परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक -94
सिवा आपके इस दुनिया में,
कोई नहीं हमारा है ।
आ भी जाओ मेरे भगवन् ,
तेरा सिर्फ सहारा है ।।
आप कृपा बिन में भटका हूॅं,
गति-लख चौरासी जोना ।
गैर न मैं तेरा अपना ही,
मुझको भी अपना लो ना।।स्थापना।।
तुम बिन मैं तड़फूँ जल बिन ज्यों,
मछली तड़फा करती है ॥
ग्रीषम ऋतु में मेघ निरखने,
तरसा करती धरती है ॥
रिख जल बिन्दु स्वाति बन आओ,
चातक मैं तरसूॅं कब से ।
मेरे हो आराध्य आप ही,
होश सम्भाला है जब से ।।जलं।।
है नहिं ये मुस्कान तुम्हारी,
धड़कन है मेरे दिल की ।
औषध राम बाण जॉं लेवा,
रोग रूप हर मुश्किल की ||
यही भावना कोटि-शरद तक,
मेरा साथ निभाये ये।
यूँ ही गम विसराने जग के,
नित अमृत बरषाये ये।। चंदन।।
झुकी-झुकी तेरी अंखिंयाँ दो,
वरवश मौन कहें मुझसे ।
तेरा जो अपना सो भीतर,
बाहर बात करे किससे ॥
कछु…आ भीतर, क्यों मृग जैसी,
हाय ! हॉंप ये अपनाई ।
देर नहीं फिर आप-आप ही ,
पा लेगा शिव ठकुराई।।अक्षतम्।।
और नहीं गुरु कुन्द-कुन्द सी,
ऋत चर्या धनवान् कहीं ।
निरत स्वपर कल्याण-पन्थ तुम,
पर परसे अभिमान नहीं ॥
आ मन्मथ तेरी चौखट पर,
हा ! अखीर दम तोड़ गया ।
त्रिभुवन विजय पताका मद वह,
तेरे चरणन छोड़ गया ।। पुष्पं।।
बोल आप दो मीठे सुनने ,
वारूँ मैं दुनिया सारी ।
तुमने नज़र उठा क्या देखा,
नजर उतर जाये कारी ।।
तेरे आगे सभी बलायें ,
आ अपना माथा टेकें ।
चरण शरण पा जायें तेरी,
आश लिये इक-टक देखें ।।नैवेद्यं ।।
मिल जाये आशीष आपका,
यही कामना है मेरी ।
बनूँ आप सा निरतिचारी मैं,
यही भावना है मेरी ॥
विषय पाश में फॅंसा तलक अब,
अब तोडूॅं,उसको वर दो ।
ज्ञान ज्योति से विमुख रहा हा !
मुख अब उस सम्मुख कर दो ।।दीपं।।
लखूँ टकटकी लगा राह कब,
मेरे आंगन आओगे ।
निरखो नित अपना वैभव कब,
मेरा,मुझे दिखाओगे ||
कर्म अत्त हैं सहे आज तक,
तुमको जाने बिन मैंने ।
कर्मन धूम उड़ाने लाया,
धूप आप चरणन खेने ।।धूपं।।
भले रक्त से रिक्त हमारी,
रग न आपसे रिक्त कहीं ।
मन मेरा तुम चरण छोड़,
अन्यत्र कहीं आसक्त नहीं ॥
मेरे भगवन् ! तुम्हीं सहारा,
दो,या मुझको ठुकराओ ।
कभी स्वप्न से आ बाहर भी,
अपना दर्शन दे जाओ ।।फलं।।
अधम-उधारन ! कृपा सिन्धु ओ !
जगत्-तीन संकट-हारी ।
दीन बन्धु ओ ! करुणा सागर !
बाल वैद्य ! मंगलकारी ॥
द्वार आपके आया, लाया,
थाल दरब का हाथों में ।
अरज यही अब मेरी गिनती ,
होय न कभी अनाथों में।। अर्घं।।
“दोहा”
गुरु किरपा सबसे बड़ी,
कही जगत् सो ठीक ।
इस बिन तट संसार का,
कब आया नजदीक ॥
॥ जयमाला ॥
शरद पूर्णिमा के दिन जनमा,
शिशु विद्याधर नाम का ।
अधिपति जो होने वाला है,
स्वर्ग और शिव धाम का ॥
माँ श्री-मति मरि,पीलू,तोता,
कहतीं जिसको प्यार से ।
गिनी पिता मल्लप्पा जी का,
विषय जिसे हैं खार से |
लगा देश-भूषण मुनि चौखट,
जिसे काम किस काम का ।
शरद पूर्णिमा के दिन जनमा,
शिशु विद्याधर नाम का ।
ज्ञान ललक ने गुरु-द्वारे की ,
जिन्हें दिखाई राह थी ।
ज्ञान सिन्धु वे श्रमण शिरोमणी,
जिन्हें न फल की चाह थी ॥
जिसे कराया दर्श इन्होंने,
विसरे आतम राम का ।
शरद पूर्णिमा के दिन जनमा,
शिशु विद्याधर नाम का ।
दीक्षा हुई नाम गुरु मुख से,
विद्या सागर जिन्हें मिला ।
रे ! माध्यस्थ अनोखे जिनको ,
राग नाहिं,ना द्वेष-गिला ।
किया सहज निर्वाह जिन्होंने,
ज्ञान-सिन्धु-गुरु शाम का ।
शरद पूर्णिमा के दिन जनमा,
शिशु विद्याधर नाम का ।
प्रथम शिष्य मुनि समय सिन्धु जी,
आगर आतम ज्ञान के ।
योग सिन्धु आदिक मुनि गण फिर,
एक पात्र निर्वाण के ॥
बीस-दोय परिषह से जिनका,
नाता आठों याम का ।
शरद पूर्णिमा के दिन जनमा,
शिशु विद्याधर नाम का ।
श्री गुरु-मति जी शिष्या जिनकी,
प्रथम हिमालय शील की ।
फिर श्री दृढ़-मति आदिक माँ,
अवगाहक आतम झील की ।
तीन बाद छैः का है रिश्ता,
जिनका अरु विश्राम का ।
शरद पूर्णिमा के दिन जनमा,
शिशु विद्याधर नाम का ।
ख्यात,कृति श्री-मूकमाटि जी,
जिनकी देश विदेश में ।
माँ जिन श्रुति टंकोत्कीर्ण कीं,
जिन थुति कविता भेष में ॥
जिन्हें डिगा कब पाया मौसम ,
बरषा शीतरु घाम का ।
शरद पूर्णिमा के दिन जनमा,
शिशु विद्याधर नाम का ।
ज्ञानोदय सर्वोदय सबके,
सिर पर जिनका हाथ है ।
धन्य दयोदय करुणा जिनकी,
जो पाये दिन रात है ।
जिन्हें बुलाने निज आंगन ,
आतुर श्रावक हर ग्राम का ।
शरद पूर्णिमा के दिन जनमा,
शिशु विद्याधर नाम का ।
बालक में गुरु-गुण-रत्नाकर,
पाऊँ कैसे छोर जी ।
चॉंद हाथ कब शिशु के आया,
भले लगा ले दौड़ भी ॥
कर प्रणाम, अब अभिवादन मैं,
करता अतः विराम का ।
शरद पूर्णिमा के दिन जनमा,
शिशु विद्याधर नाम का ।।जयमाला पूर्णार्घं।।
“दोहा”
गुरु छाया में जो सदा,
करते हैं विश्राम ।
उन्हें दुखी कब कर सका,
जन्म-जरा-मृत-घाम ॥
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