सवाल
आचार्य भगवन् !
डरता रहता हूँ,
कहीं नाकामयाबी हाथ न लग चले
बार-बार हार की रेख,
मानस पटल पर जो छाई है अमिट
चलती फिरती लाश के जैसा बन चला हूँ,
बस नाम के लिए जी रहा हूँ
नमोऽस्तु भगवन्,
नमोऽस्तु भगवन्,
नमोऽस्तु भगवन्,
जवाब…
लाजवाब
सुनो,
खड़े-खड़े जब नाक तक पानी आ जाये,
तब हड़कंप मत मचाना
बस पंजों के बल खड़े हो जाना
बढ़ते चलो रख आस्था,
जहाँ तक रास्ता
बौने कद वालों को सीढ़ी चोटी,
चोटी छोटी, ऊंचे कद वालों को
हाँ.. कहाँ नहीं होती हैं सीढ़िंयाँ
कद कुछ ऊँचा रखना पड़ता है
नप जाती है सारी धरती
बस डग भरना पड़ता है
दूध से भरे गिलास में इन्दु सरीखी
बिन्दु घी की
तलहटी में ले जाकर बिठाई
वह यह कहती हुई ऊपर आई
‘कि हूँ कुछ खास में
बच्चे की दो फैली हुई बाँहों भर,
आसमान के तले क्या कुछ नहीं है,
हमारी ही कमी है,
हमनें ही जा खोजा नहीं है
सफलता की शुरुआती सीढ़िंयाँ
पाँवों से नहीं
हाथों के बल कुछ उचक करके चढ़नी पड़ती हैं
जीत यानि ‘कि जी तोड़कर मेहनत
एक और कदम बढ़ाने का हौसला
दे मंजिल से मिला
पाखी छूने नीला आसमाँ
छोड़ना पड़ता घौंसला
गोल बनते
पत्थर पैने न आप अपने
सुड़ोल बनते
असहनीय पड़ती मार,
आते जाते पानी की सहनी पड़ती हर बार
ओम् नमः
सबसे क्षमा
सबको क्षमा
ओम् नमः
ओम् नमः
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