परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 99
पत्थर मील दिखे न जिनको,
दीख पड़े मंजिल आती ।
चूॅंकि एक मंजिल सब चाहें,
जिन्हें बना लेना साथी ।।
रूठ सके ना ग्राहक ऐसी,
दिव्य कला सीखी गुरु से ।
गुरु विद्या के उनकी सब पे,
यूँ ही सदा कृपा बरसे ।। स्थापना।।
जिनके अंग अंग से छलके,
वीतरागता जिनवर सी ।
कोन-कोन से सुन्दरता ने,
दी आ जिन्हें ढोक फरसी ।।
जिन्हें निरख फिर रुचते किसको,
चाँद चारुता के गाने ।
वे विद्या सागर हम उनकी,
एक नजर के दीवाने ।। जलं।।
जिन्हें देखते ही मन कहता,
आ कछु…आ व्रत लेते हैं ।
धन पैसे की बात न करते,
पार और कर देते हैं ।।
दिल मुट्ठी भर जाने कैसे,
भक्त समाते जाते हैं। ।
जग कहता हम विद्या सागर,
के भक्तों में आते हैं ।।चंदन।।
मिले मुझे आशीष आपका,
जगत् न किसकी अभिलाषा ।
कौन न चाहे इनके चरणों में,
निकले अंतिम श्वासा ||
जिन्हें देख ले नजर उठा ये,
समझो है किस्मत जागी ।
लगन हमारी विद्या सागर,
श्री गुरुवर उन से लागी ।। अक्षतम् ।।
जिनकी हर क्रियाओं से है,
महक अहिंसा की आती ।
भव-भव से ये अरु तप-संयम,
ऐसे मनु दीवा बाती ।
जिन्हें शिष्य शिष्यों को जो,
माता शिशु जैसे प्यारे हैं ।
चरणा वे गुरु विद्यासागर,
इक भव सिन्धु किनारे हैं ।।पुष्पं ।।
अंखिंयों की संतुष्टि पर ही,
चीज उठाते धरते जो ।
पर हित गौण प्रधान रूप से ,
अपना हित आदरते जो ॥
नाम गाड़ियों पर लिक्खा है ।
लेकिन वे सब इनकी ना ।
इनकी दया बिना पलभर भी,
है मुझको जीना ‘जी ना ।।नैवेद्यं।।
देखो “अजी देख लो” ऐसी,
जिनकी है अनुभय भाषा ।
चर्या इमि प्रांजल जिनकी लख,
सुर गण भी बनते दासा ॥
अरे निकल जायें जिस मग से,
लग पड़ते जय जय कारे ।
श्री गुरु विद्या सिन्धु जुगल पद,
जगत् एक तारण हारे ।। दीपं ।।
जीर्ण शीर्ण जिन मंदिर फिर से,
जा नभ लगें आप सपना ।
कौन पराया आप मानते,
सारी दुनिया को अपना ।।
जिन,जिन-श्रुत,गुरु अयश न होवे,
सदा ध्यान जे धरते हैं ।
रोज किसे ना सपनों में,
श्री विद्या सागर दिखते हैं ।।धूपं।।
जिनके मुख से अमरित झरता,
लगता बस सुनते जाओ ।
‘दश-दश’ क्या बजते हर श्रावक,
कहता मेरे घर आओ ।।
जिन जैसा बनने की जिनके,
शिष्य भावना भाते हैं ।
गुरु विद्या तिन दया बिना कब,
भव जल कूल दिखाते हैं ।।फलं।।
ग्राम हमार चुमासा कर लो,
कहते श्रीफल हाथों के ।
एक नजरिया उठा देख लो,
कहते आँसू आँखों के ।।
जल, चन्दन,धाँ शालि,पुष्प,चरु,
दीप,धूप,फल लाये हैं ।
तुम्हें रूठना आता ही ना,
तभी मनाने आये हैं ।।अर्घं।।
“दोहा”
गुरु गुण क्या गा पाऊँगा,
मैं बालक मति मन्द ।
गये इत्र बाजार क्या,
मिलती नहीं सुगन्ध ॥
॥ जयमाला ॥
धन्य हो गई शरद पूर्णिमा,
एक न शशि दो दो पाके ।
इक सितार सरताज,दूज-
सिर ताज श्रमण नायक जाके ॥
झुकीं झुकीं दो अंखिंयाँ जाकीं,
जग असारता बतलातीं ।
चाहा दिखे कहाँ ? दिखता जो,
कब चाहा मैंने गातीं ॥
दिव्य नासिका चम्पक-जैसी,
और कहॉं सम रस सानी ।
गन्ध सभी पुद्-गल पर्यायें,
क्या इन से सनेह ग्लानी ॥
जाका जुगल-कर्ण सुन्दर कब,
पर निन्दा चाहे सुनना ।
लाभ न आत्म कथा कलि क्या,
क्यों विकथायें चाहें चुनना ॥
मुख जाका माँ जिन-वाणी का,
जगत् एक अनुगामी है ।
विसम्वाद से आमद क्या,
क्या निज रस कम अभिरामी है ॥
लम्बे-लम्बे हाथ-‘साध’ दो,
कब ताड़ित करना सीखे ।
समल आत्म ना दिखे मुझे,
बस अमल आत्म पग-पग दीखे ॥
चरण युगल कब चाहे जाका,
रे ! प्रमाद दामन वरना ।
जीव सहोदर किसी अपेक्षा,
चाहे जगत् कौन मरना ॥
जाका इतर उदर भोजन कब,
चाहे अप्रासुक भाई ।
भखो सरस नीरस क्या घाटी,
उतरा ना माटी घाँई ॥
दिव्य पृष्ठ पार्थिव घट-जैसी,
भविजन भव जल पार करे ।
निज सँभाल सँग बनता यावत् ,
कहाँ बुरा उपकार अरे ॥
दीन करुण क्रन्दन सुन जाका,
सदय हृदय सिसकी भरता ।
दैव ! छीन ली क्यों खुशियाँ,
इसकी दे दो पैय्या पड़ता ॥
मन जाका जल क्षीर-सिन्धु सा,
भीतर बाहर इक जैसा ।
निरखो इक चैतन्य आतमा,
सबमें भेद करे पैसा ॥
कहें कहाँ तक जाकी गाथा,
‘रे कुछ भी कहना कम है ।
छूना चाहे क्षितिज परिन्दा,
पर क्या कम धरती-खम् है ॥
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
“दोहा”
बागवान गुरु सम नहीं,
मिल सकता तिहु धाम ।
चेत ! शिष्य तरु चेत रे,
परितः बिषयन घाम ।।
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