परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 97
बिन वैशाखी पद रखने की,
आदत जिन्हें पुरानी है ।
ग्राम सदलगा की माटी से,
जनकी शुरु कहानी है ॥
जिनका जरा मुस्कुरा जाना,
मानो फूलों की बरसा ।
गुरु विद्यासागर चरणों में,
नित नमोऽस्तु मेरी सिरसा ।।स्थापना।।
समद चॉंदनी छव लख जिनकी,
अपना मद बिसराती है ।
पाने पुनि अधिकार कीर्ति मिस,
चरण चेरि बन आती है ॥
इन्द्र सभा मैं जा विरदावलि,
सुबह-सॉंझ गूॅंजा करती ।
गुरु विद्या-सागर चरणों मैं,
नमन हमारे अनगिनती ।।जलं।।
अपने प्राणों से भी ज्यादा,
प्रीत जिन्हें आवश्यक से ।
निन्दन,गुण-कीर्तन,वन-उपवन,
मण-पाहन जिनको इक से ॥
मॉं प्रवचन गोदी आदरना,
पल-पल जिन्हें सुहाता है।
गुरु विद्या सागर चरणों में,
त्रिजग नवाता माथा है ।।चंदन।।
पल दो पल भी पास न जिनके,
पर निन्दा सुनने कहने ।
मूक-प्राणि-पीड़ा लखते ही,
लगें अश्रु जिनके बहने ॥
छू पाया अभिमान जिन्हें कब,
कहें,करें गुरु,नाम मिरा ।
गुरु विद्यासागर चरणों में,
सविनय नम्र प्रणाम मिरा ।।अक्षतम्।।
सदा गुप्तियों से संरक्षित,
दिव्य कोट बिच रहते जो ।
प्रतिकूलतायें दुर्दिन की ,
हँसते-हँसते सहते जो ॥
जिनके गुण अपरिस्-स्रावी का,
है त्रिभुवन में क्या कहना ।
गुरु विद्या सागर चरणों में,
कौन नहीं चाहे रहना ।।पुष्पं।।
इक पल भी भित्ती से टिकना,
कहाँ रुचे जिनको भाई ।
ज्ञान-ध्यान बिन जाने देना,
इक पल भी पीड़ा दाई ॥
थुति तीर्थंकर चार-बीस बिन,
कब संध्या बीतीं जिनकी ।
गुरु विद्या सागर चरणों में,
प्रनुति रात की,नुति दिन की ।।नैवेद्यं।।
ग्रीष्म दुपहरी निरत शयन जग,
तदपि न तनिक रुचा जिनको ।
घाम,शीत ऋतु चाहे जन-मन,
तदपि न क्षणिक रुचा मन को ॥
वर्षा ऋतु की दुश्वारी भी,
कब जिन के मन को खलती ।
गुरु विद्या सागर चरणों के,
वन्दन से आपद टलती ।।दीपं।।
देखो इमि अनुभय भाषा से,
परिचय ना त्रिभुवन किनका ।
पलक उठा क्या देखा जिनने,
मोह क्षीण होता धन का ।।
गुरु आज्ञा पालन खुद करना,
करवाना आदरते हैं ।
गुरु विद्यासागर चरणों में,
कोटिक वन्दन करते हैं ।।धूपं।।
जिन्हें निरखने रहतीं आतुर,
मेरी क्या सबकीं अंखिंयाँ ।
निरतिचार जोगी जिन जैसा,
कहॉं और कहतीं सखिंयाँ ॥
जैन मनीषा जिन्हें मानती,
भगवन् कुन्द-कुन्द दूजा ।।
गुरु विद्या-सागर चरणों की,
मैं करता निशदिन पूजा ।।फलं।।
माह व्यतीत नहीं होते दो,
लुंचन जिन्हें लुभा लेता ।
लखें,आपको साल हजारों,
जिन्हें दुआयें जग देता ।।
गुरु ने जिन्हें बनाया गुरुवर,
कुछ तो बात रही होगी ।
गुरु विद्यासागर चरणों में,
नुति बनने श्रावक जोगी।।
।।अर्घं।।
“दोहा”
गुरु विद्या घट पृष्ठ से,
जिसने बाँधी डोर ।
निश्चित ही भव सिन्धु का,
पाया उसने छोर ।।
॥ जयमाला ॥
धन्य सदलगा माटी जिसपे,
गुरुवर रखा कदम तुमने ।
कूख धन्य मॉं श्री-मति जिससे,
गुरुवर लिया जनम तुमने ।।
पिता मलप्पा धन्य जिन्होंने,
उर से प्रथम लगाया है ।
बना दोल हाथों का अपने,
मन-भर तुम्हें झुलाया है ।।
दर्शन मिला प्रथम तुम शारद,
पूनम निशि का क्या कहना ।
धन ! धन ! रस संयम रसिया तुम,
एक न सब भाई बहना ।।
धन ! धन ! भाषा माता मराठी,
जिसमें तुम तुतलाये थे ।
धन ! धन ! कन्नड़ भाषा जिसमें,
पा शिक्षा हरषाये थे ।।
धन्य देशभूषण मुनि जिनसे,
प्रतिमा सप्तम लीनी है ।
ज्ञान-सिन्धु मुनि धन जिन चरणन,
दृष्टि एक थिर दीनी है ।।
धन ! अजमेर जहाँ जिन-दीक्षा,
लेकर निज को श्रृंगारा ।
पल वो धन्य तुम्हें जब गुरु ने,
दिया सूरि-पद अधिकारा ।।
धन ! धन ! तव गुरु भक्ति,कराई-
सन्मृत्यु गुरु की जिससे ।
तव साहित्य साधना धन ! धन !
जग जो आज छुपी किससे ।।
शिष्य धन्य ! तव आप दया से,
जिन्होंने शिव पथ लीना ।
धन ! शिष्याएं आप चरण में,
जीवन निज अर्पित कीना ॥
धन्य ! दयोदय दया-धाम है,
सिर जिसके छाया तेरी ।
धन्य ! तीर्थ सिद्धोदय जिसकी,
सुमरण हरे जगत् फेरी ॥
कहूॅं कहाँ तक कौन गिन सका,
कितने अम्बर मैं तारे ।
मुझे सहायक अंत मौन बस,
सुनते है,सुर गुरु हारे ।।
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
“दोहा”
भूल भुलैया सा रहा,
गुरु-वर का गुणगान ।
शाम हो चले पै नहीं,
मिले निकलने थान ।।
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