परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 91
गुरु का नाम लो ।
सुबहो-शाम भो ।।
गुरु बिन कोई न दूजा हमारा,
गुरु आशीष एक कलजुग सहारा ।।स्थापना।।
क्षीर के जल से ।
लिये भर कलशे ।।
पाने समशरण ।
भेंटूॅं गुरु चरण ।।
गुरु बिन दीखे न भव जल किनारा |
गुरु आशीष एक कलजुग सहारा।।जलं ।।
हाथ घट चन्दन ।
नत माथ वन्दन ।।
पाने समशरण ।
भेंटूॅं गुरु चरण ।।
गुरु बिन चमके न किस्मत सितारा ।
गुरु आशीष एक कलजुग सहारा।।चंदन।।
कान्ति रतनारी ।
थाल धाँ शाली ।।
पाने समशरण ।
भेंटूॅं गुरु चरण ।।
गुरु बिन जाये न अन्तर् निखारा |
गुरु आशीष एक कलजुग सहारा ।।अक्षतम् ।।
फूल वन-नन्दा |
अनमूल गंधा ।।
पाने समशरण ।
भेंटूॅं गुरु चरण ।।
गुरु बिन जाये न मन्मथ लताड़ा ।
गुरु आशीष एक कलजुग सहारा।।पुष्पं ।।
थाल घृत व्यंजन ।
भक्ति ले चन्दन ।।
पाने समशरण ।
भेंटूॅं गुरु चरण ।।
गुरु बिन जाये न आतम निहारा ।
गुरु आशीष एक कलजुग सहारा।। नैवेद्यं।।
ज्योत अविनश्वरा ।
दीप घृत सुनहरा ।।
पाने समशरण ।
भेंटूॅं गुरु चरण ।।
गुरु बिन जाये न रुष-तुष विसारा ।
गुरु आशीष एक कलजुग सहारा ।। दीपं ।।
धूप घट न्यारे ।
अर गंध वाले ।।
पाने समशरण ।
भेंटूॅं गुरु चरण ।।
गुरु बिन जाये न किल्विष पछारा ।।
गुरु आशीष एक कलजुग सहारा।। धूपं ।।
छव और दीखे ।
पके फल मीठे ।।
पाने समशरण ।
भेंटूॅं गुरु चरण ।।
गुरु बिन विनशे न विषयन विकारा |
गुरु आशीष एक कलजुग सहारा।। फलं ।।
मण-रत्न वाली ।
वसु द्रव्य थाली ।।
पाने समशरण ।
भेंटूॅं गुरु चरण ।।
गुरु बिन होता न दिव-शिव विहारा ।
गुरु आशीष एक कलजुग सहारा।। अर्घं।।
“दोहा”
संजीवन से कम नहीं,
भवि,जिनकी मुस्कान ।
ज्ञान सिन्धु छव दूज वे,
विद्या सिन्धु महान |।
॥ जयमाला ॥
श्री-मति माँ सदन ।
हुआ बालक रतन ।।
शरद पूनम का था दिन सुहाना ।
विद्या गुरुवर का त्रिभुवन दिवाना |।१।।
बोल मिसरी डली ।
देह नाजुक कली ॥
ठुमक चलता ‘के प्रमुदित जमाना ।
विद्या गुरुवर का त्रिभुवन दिवाना ||२।।
मति जिसकी प्रखर ।
पढ़े आलस विसर ।।
और विनयी न ऐसा दिखाना |
विद्या गुरुवर का त्रिभुवन दिवाना |।३।।
दया जिसके हृदय ।
कहाँ रुचते विषय |।
जिया मुनि देश-भूषण रिझाना |
विद्या गुरुवर का त्रिभुवन दिवाना ||४।।
विनिर्मल ब्रह्मधर ।
ज्ञान इच्छुक अपर ।।
ज्ञान सागर अब जिसका ठिकाना ।
विद्या गुरुवर का त्रिभुवन दिवाना |।५।।
नग्न तन मन वचन ।
मृषा न,जिन वचन ॥
जिन्हें आज्ञा गुरु नित निभाना |
विद्या गुरुवर का त्रिभुवन दिवाना |।६।।
दुग्ध सा आचरण।
गुरु सेवा मगन ।।
जिन्हें गुरु चाहें निज पद बिठाना |
विद्या गुरुवर का त्रिभुवन दिवाना ।।७।।
देख जिन आचरण ।
सुधि आये शरण ।।
और संघ चतुर् विध ‘जहॉं’ ना |
विद्या गुरुवर का त्रिभुवन दिवाना |।८।।
दया गायें पलीं ।
पाठ-शाला खुलीं ॥
कृपा जिनकी न किन पे बताना ।
विद्या गुरुवर का त्रिभुवन दिवाना ||९।।
पाठावलीं रची ।
थुतिंयॉं रस खचीं ।।
मूकमाटी का कीना विधाना ।
विद्या गुरुवर का त्रिभुवन दिवाना ।|१०।।
छुये न मद जिन्हें ।
तीर्थ रुचते घने ।।
कौन जिन-बिम्ब नाहिं लुभाना |
विद्या गुरुवर का त्रिभुवन दिवाना |।११।।
गुणवॉं नन्त जो ।
है कब अन्त सो ।।
सकोचूँ बालक सा ये गुन गुनाना ।
विद्या गुरुवर का त्रिभुवन दिवाना |।१२।।
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
” दोहा”
गुरुवर शिव तक ले चलो,
मेरी अंगुली थाम ।
भूल-भुलैय्या बन चला,
‘सहज-निराकुल’ धाम ।।
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