परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रमांक 79
कुछ न कहने का करता मन ।
तुझे देखते रहने का करता मन ।।
तू इतना सुन्दर जो है,
एक बाहर अन्दर जो है,
एक टक देख भी न भरता मन ।।स्थापना।।
शरण तेरी गद-गद हृदय आया ।
क्षीर सागर, नीर गागर लाया ।।
तुझमें जग से कुछ हटके पाया ।
तुझे सुनते रहने का करता मन ।।
तू इतना सुन्दर जो है,
एक बाहर अन्दर जो है,
एक टक देख भी न भरता मन ।।जलं।।
शरण तेरी गद-गद हृदय आया ।
भाव बाला-चन्दन सँजो लाया ।।
तुझमें जग से कुछ हटके पाया ।
तुझे सुनते रहने का करता मन ।।
तू इतना सुन्दर जो है,
एक बाहर अन्दर जो है,
एक टक देख भी न भरता मन ।।चन्दनं।।
शरण तेरी गद-गद हृदय आया ।
अक्षर सुरत अक्षत अखर लाया ।।
तुझमें जग से कुछ हटके पाया ।
तुझे सुनते रहने का करता मन ।।
तू इतना सुन्दर जो है,
एक बाहर अन्दर जो है,
एक टक देख भी न भरता मन ।।अक्षतं।।
शरण तेरी गद-गद हृदय आया ।
भक्ति साँची श्रृद्धा सुमन लाया ।।
तुझमें जग से कुछ हटके पाया ।
तुझे सुनते रहने का करता मन ।।
तू इतना सुन्दर जो है,
एक बाहर अन्दर जो है,
एक टक देख भी न भरता मन ।।पुष्पं।।
शरण तेरी गद-गद हृदय आया ।
भोग छप्पन नवजात मन लाया ।।
तुझमें जग से कुछ हटके पाया ।
तुझे सुनते रहने का करता मन ।।
तू इतना सुन्दर जो है,
एक बाहर अन्दर जो है,
एक टक देख भी न भरता मन ।।नेवैद्यं।।
शरण तेरी गद-गद हृदय आया ।
खचित मोती अबुझ ज्योती लाया ।।
तुझमें जग से कुछ हटके पाया ।
तुझे सुनते रहने का करता मन ।।
तू इतना सुन्दर जो है,
एक बाहर अन्दर जो है,
एक टक देख भी न भरता मन ।।दीप॑।।
शरण तेरी गद-गद हृदय आया ।
नाम सार्थ सुवर्ण सुगंध लाया ।।
तुझमें जग से कुछ हटके पाया ।
तुझे सुनते रहने का करता मन ।।
तू इतना सुन्दर जो है,
एक बाहर अन्दर जो है,
एक टक देख भी न भरता मन ।।धूपं।।
शरण तेरी गद-गद हृदय आया ।
पिटार फल अपार दृग् जल लाया ।।
तुझमें जग से कुछ हटके पाया ।
तुझे सुनते रहने का करता मन ।।
तू इतना सुन्दर जो है,
एक बाहर अन्दर जो है,
एक टक देख भी न भरता मन ।।फल॑।।
शरण तेरी गद-गद हृदय आया ।
पुलकन अपूरब सब दरब लाया ।।
तुझमें जग से कुछ हटके पाया ।
तुझे सुनते रहने का करता मन ।।
तू इतना सुन्दर जो है,
एक बाहर अन्दर जो है,
एक टक देख भी न भरता मन ।।अर्घं।।
“दोहा”
माँ गुरु मति शिष्या प्रथम,
जिनकी नम्र विनीत ।
गुरु विद्या वन्दूँ तिन्हें,
बनने परम पुनीत ॥
“जयमाला”
पुण्य सदलगा सुवर्ण सुगंधा।
दिखे शरद पूनम दो चन्दा ।।
जग जाहिर इक पास आसमाँ ।
दूज प्रमोद गोद श्री-मत माँ ।।
जश-कृष पिता मलप्पा नन्दा ।
दिखे शरद पूनम दो चन्दा ।।
पुण्य सदलगा सुवर्ण सुगंधा।
दिखे शरद पूनम दो चन्दा ।।
इक ऊपर से करे रोशनी ।
एक आसमाँ नूर औ’ धनी ।।
दर्श मात्र अपहर दुख-तन्द्रा ।
दिखे शरद पूनम दो चन्दा ।।
पुण्य सदलगा सुवर्ण सुगंधा।
दिखे शरद पूनम दो चन्दा ।।
दोनों अमृत झिरायें ऐसे ।
जिह्व एक कह पाऊँ कैसे ।।
चुप जब जिह्व-सहस, नागेन्दा ।
दिखे शरद पूनम दो चन्दा ।।
पुण्य सदलगा सुवर्ण सुगंधा।
दिखे शरद पूनम दो चन्दा ।।
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
“दोहा”
वरद हस्त गुरुदेव का,
रहता जिनके साथ ।
आ अभीष्ट करता स्वयं,
तिन चरणन प्रणिपात ।।
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