परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रमांक 64
पारस पत्थर तो, है पड़ता छुबोना ।
तब कहीं जा कर, लोहा बनता है सोना ।
जादुई चिराग जो, है पड़ता घिसना ।
तब कहीं जाकर, पूरा होता है सपना ।
पर अचरज बड़ा ।
माथा भी चौखट से, न रगड़ना पड़ा ।
बन गया काम मेरा ।
लेते ही नाम तेरा ।।
जयकारा गुरु-देव का…
जय जय गुरु-देव ।।स्थापना।।
अय ! शरण वेवजह ।
लिये जल धुनि मैं ।।
कृपया दे दो हमें ।
अपने चरणों में जगह ।।जलं।।
अय ! शरण वेवजह ।
लिये चन्दन मैं ।
कृपया दे दो हमें ।
अपने चरणों में जगह ।।चन्दनं।।
अय ! शरण वेवजह ।
लिये धाँ कण मेैं ।
कृपया दे दो हमें ।
अपने चरणों में जगह ।।अक्षतं।।
अय ! शरण वेवजह ।
लिये गुल वन मेैं ।
कृपया दे दो हमें ।
अपने चरणों में जगह ।।पुष्पं।।
अय ! शरण वेवजह ।
लिये व्यञ्जन मैं ।
कृपया दे दो हमें ।
अपने चरणों में जगह ।।नेवैद्यं।।
अय ! शरण वेवजह ।
सजल ‘लो’चन मैं ।
कृपया दे दो हमें ।
अपने चरणों में जगह ।।दीप॑।।
अय ! शरण वेवजह ।
लिये अगऽरन मेैं ।
कृपया दे दो हमें ।
अपने चरणों में जगह ।।धूपं।।
अय ! शरण वेवजह ।
लिये फल-‘मन’ मैं ।
कृपया दे दो हमें ।
अपने चरणों में जगह ।।फल॑।।
अय ! शरण वेवजह ।
लिये अनगिन मैं’ ।
कृपया दे दो हमें ।
अपने चरणों में जगह ।।अर्घं।।
“दोहा”
सरवर जो अध्यात्म के,
अद्भुत अपर त्रिलोक ।
गुरु विद्या सागर तिन्हें,
अन्तर्-मन से ढ़ोक ॥
“जयमाला”
वरदानी ।
कल्याणी ।
विद्या गुरु वाणी ।।
अघ हरती ।
निर्मल करती ।
जैसे गंगा पानी ।।
माधुरी ।
मिसरी घुरी ।।
ए जी ! बड़ी सुहानी ।
विद्या गुरु वाणी ।।
दुख हरती ।
सुख कर्तृ ।।
दुनिया तभी दिवानी ।
विद्या गुरु वाणी ।।
वरदानी ।
कल्याणी ।
विद्या गुरु वाणी ।।
अघ हरती ।
निर्मल करती ।
जैसे गंगा पानी ।।
माधुरी ।
धुन बाँसुरी ।
ए जी ! बड़ी सुहानी ।
विद्या गुरु वाणी ।।
दुख हरती ।
सुख कर्तृ ।।
धरती शिव रजधानी ।
विद्या गुरु वाणी ।।
वरदानी ।
कल्याणी ।
विद्या गुरु वाणी ।।
अघ हरती ।
निर्मल करती ।
जैसे गंगा पानी
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
“दोहा”
दया मिरे गुरुदेव की,
क्या ना करे कमाल ।
विनयावत भवि भक्त को,
दे शिव करे निहाल ।।
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