परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रमांक 56
है फरियाद से, न मतलब तुझे ।
याद करना पड़े, न जब-तब तुझे ।।
नजरों के सामने, है पाया तुझे ।
ठोकर लगी जब-जब मुझे ॥स्थापना ॥
निज चैतन्य सदन में झाँका,
करते तुम दिन रात ।
मुकति राधिका घर ले जाना,
ठानी अब बारात ॥
छला गया हा ! पुनि ! पुनि ! फिर भी,
निरखूँ पर घर द्वार ।
जल लाया चरणन, कीजो मन,
मनवा आप निहार ॥ जलं ॥
फल फूलों से लदे वृक्ष सा,
करते तुम उपकार ।
मारे जो पत्थर उसको भी,
दो फल मधुर अपार ॥
मुझे सहन कब हुई और कीं,
हा ! बातें दो चार ।
चन्दन लाया तुम पद दीजो,
सहज प्रशम उपहार ॥चन्दनं॥
सागर में जल सी करुणा का,
पास तिरे भण्डार ।
माना माँ निगोद मिस तूने,
तभी जगत् परिवार ॥
तेरा-मेरा करके मैंने,
किया हाय ! व्यापार ।
अक्षत लाया तुम पद कीजो,
मति निज भाँति उदार ॥अक्षतं॥
पन शर लिये हुये भी मनमथ,
गया आपसे हार ।
परमादन पर तिय कब क्योंकि,
की तुमने गल हार ॥
मगर हुआ मैं मनमथ आगे,
चारों खाने चित्त ।
लाया पुष्प चरण तुम बन जाओ,
श्रेयस्कर मित्र ॥पुष्पं॥
इष्ट मिष्ट गरिष्ट भोजन से,
क्यों कर तुमको प्रीत ।
जिन श्रुत माई मन्थन से तुम,
पाते नित नवनीत ॥
हा ! जिह्वा लोलुप होकर मैं,
तन्दुल मच्छ नुगाम ।
चरु लाया तुम चरणन कीजो ,
परिणति अर अभिराम ॥नैवेद्यं॥
कब गफलत गनीम कर पाया,
थारा तनिक बिगाड़ ।
तुम संगुप्त रहो कच्छप से,
दे कर सभी किवाड़ ॥
मन वच तन त्रय द्वार खोल मैं,
दौड़ूँ मृग की भाँत ।
लाया दीप चरण तुम कीजो,
पल पल हाथ समाध ॥दीप॑॥
विनय मोक्ष का द्वार न पढ़ बस,
लिया-बढ़ा पग आप ।
धड़कन मिस चलती परमोत्तम,
अभ्यन्तर् तप जाप ॥
भय स्वारथ वश हहा ! ओढ़ता,
मैं भी विनय दुशाल ।
लाया धूप चरण तुम कीजो,
निज सा सुबुध मराल ॥धूपं॥
तुम्हें दूसरों की निन्दा में,
आया कब आनन्द ।
षट् पद को मच्छिका भाँति कब,
मल की गन्ध पसन्द ॥
हाय ! श्वान सा मनवा मेरा,
कर लाये मल खोज ।
डाट-डपट दीजो लेकर फल,
अर्चूं चरण सरोज ॥फल॑॥
पास तुम्हारे उसे बाँटते,
भगवन् तुम दिल खोल ।
मनमानी कर कभी ना करते,
मण्डूकों की तोल ॥
हाय ! तोल कर मण्डूकों की,
बड़ा म्हार संसार ।
लाया अरघ चरण तुम कीजो,
पृष्ठ लगा भव पार ॥अर्घं॥
“दोहा”
विजय न पाना क्रोध पे,
अपर क्षमा जो रूप ।
गुरु विद्या वन्दूँ तिन्हें,
होने भाँत अनूप ॥
“जयमाला”
धन-धन ! भव मानव कर लीजे ।
गुरु चरणों की आरति कीजे ।।
तन वस्त्राभरण नगन चाले ।
डर नरक पतन जोवन चाले ।।
हाथों में घृत दीपक लीजे ।
गुरु चरणों की आरति कीजे ।।१।।
कचलोंच करत, न डरत परिषह ।
रह भीतर परसें पुनि पुनि तह ।।
ले श्रद्धा सुमन नयन भींजे ।
हाथों में घृत दीपक लीजे ।
गुरु चरणों की आरति कीजे ।।२।।
तप आतप साध रहे हरसा ।
निशि शिशिर अभ्र, तरु-तल बरसा ।।
हित नैन सजल भीतर तीजे ।
ले श्रद्धा सुमन नयन भींजे ।
हाथों में घृत दीपक लीजे ।
गुरु चरणों की आरति कीजे ।।३।।
“दोहा”
पावन होने की रही,
सरहद जो इह काल ।
पा ली गुरु विद्या तिन्हें,
मेरी ढ़ोक त्रिकाल ॥
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