(४१)
शुद्ध, बुद्ध, अविनाशी मैं
अक्षर धाम निवासी मैं
अखर अंक हूँ
हेम पंक हूँ
निष्कलंक हूँ
साँची मैं,
साथी ! मैं, कह रहा हूँ सांची मैं
ऊर्ध्व रेत हूँ
मैं अभेद हूँ
अच्छेद्य हूँ
साँची मैं,
साथी ! मैं, कह रहा हूँ सांची मैं
चिदानन्द हूँ
सिध अनन्त हूँ
विगत बन्ध हूॅं
साँची मैं,
साथी ! मैं, कह रहा हूँ सांची मैं
गत उपाध हूॅं
निराबाध हूॅं
रत समाध हूॅं
साँची मैं,
साथी ! मैं, कह रहा हूँ सांची मैं
सहित जाग हूॅं
महाभाग हूॅं
वीतराग हूँ
साँची मैं,
साथी ! मैं, कह रहा हूँ सांची मैं
विगत क्रोध हूॅं
अमृत स्रोत हूॅं
परम ज्योत हूॅं
साँची मैं,
साथी ! मैं, कह रहा हूँ सांची मैं
अक्षर धाम निवासी मैं
शुद्ध, बुद्ध, अविनाशी मैं
अक्षर धाम निवासी मैं
(४२)
मैं माटी का नहीं
कर्म परिपाटी का नहीं
शुद्ध हूॅं
मैं बुद्ध हूॅं
हॉं होगा कोई क्रुद्ध
हॉं होगा कोई रुद्र
मैं सिद्धों की जाति का हूॅं
मैं माटी का नहीं
कर्म परिपाटी का नहीं
निस्पंद हूॅं
गत द्वन्द हूॅं
भद्र हूॅं
मैं अबद्ध हूॅं
शुद्ध हूॅं
मैं बुद्ध हूॅं
हॉं होगा कोई क्रुद्ध
हॉं होगा कोई रुद्र
मैं सिद्धों की जाति का हूॅं
मैं माटी का नहीं
कर्म परिपाटी का नहीं
निकलंक हूॅं
मैं अखण्ड हूॅं
सानन्द हूॅं
अनिरुद्ध हूॅं
शुद्ध हूॅं
मैं बुद्ध हूॅं
हॉं होगा कोई क्रुद्ध
हॉं होगा कोई रुद्र
मैं सिद्धों की जाति का हूॅं
मैं माटी का नहीं
कर्म परिपाटी का नहीं
(४३)
मैं ले रहा हूँ
और गहरी मुस्कान
और गहरी और गहरी
और गहरी मुस्कान
मन कहेगा क्यूँ
चूंकि भावी भगवान्
मैं ले रहा हूँ
और गहरी मुस्कान
धन ! धन ! गुण अनन्त निधान
गुण-गुण गुण सौख्य प्रधान
चूंकि भावी भगवान्
मैं ले रहा हूँ
और गहरी मुस्कान
झोरी अब जन्म पुमान
बुध हंस अबकि वरदान
धन ! धन ! गुण अनन्त निधान
गुण-गुण गुण सौख्य प्रधान
चूंकि भावी भगवान्
मैं ले रहा हूँ
और गहरी मुस्कान
(४४)
चिच्-चिदानन्द मैं
चिच्-चिदानन्द मैं
फूल तन, सुगन्ध मैं
चिच्-चिदानन्द मैं
भले रहूँ देह में
देह से विभिन्न मैं
अक्षत अखण्ड मैं
काहे खेद खिन्न मैं
वीतराग सन्त ने
कहा मुझे ग्रन्थ में
ज्ञान सघन पिण्ड मैं
चिच्-चिदानन्द मैं
फूल तन, सुगन्ध मैं
चिच्-चिदानन्द मैं
तन पतंग, डोर मैं
किरण विभोर भोर मैं
वीतराग सन्त ने
कहा मुझे ग्रन्थ में
ज्ञान सघन पिण्ड मैं
चिच्-चिदानन्द मैं
फूल तन, सुगन्ध मैं
चिच्-चिदानन्द मैं
मीन देह, नीर मैं
गभीर, धीर, वीर मैं
वीतराग सन्त ने
कहा मुझे ग्रन्थ में
ज्ञान सघन पिण्ड मैं
चिच्-चिदानन्द मैं
फूल तन सुगन्ध मैं
चिच्-चिदानन्द मैं
(४५)
भीतर छांव, बाहर धूप
भीतर खूब
भीतर डूब
बाहर धूप, भीतर छांव
भीतर ठाव, भीतर आव
‘रे अरे तुम भी… तर आव
सागर मोति कब ऊपर
गोता खोर चला अन्दर
चाहिये मोति जिसे,
वह मौत से डरता नहीं
भूपर कहाँ स्वर्ण पत्थर
जुहरी खोद चला अन्दर
चाहिये ज्योति जिसे,
मेहनत से डरता नहीं
चाहिये मोति जिसे,
वह मौत से डरता नहीं
खारा देख जल समन्दर
प्यासा खोद चला अन्दर
चाहिये ज्योति जिसे,
मेहनत से डरता नहीं
चाहिये मोति जिसे,
वह मौत से डरता नहीं
(४६)
इन्द्रिय और मन दरवाजा
अहो ! आत्मन्, अहो ! आत्मन्
इन्द्रिय और मन दरवाजा
ना जा बाहर,
अन्दर आ जा
अन्दर ज्ञान समन्दर है
अन्दर सत् शिव सुन्दर है
बाहर बाहरि चमक दमक
बिजुरी टिकती तनक मनक
अन्दर भगवत् मन्दर है
अन्दर सत् शिव सुन्दर है
बाहर चाकरि मात्र सिरफ
दुनिया साधे स्वार्थ सिरफ
अन्दर कछु…आ अन्तर् है
अन्दर सत् शिव सुन्दर है
(४७)
अपनी नाक से आगे
अपनी पीठ से पीछे
अपने सिर से ऊपर
अपने पाँव से नीचे
अपना कुछ भी नहीं है
और ये जो कुछ भी है
वह एक सपना है
कहाँ वह अपना है
प्यारा दुलारा बेटा
आंखों का तारा बेटा
चिता को आग देता
ऐसा ये कैसा मेरा प्यारा बेटा है
हाय ! मोरी
सिर्फ कोरी, यह कल्पना है
कहाँ वह अपना है
जग भर से न्यारा पैसा
प्राणों से प्यारा पैसा
देता न साथ हमेशा
ऐसा ये कैसा रुपया पैसा है
हाय ! मोरी
सिर्फ कोरी, यह कल्पना है
कहाँ वह अपना है
(४८)
बाहर से मोड़ो मुखड़ा
दूर दिखेगा जा दुखड़ा
भीतर उतरो, भीतर उतरो, और गहरे
और गहरे, और गहरे, और गहरे
मिलते हैं रतन
करते ही जतन
बस थोड़ा ठहरो
भीतर उतरो, भीतर उतरो
अब वो धुन सुनो,
सुन सकते हैं जिसे
न सिर्फ कान वाले
सुन सकते है उसे, है जो बहरे
और गहरे, और गहरे, और गहरे
भीतर उतरो, भीतर उतरो, और गहरे
अब वो दृश्य चुनो,
चुन सकते हैं जिसे
न सिर्फ आंख वाले
चुन सकते है उसे, विषयांध ‘रे
और गहरे, और गहरे, और गहरे
भीतर उतरो, भीतर उतरो, और गहरे
अहसास वो गुनो,
गुन सकते हैं जिसे
न सिर्फ मन वाले
गुन सकते है उसे,
दीवाने पगले
और गहरे, और गहरे, और गहरे
भीतर उतरो, भीतर उतरो, और गहरे
(४९)
अपनी पलकें झपा के
जर्रा जा मुस्कुराके
थोड़ा ध्यान लगा के
मैंने झाँका भीतर
जगमगाती ज्योती
दिखी मुझको भीतर
नख से लेकर शिख तक
जगमगाती ज्योती
दिखी मुझको भीतर
अपनी पलकें झपा के
जर्रा जा मुस्कुराके
थोड़ा ध्यान लगा के
मैंने झाँका अन्दर
चमचमाता मोती
दिखा मुझको अन्दर
पग से लेकर सिर तक
(५०)
बाहर रास्ते कई
क्या सही ? क्या गलत ?
जाने न कोई
बाहर रास्ते कई
मंझधार नाव है
बाहर भटकाव है
आओ, भीतर आओ
भीतर तरु छाँव है
बाहर भटकाव है
बाहर रास्ते कई
क्या सही ? क्या गलत ?
जाने न कोई
बाहर रास्ते कई
कस्तूर
कब दूर
हिरना
बस हिल ना
भीतर सुख ठाव है
बाहर भटकाव है
बाहर रास्ते कई
क्या सही ? क्या गलत ?
जाने न कोई
बाहर रास्ते कई
कपूर
कापूर
हवा ले
बच हवा से
भीतर शिव गाँव है
बाहर भटकाव है
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