परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रमांक-72
मुझसे रूठा सबेरा ।
अंधेरे ने मुझे घेरा ।।
न किसी और का ।
अय ! मेरे गुरु सा ।।
है मुझे सहारा, सिर्फ तेरा ।।स्थापना।।
हँस-हँस बाँधे पूर्व कर्म जो,
बरसा कहर रहे ।
निशि सोते, दिन बन बन कर,
सोते से गुजर रहे ॥
कुछ ऐसा कर दो पा जाऊँ,
मैं कतार हंसी ।
माटी मटकी बन चाले,
बन चले वंश वंशी ।।जल॑।।
दीखे कब ना उत्साही पन,
पाप सुमरने को ।
जग सुधार चाहें हम कब,
तैयार सुधरने को ।।
कुछ ऐसा कर दो पा जाऊँ,
मैं कतार हंसी ।
माटी मटकी बन चाले,
बन चले वंश वंशी ।।चन्दनं।।
आर्त-रौद्र दुर्ध्यानों से,
दृढ़ प्रीत हमारी है ।
परिणति पलक मात्र भी कब,
निज ओर निहारी है ॥
कुछ ऐसा कर दो पा जाऊँ,
मैं कतार हंसी ।
माटी मटकी बन चाले,
बन चले वंश वंशी ।।अक्षतं।।
हम सा कहीं विकारी ना,
मिलने वाला जग में ।
पुद्-गल प्रीत समाई है,
कुछ ऐसी रग रग में ॥
कुछ ऐसा कर दो पा जाऊँ,
मैं कतार हंसी ।
माटी मटकी बन चाले,
बन चले वंश वंशी ।।पुष्पं।।
हमें वासना में भरने में,
लगता समय कहाँ ।
अश्रु चार दे दूँ दीनन,
दिल इतना सदय कहाँ ॥
कुछ ऐसा कर दो पा जाऊँ,
मैं कतार हंसी ।
माटी मटकी बन चाले,
बन चले वंश वंशी ।।नैवेद्यं।।
अंग अंग इस कदर स्वार्थ से,
है तरबतर अहो ।
गहल हमारी लूटे जाये,
निधि कब खबर कहो ॥
कुछ ऐसा कर दो पा जाऊँ,
मैं कतार हंसी ।
माटी मटकी बन चाले,
बन चले वंश वंशी ।।दीप॑।।
कहाँ समझ है इतनी ‘कि,
दूजों को समझ सकें ।
लगता हन्त ! कूप मण्डूकों,
की सी समझ रखें ॥
कुछ ऐसा कर दो पा जाऊँ,
मैं कतार हंसी ।
माटी मटकी बन चाले,
बन चले वंश वंशी ।।धूपं।।
पीछे पछताने की हमें,
पुरानी आदत जी ।
आदत कहाँ डाल पाये,
गुणि-गणन इबादत की ॥
कुछ ऐसा कर दो पा जाऊँ,
मैं कतार हंसी ।
माटी मटकी बन चाले,
बन चले वंश वंशी ।।फल॑।।
खुश फहमी ‘कि हाथ,
समाधि मरण हमारे ओ ।
पार कहाँ वो नाव न छोड़े,
भले किनारे जो ॥
कुछ ऐसा कर दो पा जाऊँ,
मैं कतार हंसी ।
माटी मटकी बन चाले,
बन चले वंश वंशी ।।अर्ध्य॑।।
“दोहा”
भवि ! जिनके सर्वांग से,
करुणा झिरे अपार ।
गुरु विद्या सविनय तिन्हें,
वन्दन बारम्बार ॥
“जयमाला”
दूज शरद पूनम चन्दा ।
माई श्री मन्ती नन्दा ।।
शिख गुरु ज्ञान सिन्ध बनने ।
गुरुकुल कुन्द-कुन्द चुनने ॥
आया लिये सुमन श्रद्धा ।
कर्नाटक से राजस्थाँ ।
दूज शरद पूनम चन्दा ।
माई श्री मन्ती नन्दा ।।
आँखें आईं झरनों में ।
आ रख नजरें चरणों में ।।
करता विनती करबद्धा ।
माई श्री मन्ती नन्दा ।।
शिख गुरु ज्ञान सिन्ध बनने ।
गुरुकुल कुन्द-कुन्द चुनने ॥
आया लिये सुमन श्रद्धा ।
कर्नाटक से राजस्थाँ ।
दूज शरद पूनम चन्दा ।
माई श्री मन्ती नन्दा ।।
बूँद मिला लो सागर में ।
दूध आप, जल पातर मैं ।।
कर लो सद्-गुण समरिद्धा ।
करता विनती करबद्धा ।
माई श्री मन्ती नन्दा ।।
शिख गुरु ज्ञान सिन्ध बनने ।
गुरुकुल कुन्द-कुन्द चुनने ॥
आया लिये सुमन श्रद्धा ।
कर्नाटक से राजस्थाँ ।
दूज शरद पूनम चन्दा ।
माई श्री मन्ती नन्दा ।।
।। जयमाल पूर्णार्घं।।
“दोहा”
नित प्रति जिस बड़भाग को,
मिलती श्री गुरु छाँव ।
कर्म धूप क्या कर सके,
भावी वो शिव-राव ॥
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