- परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक 599
हाईकू
श्री गुरु दीया, ‘कि लौं लागी,
अंधर बुराई भागी ।।स्थापना।।
कर्तृ जन्मादि रोग-त्रय किनार,
मैं छोड़ूॅं धार ।।जलं।।
ओ ! भवाताप निकन्दन,
चर्णन चर्चूं चन्दन ।।चन्दनं।।
पद-अखण्ड दातार,
धाँ कर लो मेरे स्वीकार ।।अक्षतं।।
ओ ! निर्विकार,
लो स्वीकार,
ये मेरा पुष्प पिटार ।।पुष्पं।।
ओ ! रोग-क्षुधा भंजन,
लो स्वीकार भेंटूॅं व्यंजन ।।नैवेद्यं।।
ओ ! हरतार मोहान्धकार,
दीप ये लो स्वीकार ।।दीपं।।
ओ कर्माष्टक निवार,
धूप ये लो कर स्वीकार ।।धूपं।।
निरंजन !
दृग् सजल भेंटूॅं फल वन-नन्दन ।।फलं।।
पद अनर्घ कर्तार,
अर्घ मेरा ये लो स्वीकार ।।अर्घ्यं।।
हाईकू
वो गुरु,
नाम से जिनके ज़िन्दगी खत्म औ’ शुरु
जयमाला
था ही क्या मेरा,
ये जीवन भी, दिया तेरा,
था ही क्या मेरा,
खुरापाती था ।
माधो-माटी था ।
हर लिया अंधेरा ।
था ही क्या मेरा,
ये जीवन भी, दिया तेरा,
था ही क्या मेरा,
अभागा हहा ।
था जागा कहाँ ।
कर दिया सबेरा ।
था ही क्या मेरा,
ये जीवन भी, दिया तेरा,
था ही क्या मेरा,
हहा था नादाँ ।
पढ़ा न ज्यादा ।
किया बुध घनेरा ।
था ही क्या मेरा,
ये जीवन भी, दिया तेरा,
था ही क्या मेरा,
हहा था जिद्दी ।
और अजनबी भी ।
किया पार बेड़ा ।
था ही क्या मेरा,
ये जीवन भी, दिया तेरा,
था ही क्या मेरा,
।। जयमाला पूर्णार्घं ।।
हाईकू
खुद-सा मुझे लो बना दिलेर,
मैं माटी का शेर
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