परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रमांक 59
जुग-जुग शरण ।
आप जुग-चरण ।।
मिलती रहे हमें ।
कुछ न चाहूँ , और मैं ॥स्थापना॥
बडे़ कलशे ।
भरे जल से ।।
करूँ अर्पण ।
अय ! मेरे भगवन् ।।
जुग-जुग शरण ।
आप जुग-चरण ।।
मिलती रहे हमें ।
कुछ न चाहूँ , और मैं ॥जल॑॥
गंध हटके ।
घट गंध के ।।
करूँ अर्पण ।
अय ! मेरे भगवन् ।।
जुग-जुग शरण ।
आप जुग-चरण ।।
मिलती रहे हमें ।
कुछ न चाहूँ , और मैं ॥चन्दनं॥
गंध फूटे ।
धाँ अनूठे ।।
करूँ अर्पण ।
अय ! मेरे भगवन् ।।
जुग-जुग शरण ।
आप जुग-चरण ।।
मिलती रहे हमें ।
कुछ न चाहूँ , और मैं॥अक्षतं॥
गंध न्यारी ।
नंद क्यारी ।।
करूँ अर्पण ।
अय ! मेरे भगवन् ।।
जुग-जुग शरण ।
आप जुग-चरण ।।
मिलती रहे हमें ।
कुछ न चाहूँ , और मैं ॥पुष्पं॥
थाल विरली ।
न्यार गिर घी ।।
करूँ अर्पण ।
अय ! मेरे भगवन् ।।
जुग-जुग शरण ।
आप जुग-चरण ।।
मिलती रहे हमें ।
कुछ न चाहूँ , और मैं ॥नेवेद्यं॥
तुरत घी का ।
अबुझ दीवा ।।
करूँ अर्पण ।
अय ! मेरे भगवन् ।।
जुग-जुग शरण ।
आप जुग-चरण ।।
मिलती रहे हमें ।
कुछ न चाहूँ , और मैं ॥दीप॑॥
खूब महके ।
घट धूप के ।।
करूँ अर्पण ।
अय ! मेरे भगवन् ।।
जुग-जुग शरण ।
आप जुग-चरण ।।
मिलती रहे हमें ।
कुछ न चाहूँ , और मैं ॥धूपं॥
नैन सीले ।
फल रसीले ।।
करूँ अर्पण ।
अय ! मेरे भगवन् ।।
जुग-जुग शरण ।
आप जुग-चरण ।।
मिलती रहे हमें ।
कुछ न चाहूँ , और मैं ॥फल॑॥
द्रव्य सबरे ।
दिव्य छव ‘रे ।।
करूँ अर्पण ।
अय ! मेरे भगवन् ।।
जुग-जुग शरण ।
आप जुग-चरण ।।
मिलती रहे हमें ।
कुछ न चाहूँ , और मैं ॥अर्घं॥
“दोहा”
जिनका मन करता नहीं,
दें अँगुली गुरु छोड़ ।
श्री गुरु विद्या सिन्धु वे,
नमन तिन्हें बेजोड़ ॥
“जयमाला”
वन्दना, वन्दना, वन्दना ।
श्री-मन्त-नन्दना वन्दना ।।
सदलगा जनम ।
शारद पूनम ।।
मुखड़ा ऐसा चन्द ना ।।
श्री-मन्त-नन्दना वन्दना ।।
वन्दना, वन्दना, वन्दना ।
श्री-मन्त-नन्दना वन्दना ।।
अजमेर नगर ।
घर फेर नजर ।।
गुरु-द्वार केश-लुञ्चना।
श्री-मन्त-नन्दना वन्दना ।।
वन्दना, वन्दना, वन्दना ।
श्री-मन्त-नन्दना वन्दना ।।
नसीरा’बाद’ ।
गुरु ज्ञान समाध ।।
कुन्द-कुन्द लघु-नन्दना ।
श्री-मन्त-नन्दना वन्दना ।।
वन्दना, वन्दना, वन्दना ।
श्री-मन्त-नन्दना वन्दना ।।जयमाला पूर्णार्घं।।
“दोहा”
बिगड़े बनते काम हैं,
देते ही आवाज ।
खाली लौटाना कहाँ,
गुरु दरबार रिवाज ॥
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