिन हाथन पर,
कमती पाँवन किरदार नहीं ।
गुरु की महिमा का पार नहीं ।।
गुरु किरपा बिन उद्धार नहीं ।
गुरु की महिमा का पार नहीं ।।
काफी है मानतंभ देखा ।
कॉंपी है मान-दंभ रेखा ।।
मुनि गौतम हृदय दीप प्रकटा,
टिक सका देर अँधियार नहीं ।
गुरु की महिमा का नहीं पार नहीं ।।
गुरु किरपा बिन उद्धार नहीं ।
गुरु की महिमा का पार नहीं ।।
ॐ ह्रूॅं षट्त्रिंशद्गुण समन्वित-संतशिरोमणि आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय
पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा
दोहा-
गुरु महिमा किसमे छुपी,
चार-धाम गुरुदेव ।
कर लो जितनी हो सके,
श्री गुरुवर की सेव ।।
।।अथ मण्डलोपरि पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्।।
=स्थापना=
पाल स्वयं भी पंचाचार ।
पालन करा रहे आचार ।।
दे प्रायश्चित करें पुनीत ।
गुरु भगवन्त नमन अगणीत ।।
ॐ ह्रूॅं षट्-त्रिंशद्गुण-समन्वित-आचार्यश्री विद्यासागर मुनीन्द्र अत्र अवतर 2 संवौषट् आह्वानम् अत्र तिष्ठ 2 ठः ठः स्थापनम्
अत्र मम सन्निहितो भव 2 वषट् सन्निधीकरणम्!
*बीजाक्षर सहित मूल नवार्घ*
भाव सहित वन्दन अरिहन्त ।
सतत वन्दना सिद्ध अनन्त ॥
नुति आचार्य, प्रनुति उवझाय ।
सन्त-दिगम्बर नुति सुखदाय ।।
ॐ ह्रीं अर्हं अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ऌ ॡ दश समान संज्ञक वर्ण सदृश अनाहत पराक्रम संयुक्त अर्हत्सिद्धा-चार्यो-पाध्याय-सर्वसाधु रूप पंच परम गुरु समूहाय नमः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
मंगल प्रथम देव अरिहन्त ।
मंगल-मंगल सिद्ध अनन्त ।।
पाणि-पातृ मंगल शिर-मौर ।
धर्म अहिंसा मंगल ‘और’ ।।
ॐ ह्रीं अर्हं ए ऐ ओ औ अं अः सन्ध्यक्षर दीर्घ वर्ण सदृश अनाहत पराक्रम संयुक्त अर्हत्सिद्ध-साधु केवलि-प्रज्ञप्त धर्मरूप चतुर्विध मंगलाय नमः पूर्व-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम प्रथम देव अरिहन्त ।
सर्वोत्तम इक सिद्ध अनन्त ।।
पाणि-पातृ उत्तम शिर-मौर ।
धर्म अहिंसा उत्तम ‘और’ ।।
ॐ ह्रीं अर्ह क ख ग घ ङ वर्ण सदृश-अनाहत पराक्रम संयुक्त अर्हत्सिद्ध-साधु केवलि-प्रज्ञप्त-धर्मरूप चतुर्विध लोकोत्तमाय नमः आग्नेय-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
शरणा प्रथम देव अरिहन्त ।
शरण्य-शरणा सिद्ध अनन्त ।।
पाणि-पातृ शरणा शिर-मौर ।
धर्म अहिंसा शरणा ‘और’ ।।
ॐ ह्रीं अर्हं च छ ज झ ञ वर्ण-सदृश अनाहत पराक्रम संयुक्त अर्हत्सिद्धसाधु केवलि-प्रज्ञप्त धर्मरूप चतुर्विध शरणाय नमः दक्षिण-दिशि अर्घ निर्वापमिति स्वाहा।
तीन गुप्ति मन-गुप्ति प्रधान ।
वचन-गुप्ति, तन-गुप्ति महान ।।
धारें आचारज भगवन्त ।
वन्दन भाव समेत अनन्त ॥
ॐ ह्रीं अर्हं ट ठ ड ढ ण वर्णसदृश अनाहत पराक्रम संयुक्त-त्रि-गुप्ति धारकाचार्य श्री विद्या सागराय नमः नैऋत्य-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
दर्शन सम्यक् ज्ञानाचार ।
चारित, तप, धीरज आचार ।।
पालें आचारज भगवन्त ।
वन्दन भाव समेत अनन्त ॥
ॐ ह्रीं अर्हं त थ द ध न वर्ण सदृश अनाहत पराक्रम संयुक्त पंचाचार निरत आचार्य श्री विद्या सागर नमः पश्चिम-दिशि अर्घं निर्वपामिति स्वाहा।
निन्दन, वन्दन, सम-रस-पान ।
तनुत्सर्ग,थव, प्रत्याख्यान ।।
सेवें आचारज भगवन्त ।
वन्दन भाव समेत अनन्त ॥
ॐ ह्रीं अर्हं प फ ब भ म वर्णसदृश
अनाहत पराक्रम संयुक्त षडावश्यक-पालन-निरत-आचार्य श्री विद्या सागर नमः वायव्य-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
क्षमा, शौंच, सत्, मृदु-ऋतु भाव ।
ब्रह्म, त्याग, तप, संयम छाँव ।।
अकिंच, आचारज भगवन्त ।
वन्दन भाव समेत अनन्त ॥
ॐ ह्रीं अर्हं य र ल व वर्ण-सदृश अनाहत पराक्रम संयुक्त उत्तम क्षमादि दश धर्म धारक आचार्य श्री विद्या सागर नमः उत्तर-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
तन-कलेश-रस-शैय्या शून ।
वृत-परि-संख्य, नशन, शन-ऊन ॥
ध्यान, मान-श्रुत, वैयावृत्त ।
विनय, व्युत्सरग, प्रायश्चित्त ।।
जप तप आचारज भगवन्त ।
वन्दन भाव समेत अनन्त ॥
ॐ ह्रीं अर्हं श ष स ह वर्ण-सदृश अनाहत पराक्रम संयुक्त द्वादश विध तप निरत आचार्य श्री विद्या सागर नमः ईशान-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
‘त्रय-गुप्ति’
यही बैठ मन लगे न देर ।
जग-भर की कर आता सैर ।।
कहें इन्द्रियों की क्या बात ।
भव-भव भ्रमण इन्हीं का हाथ ।।
दोहा=
कछुये सी मन इन्द्रियाँ,
रखें सूरि संगोप ।
बाल न बाकाँ कर सके,
बन्धन कर्म प्रकोप ।।
ॐ ह्रूॅं स्वपर हित-कारिणी शक्ति-युक्त-मनोगुप्ति धारकाचार्य श्रीविद्यासागराय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
अन्धों के सुत होते अंध ।
हेत महाभारत इक द्वन्द ।।
चीर हरण का कारण मूल ।
‘वाणि-बाण’ मत करना भूल ।।
दोहा-
सूरि न बस बाहर रखें,
रखते भीतर मौन ।
कर्म सघन-घन ले उड़े,
यम-धर संयम-पौन ।।
ॐ ह्रूॅं स्वपर हितकारिणी शक्तियुक्त-वचोगुप्ति धारकाचार्य श्रीविद्यासागराय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
सुनते जीव ठसाठस लोक ।
ठस हम बढ़ा रहे तिन शोक ।।
चीख पड़े वे निःसन्देह ।
हिली डुली क्या अपनी देह ।।
दोहा-
जा काजर की कोठरी,
निकले लगे न रेख ।
काय गुप्ति यूँ पालते,
ढ़ोक सूरि अभिलेख ।।
ॐ ह्रूॅं स्वपर हितकारिणी शक्तियुक्त-काय गुप्ति धारकाचार्य श्रीविद्यासागराय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
जल, चन्दन, गुल, तण्डुल, लाया ।
दीप, धूप, फल, चरु मन-भाया ।।
देव करें त्रय गुप्ति प्रशंसा ।
सूरि सूर आकाश अहिंसा ।।
तिन्हें चढ़ाऊँ अर्घ बना के ।
अब इक फिर-के मात रुला के ।।
पाल गुप्तियाँ आप समाना ।
मेंटूॅं पुनि-पुनि आना-जाना ।।
ॐ ह्रूॅं त्रि-गुप्ति धारकाचार्य श्री विद्या सागर मुनीन्द्राय पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
‘पंचाचार’
सम दर्शन रखते निर्दोष ।
सूरि भावि जिन-गुण-धन कोश ।।
अंग आठ सब रखें संभाल ।
कोटि-कोटि वन्दना त्रिकाल ।।
दोहा-
भव-भटकन कारण हहा !
मिथ्या दर्शन एक ।
दो उकेर अब हाथ में,
सम्यक्-दर्शन रेख ॥
ॐ ह्रूॅं दर्शनाचार निरत-आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
सम्यक् ज्ञान रखें निर्दोष ।
सूरि भावि जिन-गुण-धन कोश ।।
अंग आठ सब रखें संभाल ।
कोटि-कोटि वन्दना निकाल ।।
दोहा-
जनम-मरण कारण हहा !
मिथ्या अवगम एक ।
दो उकेर अब हाथ में,
सम्यक्-अवगम रेख ।।
ॐ ह्रूॅं ज्ञानाचार निरत-आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
सम्यक्-चरित रखें निर्दोष ।
सूरि भावि जिन-गुण-धन कोश ।।
विध-तेरह व्रत रखें संभाल ।
कोटि-कोटि वन्दना त्रिकाल ।।
दोहा-
हेत कर्म-बन्धन हहा !
मिथ्या-चारित एक ।
दो उकेर अब हाथ में,
सम्यक्-चारित रेख ।।
ॐ ह्रूॅं चारित्राचार निरत-आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
तपाचार रखते निर्दोष ।
सूरि भावि जिन-गुण-धन कोश ।।
द्वादश विध-तप रखें संभाल ।
कोटि-कोटि वन्दना त्रिकाल ।।
दोहा-
हेत भ्रमण त्रिभुवन हहा !
बाल तपस्या एक ।
दो उकेर अब हाथ में,
समीचीन-तप रेख ।।
ॐ ह्रूॅं तपाचार निरत-आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
वीर्याचार रखें निर्दोष ।
सूरि भावि जिन गुण-धन कोश ।।
भेद-पंच सब रखें संभाल ।
कोटि-कोटि वन्दना त्रिकाल ।।
दोहा-
हेत हीन संहनन हहा !
प्रीत-प्रमादन एक ।
दो उकेर अब हाथ में,
अनन्त-वीरज रेख ॥
ॐ ह्रूॅं वीर्याचार निरत-आचार्य श्री विद्यासागर मुनीन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
जल, चन्दन, गुल, तण्डुल, लाया ।
दीप, धूप, फल, चरु मन-भाया ।।
सुर-सभ पंचाचार प्रशंसा ।
सूरि सूर आकाश अहिंसा ।।
तिन्हें चढ़ाऊँ अर्घ बना के ।
अब, इक फिर के मात रुला के ।।
पाल पंच आचार प्रधाना ।
मेंटूॅं पुनि-पुनि आना-जाना ।।
ॐ ह्रूॅं पंचाचार निरत आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय महार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
‘षट्-आवश्यक’
समता सामायिक निशिदीस ।
करें विसर परमाद खबीस ।।
झड़ें पुरा, नव बॅंधें न कर्म ।
सूरि प्रतिक्षा रत शिव-शर्म ।।
दोहा-
सीधा सीधा अर्थ है,
समय यानि ‘कि आत्म ।
सहज सुमरना दो घड़ी,
बैठ भाॅंत परमात्म ।।
ॐ ह्रूॅं सामायि-कावश्यक निरत आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
संस्तव तीर्थंकर चौबीस ।
करें विसर परमाद खबीस ।।
झड़ें पुरा, नव बॅंधें न कर्म ।
सूरि नाम दूजे जिन-धर्म ॥
दोहा-
सीधा-सीधा अर्थ है,
जे संस्तुत तिहुँ-लोक ।
तीर्थकर वृषभादि जे,
जिन्हें त्रिकाली ढ़ोक ।।
ॐ ह्रूॅं संस्तवा-वश्यक-निरत आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
वन्दन इक तीर्थक नत शीष ।
करें विसर परमाद खबीस ।।
झड़ें पुरा, नव बॅंधें न कर्म ।
सूरि नाक राखें दृग्-चर्म ।।
दोहा-
सीधा सीधा अर्थ है,
अभिवन्दित तिहु लोक ।
शासन नायक वर्तमां,
तिन्हें त्रिकाली ढ़ोक ।।
ॐ ह्रूॅं वंदनावश्यक-निरत आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
निन्दन गर्हण व्रत उनबीस ।
करें विसर परमाद खबीस ।।
झड़ें पुरा, नव बॅंधें न कर्म ।
सरि धर्म-माहन विद् मर्म ॥
दोहा-
सीधा सीधा अर्थ है,
होता प्रति-कम नाह ।
‘प्रति-का-मन’ हा ! दुख गया,
होवें माफ गुनाह ।।
ॐ ह्रूॅं प्रतिक्रम-णावश्यक-निरत आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
प्रत्याख्यान निकट जगदीश ।
करें विसर परमाद खबीस ।।
झड़ें पुरा, नव बॅंधें न कर्म ।
सूरि छाॅंव तरु-अरु जग धर्म ।।
दोहा-
सीधा सीधा अर्थ है,
भोजन, प्रति आख्यान ।
क्षुधा वेदनी कर्म का,
मिटे ‘कि नाम-निशान ।।
ॐ ह्रूॅं प्रत्याख्या-नावश्यक-निरत आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
कायोत्सर्ग अकंप-गिरीश ।
करें विसर परमाद खबीस ॥
झड़ें पुरा, नव बॅंधें न कर्म ।
सूरि ना-रियल ‘भी’तर नर्म ।।
दोहा-
सीधा सीधा अर्थ है,
त्याग काय-उत्सर्ग ।
तन ममत्व का छोड़ना,
हेत स्वर्ग अपवर्ग ।।
ॐ ह्रूॅं कायक्लेश-तपधारक आचार्य श्रीविद्यासागरमुनीन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
जल, चन्दन, गुल, तण्डुल, लाया ।
दीप, धूप, फल, चरु मन-भाया ।।
आवश्यक षट्’ सूत्र’ प्रशंसा ।
सूरि सूर आकाश अहिंसा ।।
तिन्हें चढ़ाऊँ अर्घ बना के ।
अब, इक फिर के मात रुला के ॥
पाल षडावश्यक सविधाना॥
मेंटूॅं पुनि-पुनि आना-जाना ॥
ॐ ह्रूॅं षडावश्यक-पालन-निरत- आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
‘दश-उत्तम क्षमादि धर्म’
पछतावा लगता बस हाथ ।
चल दे मित्र छोड़ के साथ ।।
है भी अपना कहाँ स्वभाव ।
प्रद तनाव सो नाहक ताव ॥
दोहा-
क्षमा भावना से भरे,
अविजित क्रोध कषाय ।
गुरु आचारज वे तिन्हें,
शत-वन्दन सिर नाय ।।
ॐ ह्रूॅं उपसर्गे सति क्षमाधारक आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
गर्दन उठा चले गिरधोन ।
सूखे पड़े हृदय-दृग् कोन ।।
सूँड़ लटकती कल जिनवाण ।
क्यूँ-कर गले लगाना मान ।।
दोहा-
भावन-मार्दव से भरे,
अविजित मान कषाय ।
गुरु आचारज वे तिन्हें,
प्रनुति-सहज हरषाय ।।
ॐ ह्रूॅं मानरहित श्रेष्ठ-ज्ञानादिक गुणधारक आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
पशु-गति हेत, हेत दुख दून ।
जोड़ा हासिल आया शून ॥
बैठे डर, न जाय खुल राज ।
व्यर्थ गमाना क्यूँ-कर लाज ।।
दोहा-
भावन आर्जव से भरे,
माया विजित कषाय ।
गुरु आचारज वे तिन्हें,
प्रनुति त्रियोग लगाय ॥
ॐ ह्रूॅं दोषरहित-आलोचना-गुण सहितार्जव-धर्म धारक आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
खेल न खेल लगा के शर्त ।
भरा न अब-तक तृष्णा-गर्त ।।
दीमक श्रम, अजगर आराम ।
गिरि ढ़लान जल धारा शाम ॥
दोहा-
शौच भावना से भरे,
अविजित लोभ कषाय ।
गुरु आचारण वे तिन्हें,
नुति नत मन वच काय ।।
ॐ ह्रूॅं उत्तमशौच धर्मधारक आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
प्रतिफल इह भव जिह्वा छेद ।
खर-विषाण कल वाणि समेत ।।
टूटे जुड़े न फिर विश्वास ।
गगन पुष्प छूना आकाश ।।
दोहा-
सत्य भावना से भरे,
अविजित अलीक पाप ।
गुरु आचारण वे तिन्हें,
नुति जयकार अलाप ।।
ॐ ह्रूॅं उत्तमसत्य धर्मधारक आचार्य श्री विद्यासागर मुनीन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
अपने से सब जीवन प्राण ।
कल समक्ष होगें भगवान् ।।
हर इक क्रिया साथ परिणाम ।
बोंय बबूल होंय न आम ॥
दोहा-
पावन संयम से भरे,
अविजित हिंसा पाप ।
गुरु आचारण वे तिन्हें,
नुति होने निष्पाप ।।
ॐ ह्रूॅं द्विविध-संयम धर्मधारक आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
काना पौड़ा बोंय, न चूस ।
देह काँच बर्तन तुष-भूस ।।
उफन चले न दूध, टिक देख ।
कर लो जागृत हंस-विवेक ।।
दोहा-
समीचीन तप से भरे,
जित अविजित तप-बाल ।
गुरु आचारज वे तिन्हें,
नुति सविनय नत-भाल ।।
ॐ ह्रूॅं उत्तमतप धर्मधारक आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
लें फिर पहले छोड़े श्वास ।
यही प्रकृति का नियम विकास ॥
थे लाये क्या बोलो साथ ।
पाप लगे चोरी का भ्रात ॥
दोहा-
त्याग भावना से भरे,
अविजित चोरी पाप ।
गुरु आचारण वे तिन्हें,
सविनय नमन अमाप ।।
ॐ ह्रूॅं उत्तमत्याग धर्मधारक आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
जमीं, जोरु, जर कारण द्रोह ।
परिग्रह चुम्बक ग्रह ग्रह लोह ।।
देख चोंच कुछ दावे काग ।
जात-भ्रात दृग् उगलें आग ।।
दोहा-
भाव अपरि-ग्रह से भरे,
अविजित परिग्रह पाप ।
गुरु आचारण वे तिन्हें,
प्रनुति विहर-संताप ।।
ॐ ह्रूॅं उत्तमाकिंचन धर्मधारक आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
जाल-बचे जा गहरे मीन ।
कौन स्वैर का करे यकीन ॥
कब कुछ अपना बाहर नाक ।
नाक दाम दे कर भी राख ।।
दोहा-
भाव ब्रह्म-चर से भरे,
अविजित पाप कुशील ।
गुरु आचारज वे तिन्हें,
नुति नम नैनन झील ।।
ॐ ह्रूॅं ब्रह्मचर्यकारक चिंतनधारक आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
जल, चन्दन, गुल, तण्डुल, लाया ।
दीप, धूप, फल, चरु मन-भाया ।।
सभा-देव दश-धर्म प्रशंसा ।
सूरि सूर आकाश अहिंसा ।।
तिन्हें चढ़ाऊँ अर्घ बना के ।
अब,इक फिर के मात रुला के ।।
पाल धर्म-दश आप समाना ।
मेंटूॅं पुनि-पुनि आना-जाना ।।
ॐ ह्रूॅं उत्तमक्षमादि दशधर्म धारक आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
‘द्वादश तप’
खाया क्या ? आ भरे उवास ।
उप-यानी समीप निज वास ॥
छुट्टी का दिन इक सप्ताह ।
मिट्टी की छोड़ो परवाह ।।
दोहा-
धर्मामृत रस-पान से,
छके श्वास-निश्वास ।
सूरि एक दो छोड़िये,
करते मासुपवास ।।
ॐ ह्रूॅं अनशन तपधारक आचार्य श्री विद्यासागर मुनीन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
एक तिहाई खाली पेट ।
जायज वायु संचरण हेत ।।
जीमा मुख तक भोजन पान ।
रोगों का करता आह्वान ।।
दोहा-
धर्मामृत रस-पान से,
छके श्वास-निश्वास ।
विविध उनोदर छोड़िये,
गहें सूरि इक ग्रास ॥
ॐ ह्रूॅं अवमौदर्य तपधारक आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
मद मन इन्द्रिय-पंचन चूर ।
बड़े आत्म बल मंशा-पूर ।।
तज हरि-सोम, नमक-इतबार ।
बनें, करो मन वश इस बार ।।
दोहा-
धर्मामृत रस पान से,
छके श्वास-निश्वास ।
यथा लब्ध-रुचि सूर वे,
करें न रस अरदास ॥
ॐ ह्रूॅं रस-परित्याग तपधारक आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
आ देखे कितने ‘पुन’-स्वाम ।
सुनते लिखा रहे चुन नाम ।।
किसी बहाने चित कर चित्त ।
मन सुमरण कर, करो पवित्त ।।
दोहा-
लोग डरें, डरते रहें,
शिव-पथ धार-कतार ।
मिले न, घर ले ‘आखरी’,
सूर करें आहार ।।
ॐ ह्रूॅं वृत्तिपरि-संख्यान तपधारक आचार्य श्रीविद्यासागराय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
मन भर छू लो पन-प्रतिकूल ।
देन पुण्य की पन-अनुकूल ।।
कहो ताँकना क्यूँ मुख-और ।
पैर पसारो जितनी सौर ।।
दोहा-
लोग डरें, डरते रहें,
शिव पथ-धार-कटार ।
शैय्या आसन शून में,
आदरते आचार ।।
ॐ ह्रूॅं विविक्त-शय्यासन तपधारक आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
सिर चढ़ बोलेंगे कल रोग ।
संहनन मिला करो उपयोग ।।
चींटी लिये दुगुण सिर-भार ।
गिरे, फाँद ले उठ दीवार ।।
दोहा-
लोग डरें, डरते रहें,
शिव-पथ धार-कटार ।
सूरि साधते साधना,
तरु-तल सरित् पहार ।।
ॐ ह्रूॅं कायक्लेश तपधारक आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
पाप उगल हो आ गुरु पास ।
हृदय शालती रहती फाँस ।।
धूल झाड़ फिर पाँखी भाँत ।
छू लो गगन, कमी निज भ्रात ॥
दोहा-
त्याग तपस्या ‘भी’तरी,
मानी टेढ़ी खीर ।
रत प्रायश्चित सूर पै,
नाम तथा गुण वीर ।।
ॐ ह्रूॅं दशविध-प्रायश्चित तपधारक आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
जोड़ पुण्य भर कोट प्रमाण ।
विनय भावि भगवन् पहचान ।।
विनय अंक गुण दूजे शून ।
रहो शिव-पहुँच साथ सुकून ।।
दोहा-
त्याग तपस्या ‘भी’तरी,
मानी टेढ़ी खीर ।।
विनय वन्त पै सूर वे,
नाम तथा गुण वीर ॥
ॐ ह्रूॅं पंचविध मोक्ष-विनय तपधारक आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
सेवा में कुछ समय निकाल ।
होता मानौ-जन्म निहाल ॥
वत्सल सम-दर्शन इक चीन ।
सिर्फ दयाल आत्म संलीन ।।
दोहा-
त्याग तपस्या ‘भी’तरी,
मानी टेढ़ी खीर ।
रत वैयावृत सूर पै,
नाम तथा गुण वीर ।।
ॐ ह्रूॅं पात्रानु-सार-दशविध वैय्यावृत्य तपधारक आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
अपना खुलता है अध्याय ।
पटे नादि टोटा, हो आय ।।
सीले-सीले तीजे नैन ।
खुलते पढ़ते ही जिन-वैन ।।
दोहा-
त्याग तपस्या ‘भी’तरी,
मानी टेढ़ी खीर ।
स्वाध्यायी पै सूर वे,
नाम तथा गुग वीर ।।
ॐ ह्रूॅं पंचविध स्वाध्याय तपधारक आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
‘वि’ विभाव का करता त्याग ।
करना स्वातम से अनुराग ।।
‘उत’ यानी ऊपर अपवर्ग ।
‘सर्ग’ यानि यह प्रद-पथ स्वर्ग ।।
दोहा-
त्याग तपस्या ‘भी’तरी,
मानी टेढ़ी खीर ।
रत व्युत्सर्गिक सूर पै,
नाम तथा गुण वीर ।।
ॐ ह्रूॅं द्विविधव्युत्सर्ग तपधारक-आचार्य श्री विद्यासागर मुनीन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
साधो ! कर थिर मन वच-वाण ।
ध्यान यान इक दिव-शिव थान ॥
धर्म शुक्ल ध्याँ जुड़, बेजोड़ ।
आर्त-रौद्र ध्यानन मुख मोड़ ।।
दोहा-
त्याग तपस्या ‘भी’तरी,
मानी टेढ़ी खीर ।
सद्ध्यानी पै सूर वे,
नाम तथा युग वीर ।।
ॐ ह्रूॅं आर्त-रौद्र-ध्यान-रहित-धर्म-शुक्ल-ध्यान तप-निरत आचार्य श्री विद्यासागरमुनीन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
जल, चन्दन, गुल, तण्डुल, लाया ।
दीप, धूप, फल, चरु मन-भाया ।।
तप-द्वादश सर्वत्र प्रशंसा ।
सूरि सूर आकाश अहिंसा ।।
तिन्हें चढ़ाऊँ अर्घ बना के ।
अब, इक फिर के मात रुला के ।।
पाल बहिर-भीतर तप नाना ।
मेंटूॅं पुनि-पुनि आना-जाना ।।
ॐ ह्रूॅं द्वादश विध तप निरत आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
*जयमाला*
दोहा-
गुण अनन्त गुरु धारते,
मूल-भूत छ:तीस ।
आ श्री गुरु गुण-गावते,
अमूल गुरु आशीष ।।
मन उठ रही न एक तरंग ।
शून जल्प अन्तर् बहिरंग ॥
खाज खुजावें पशु शिल जान ।
अटल अकंप आत्म श्रृद्धान ।।
चलते फिरते आगम कोश ।
विध तेरह चारित निर्दोष ।।
तपाचार नभ-छूते केत ।
नहिं उत्सुक, उत्साह समेत ।।
समता सामायिक में लीन ।
थव तीर्थक रत साँझन तीन ।।
वन्दन रत तीर्थंकर एक ।
भज प्रतिक्रमण रहे सिर टेक ।।
स्वपर साक्षि लें प्रत्याख्यान ।
कायोत्सर्ग सुमेर समान ।।
चित् चारों खाने ही क्रोध ।
मान खड़े न करे विरोध ।।
माया ने डाले हथियार ।
लोभ न करता आँखें चार ।।
हित मित प्रीय अनूठे वैन ।
देख पीर-पर तीते नैन ।।
तप, व्रत, नियम शक्ति अनुसार ।
जीवन त्याग याग न्यौछार ।।
यथा जात दैगम्बर रूप ।
‘सहज-निराकुल’ ब्रह्म-स्वरुप ।।
जब तब करते मिलें उपास ।
रखें उनोदर में विश्वास ।।
ले आखड़ी निकलते रोज ।
रस परित्याग न लगता बोझ ।।
विविक्त शैय्यासन अनुराग ।
कायक्लेश चुने बड़भाग ।।
लें प्रायश्चित विसर प्रमाद ।
विनय स्वप्न भी रखते याद ।।
भज वैयावृत बनें सहाय ।
करते मिलें सदा स्वाध्याय ।।
इक व्युत्सर्ग तपस्या वन्त ।
सद्ध्यानी नुति प्रनुति अनन्त ।।
ॐ ह्रूॅं षट्त्रिंशद्गुण समन्वित-संतशिरोमणि आचार्य श्रीविद्यासागर मुनीन्द्राय
पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
दोहा-
दुनिया स्वारथ साधती,
इक साँचे गुरुदेव ।
करने मिले, न छोड़िये,
पल भी गुरु की सेव ।।
।। अथ मण्डलोपरि पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् ।।
*आरती*
मुझे दीखे वन में मुनिराज ।
पुण्य पे अपने मुझको नाज ।।
हाथ में दीपों की थाली ।
जगमगाती ज्योती वाली ।।
उतारूँ आरतिया में आज ।
पुण्य पे अपने मुझको नाज ।।
मुझे दीखे वन में मुनिराज ।।
जोर की बरसा मुसलधार ।
बूँद बाणों सा करे प्रहार ।।
गरजती बिजली सींह दहाड़ ।
सहज सहते तरु-मूल विराज ।।
पुण्य में अपने मुझको नाज ।
मुझे दीखे वन में मुनिराज ॥
चले, कर साँय-साँय पवमान ।
राख जल हरे-भरे खलिहान ।।
तब खड़े जो चौराहे आन ।
मिल गये तारण-तरण जहाज ॥
पुण्य पे अपने मुझको नाज ।
मुझे दीखे वन में मुनिराज ।।
दूर तरु, नाम निशान न छाह ।
धरा उगले अंगारी दाह ।।
तब धरी जिनने पर्वत राह ।
ढ़ोक, सुन ली मेरी आवाज ।।
पुण्य पे अपने मुझको नाज ।
मुझे दीखे वन में मुनिराज ।।
हाथ में दीपों की थाली ।
जगमगाती ज्योती वाली ।।
उतारूँ आरतिया में आज ।
पुण्य पे अपने मुझको नाज ।।
मुझे दीखे वन में मुनिराज ।।
नुति-प्रनुति…
माँ-सरसुति…√
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