निर्मोही पत्नी
साधु बन चला मोही पति
एक भलमानस के यहाँ दो पुत्र थे
पहला भवदत्त, दूसरा भवदेव
पापकर्म का उदय तीव्र आया
‘के पिता को एक असाध्य रोग हो चला,
पिता अपने अठारह वर्ष के भवदत्त
और 12 वर्ष के भवदेव को छोड़कर
अग्नि में प्रवेश करने का निर्णय ले करके चल बसे
पति को जलते हुए देख करके
पत्नी ने भी सुधबुध खो दी
वह भी झुलसा चली अपनी देह
रोते बिलखते बच्चों के लिये
स्वजनों ने ढ़ाढ़स बँधाया
समय निकला, दुख के जख्म भर चले
एक दिन सौधर्म नाम महामुनि
इस वर्द्धमान ग्राम में संघ सहित पधारे
समस्त ग्रामवासी श्रद्धा सुमन लेकरके
चले पड़े मुनि वन्दना के लिये
सभी ने मुनिराज की तीन प्रदक्षिणा दी
फिर भवदत्त को आगे करके
मुनिराज के चरणों में दृष्टि टिका करके
सभी बैठ चले
मुनिराज ने ध्यान उपरान्त
जैसे ही नेत्र खोले
सभी ने जय हो, जय हो कहा
अक्षर नाद ओंकार के साथ मुनिराज बोले
सार्थक नाम है यह जगत्
‘जगत रहना’
‘विषय चोर बहु फिरत हैं’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’,
कह चले श्रावक जन
मुनि के अमृत वचन सुनकर के
फिर ?
फिर क्या भवदत्त का ह्रदय काँप उठा,
वह बोल पड़ा,
मेरे भगवन !
मैं इन कर्म चोरों के चंगुल से छूटना चाहता हूँ
आप मुझे दैगम्बरी दीक्षा देकर के
कृतार्थ कीजिये
श्रमण भवदत्त पल पल प्रभु को याद करते हुये
विचार करते हैं
‘कि मुझ जैसा मन्दबुद्धि
जो सम्यक्त्व जैसी दुर्लभ निधि पा गया
जरूर पूर्वकृत पुण्य का ही फल है
अब मुझे एक निमिष भी
व्यर्थ न गवाते हुये
परम तप स्वाध्याय
और ध्यान के आस-पास समय बिताना चाहिये
इस तरह घोर तपश्चरण के साथ
बारह वर्ष बीत चले
योग वशात् ग्राम वर्धमान के निकट से
श्रमण संघ एक बार फिर से निकला
तब भवदत्त अपने भाई को भव कीच से
निकाल, सम्यक दर्शन प्राप्त कराने के लिए
अपने गुरुदेव से आज्ञा लेकर के
एक और श्रमण को साथ लेकर के आये
एक सुन्दर से घर में भवदेव रहता था
आज उसके घर में कोई उत्सव है
सन्तों को देखते ही
भवदेव विनय के साथ,
रोम-रोम में पुलकन लिये
साष्टांग नमस्कार करता है
सन्तो ने ‘धर्मवृद्धि’ कहके आशीष दिया
उस समय भवदेव की मंगनी,
फिर विवाह की रस्में अदा कीं जा रही थीं
सो हल्दी लगे हुये कपड़े देख
भवदत्त मुनि ने पूछा
‘रे वत्स !
क्या तूने विवाह रचा लिया
तब भवदेव बोला हाँ…
माँ ने बचपन में
जिस नागवसू नाम कन्या से
रिश्ता जोड़ने के लिए कहा था
उसी से मैंने परिणय कर लिया है
अभी विवाह की कुछ रस्में बाकी हैं
अच्छा हुआ आप नववधु को आशीष दीजियेगा
तब मुनि ने उसे उपदेश दिया
‘कल-सा ढ़आरओ ‘रे ‘
सो श्रावक के व्रत धारण कर
भवदेव ने रोज कलशा ढ़ारने का नियम लिया
और कल मतलब बुजुर्गों के नक्शे कदम पर
चलने का संकल्प भी लिया
फिर वह सन्तों से बोला भगवन् !
नवधा भक्ति की भावना है
और चर्या का समय भी हो रहा है
आप शुद्धि कर लीजिए
भाग्य, सौभाग्य, अहोभाग्य,
दोनों मुनियों का जुगल पड़गाहन मिला
भवदेव को
ढ़ेर स्वस्तियॉं सौंप करके
मुनि वन की तरफ चल पड़े
पीछे-पीछे भवदेव भी चला आया
वह मन ही मन सोचता है
श्रमण घर जाने के लिये कहेंगे
लेकिन श्रमण कहने से रहे
उन्हें क्या करना ?
आपको आना है तो आओ,
और जाना है तो जाओ
धीरे धीरे जहाँ संघ ठहरा हुआ था
वह स्थान आ गया
एक सन्त बोले
धन्य हैं यह भवदत्त श्रमण
जो अपने ग्रहस्थ जीवन के भाई को
संबोधित करके यहाँ ले आये हैं
क्या यह भी दीक्षा लेगा
ऐसा वचन सुनकर के
भवदेव का मन काँप उठा
उन्होंने मन ही मन कहा
मैं अब यहाँ पल भी न ठहरूँगा
घर जाकर विवाह की बाकी रस्में पूरी करूँगा
तभी श्रमण भवदत्त मुनियों से कहते हैं
हां मेरा भाई भी,
मेरे नक्शे कदम चलेगा
बेचारा भवदेव अब क्या करे ?
उसने भाई की बात रखते हुए,
दीक्षा लेना स्वीकार कर लिया
और मन ही मन सोचा
कल दीक्षा छोड़ करके घर चल पडूॅंगा
और अपनी पत्नी नागवसू के साथ रहूँगा
संघ नायक सूरि भगवन् ने
अवधिज्ञान से जाना
यह बच्चा यद्यपि दीक्षा माँगता है
पर मन से घर जाना चाहता है
फिर भी लज्जा वश व्रतों को निभायेगा
और निकट भव्य जीव है
सो दे देते हैं इसे दीक्षा
और भवदेव को मुनि बनाकर
इसे लाने वाले मुनि युगल की
देखरेख में रख दिया
समय गुजारने लगा,
उपाध्याय श्रमण इसे पढ़ाते थे
लेकिन इसके दिमाग़ में
इसकी पत्नी ही घूमती रहती थी
चूँकि मुनि युगल इसे अकेला न छोड़ते थे
इसलिए यह भागने में सफल न हो सका
धीरे धीरे बारह बर्ष गुज़र चले
एक बार फिर से श्रमण संघ
पुनः वर्धमान ग्राम निकट से गुजरा
मुनि युगल के साथ भवदेव
इसी ग्राम में आहार लेने आया
लेकिन बीच में ही बड़े महाराजों से बोला
मुझे रास्ते में मांस पिण्ड दर्शन हो चला है
इसलिये आज का मेरा अलाभ नाम अंतराय है
आप लोग गोचरी के लिये जाइये
मैं आपका यहीं इंतजार करता हूॅं
तब सन्त उसके कुटिल मन को न पढ़ पाये
और हामी भर दी
फिर ?
फिर क्या भवदेव अपने घर की ओर बढ़ चला
मन में सोच रहा था
घर जाकर अपनी प्राणों से प्रिय नागवसू को
नमन भर के देखूँगा
खूब विषय भोग सेवन करूँगा
और जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाता है
तभी उसके मन से एक विचार कौंधता है
‘कि कहीं मेरी प्रिया ने
दूसरा विवाह तो नहीं कर लिया
नवयौवना जो थी
और अब मैं मुण्डित शिर,
क्रश शरीर जो हो चला हूँ
मुझे चाहेगी भी वह, या नहीं
सो मैं चुपके से उसके पास नहीं जाऊँगा
उसे पहले घर मे बाहर बुला लूँगा
इसी उधेड़ बुन में जाने कब मुकाम आ गया
उसे पता ही नहीं लगा
जहां उसका घर था
वहां एक देव मन्दिर सा दिखाई दिया
दूर से हो जिस पर पंचरंगी ध्वजा लहर खा रही थी
जिन-प्रतिमा की वन्दना करके
वह जैसे ही भगवान् से दृष्टि हटाकर
दूसरी तरफ लाता है
‘कि एक खम्भे से टिकी व्रत नियमोपवास से
जिसकी देह क्षीण हो चली है
मानो चित्रलिखित हो कोई स्त्री दिखी
उस महिला ने मुनि की वन्दना की
मुनि ने उससे पूछा
हे अम्बे !
आप दीर्घ आयु लगती हैं
यहाँ निवास करने वाले
सभी जन को पहचानतीं होंगी
सो कृपा करके यह बतलाईये
‘के यहाँ भवदत्त और भवदेव नाम के
दो भाई रहते थे, वे कहाँ है ?
वृद्धा सी लगती उस नागवसू ने कहा,
उन्होंने दैगम्बरी दीक्षा ले ली
तब श्रमण ने पूछा
भवदेव का नागवसू से परिणय हुआ था
वह अपने पति के बिना पतिव्रता रही
या कुल धर्म भ्रष्ट हो चली है
उसका यौवन अभी भी अलौकिक है
या ढ़ल चला है
बोलते हुऐ मुनि को उस नागवसू ने
पहचान लिया
‘के यह निश्चित ही
अपने व्रतों से डिगा हुआ भवदेव है
उसे बड़ा खेद हुआ, दुख भी
‘कि देखो इस राग की माया
इसे पछाड़ना हर किसी के वश की बात नहीं
यह नार के लिए न्यार समझ
व्रत अनगार के लिए भार समझ चला है
इसे रास्ते पर लाना बहुत जरूरी है
फिर ?
फिर क्या गृह साधिका वह नागवसू बोली
हे ! जगत् जगत श्रमण तुम धन्य हो
जौवन में जो-वन का रास्ता अपनाया है तुमने
बुढ़ापा में आपा संभाल
विषय विरक्ति तो खूब देखी जाती है
तुमसे महान
आज इस नश्वर स्वार्थी में
दुनिया में कोई नहीं है
अपना रत्न देकर,
औरों का कॉंच का टुकड़ा कौन बदलता है ?
कौन पीतल के लिये स्वर्ण बेचता है ?
स्वर्ग मोक्ष छोड़ करके
कौन रौरव नाम नरक में पड़ता है ?
सार्थक नाम नारी
इनके समान कोई दूसरा अरि, शत्रु नहीं है
इन्हीं का एक नाम वामा
यानि ‘कि विपरीत मार्ग में ले चलने वाली है यह
इसकी खातिर व्रतों से
कौन सुबद्ध भ्रष्ट होता है
जैसे-जैसे नागवसू बोलती जाती है
वैसे-वैसे मुनि लज्जा से अधोमुखी होते जाते हैं
नागवसू कहती है
आपने जिस नव विवाहित
कन्या के बारे में पूछा है
‘के उसका रूप-लावण्य कैसा है
तो सुनिये !
सिरे उसका नारियल सा कड़ा है
बगैर जटाओं के मुण्डित है
मुख लारयुक्त है
नेत्र बुलबुले के समान हैं
चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ चली हैं
अस्थि पंजर मात्र देह बची है
और यदि विश्वास नहीं है आपको
तो मुझे देखिये मैं ही वह नागवसू हूॅं
जिसे अपने मन में
शल्य की तरह, जगह देकर के आपने
अनमोल दुर्लभ मुनि व्रत निछार कर रक्खें हैं
हा ! धिक्कार है
आपने परलोक नहीं साधा,
व्यर्थ ही समय निकाल दिया
मुझे अपने चित्त में बिठाल करके
नागवसू का ऐसा संबोधन पाकर
सारा मद-मोह काम काफूर हो चला
आँखों से वासना की पट्टी हट चली,
भीतरी ज्योति जगमगा उठी
नागवसू आगे कहती हूँ
हे नाथ ?
मैं ही हूँ वह तुम्हारी परित्यक्ता
मैं पतिव्रत रूप कुलाचार से च्युत नहीं हुई हूँ
आपके घर का सारा द्रव्य
मैंने धर्म कार्य में लगा दिया है
और यह एक सुन्दर सा चैत्यालय बनवाया है
मेरा यह शरीर व्रतोपवास से क्षीण हो चला है
मैंने तो अपने आपको धन्य समझा है
‘के मेरा वर
मुनिवर बनकर वन में रहता है
यह सब सुनकर मन में
लज्जा का अनुभव करता हुआ भवदेव बोला
भगवती ! भव सागर में डूबती मेरी नैय्या को
आपने संभाला है
अब मैं भव से पार होकर के ही दिखलाऊँगा
और सीधे जा पहुँचा है वह भवदेव
गुरुदेव के समीप
फिर?
फिर क्या
आत्मनिन्दा करते हुए
पुनः दीक्षा की प्रार्थना करता है वह
और अब दिव-देव पूजने आते हैं
ऐसा विशेष तप तपने लगा है वह
न सिर्फ बाहरी तप, भीतरी थी,
विनय उसकी देखते ही बनती थी,
वैय्या-वृत्ति में सबसे आगे रहता था वह
वह हाथ में ग्राम लेकर
जिह्वा रहित के समान आहार ग्रहण कहना था
अंधे के समान रूप-दर्शन करता था,
बहिरे के जैसा निरीह भाव से शब्द सुनता था
अर्थात् मन वाला होकर के भी
मनमानी नहीं करता था
गुरु की आज्ञा पालन रूप
अ…अनार से लेकर
ज्ञ…ज्ञानी तक पढ़ लिखकर
खूब ज्ञानवान हो चला था
समाधि पूर्वक मरण कर देव बना
बाद चक्रवर्ती महापद्म का पुत्र शिवकुमार
जिसने अपने पिता के द्वारा यह कहने पर
‘के इन्द्रिय निग्रह, जो तप कहा है
वह घर में भी सिद्ध हो सकता है
बस मोह ममता मन में घर न कर पाये
यदि विषय राग बना रहा मन में
तो वन में जाने से भी कोई लाभ न रहेगा
बेटा यहीं जल में भिन्न कमल से रहो
पिता का आज्ञा मान कर
ब्रह्मचर्य से रह करके
शिवकुमार ने गृहस्थ सन्त बनकर
चौंसठ हजार वर्ष तप किया
बाद सन्यास मरण करके
स्वर्ग विमान में विद्युन्माली देव हुआ
यह उसके पूर्व भव के
विशेष तप का ही प्रभाव रहा,
‘के मरण के छह महीने पहले से ही
जहाँ देवों की माला मुरझा चलती है
तेज, कान्ति खो जाती है
वह इस देव की मृत्यु के
सात दिन पहले भी
वही की वही बरकार रही
और यहाँ से च्युत होकर वह जीव
सेठ अरहदास
और माँ जिनमति का पुत्र
चरम शरीरी जम्बूस्वामी बना
जो केवल ज्ञान प्राप्त करके मोक्ष गया
और बड़ा भाई भवदत्त
भगवान महावीर स्वामी का
पाँचवा गणधर सुधर्मास्वामी बनकर के
सहज-निराकुल सुख पा गया
धन्य है
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