- परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक 557
=हाईकू=
पहले प्रभु के,
है गुरु के नाम,
मेरा प्रणाम ।।स्थापना।।
‘भक्ति-सर’ न यूँ ही अवगाहूँ,
श्री समकित चाहूँ ।।जलं।।
‘भक्ति-सर’ न यूँ ही अवगाहूँ,
इति-श्री, मद चाहूँ ।।चन्दनं।।
‘भक्ति-सर’ न यूँ ही अवगाहूँ,
पद अक्षत चाहूँ ।।अक्षतं।।
‘भक्ति-सर’ न यूँ ही अवगाहूँ,
जय मन्मथ चाहूँ ।।पुष्पं।।
‘भक्ति-सर’ न यूँ ही अवगाहूँ,
मुक्ति क्षुध् गद चाहूँ ।।नैवेद्यं।।
‘भक्ति-सर’ न यूँ ही अवगाहूँ,
कृपा शारद चाहूँ ।।दीपं।।
‘भक्ति-सर’ न यूँ ही अवगाहूँ,
कर्म-दुर्गत चाहूँ ।।धूपं।।
‘भक्ति-सर’ न यूँ ही अवगाहूँ,
द्यु-शिव सम्पद् चाहूँ ।।फलं।।
‘भक्ति-सर’ न यूँ ही अवगाहूँ,
नवधा भक्ति चाहूँ ।।अर्घ्यं।।
=हाईकू=
निकला चाँद सूरज से भी दूर,
श्री गुरु नूर
।।जयमाला।।
आते ही गुरुवर
जिन्दगी में
करने निष्फिकर
करने आसाँ सफर
आते ही गुरुवर जिन्दगी में
सँभालने हमें
वैर-गर्त से
वगैर शर्त के निकालने हमें
जरा सा पैर क्या फिसले
ठोकर लगने से पहले
सँभालने हमें
आते ही गुरुवर जिन्दगी में
करने निष्फिकर
आते ही गुरुवर
जिन्दगी में
करने किरके निष्फिकर
करने आसाँ सफर
आते ही गुरुवर जिन्दगी में
सँभालने हमें
पाप दल-दल से
गुजरे और आने वाले कल से
निकालने हमें
जरा सा पैर क्या फिसले
ठोकर लगने से पहले
सँभालने हमें
आते ही गुरुवर जिन्दगी में
करने निष्फिकर
आते ही गुरुवर
जिन्दगी में
करने निष्फिकर
करने आसाँ सफर
आते ही गुरुवर जिन्दगी में
सँभालने हमें
।। जयमाला पूर्णार्घं ।।
=हाईकू=
आप बोलेंगे,
तो गुरु जी अपने-आप बोलेंगे
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