परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रमांक – 55
ओ’ री सारी दुनिया छोड़ ।
जोड़ी मैनें गुरु से डोर ।।
मेरा पुण्य उदय आया ।
मैनें साँचा गुरु पाया ।।स्थापना।।
सागर-क्षीर नीर गागर ।
भेंटूँ सादर दर आकर ।।
मन मन्दिर उत्सव छाया ।
मैंने सॉंचा गुरु पाया ।।
मेरा पुण्य उदय आया ।
मैनें साँचा गुरु पाया ।।जल॑।।
नन्दन-बाग गन्ध गागर ।
भेंटूँ सादर दर आकर ।।
मन मन्दिर उत्सव छाया ।
मैंने सॉंचा गुरु पाया ।।
मेरा पुण्य उदय आया ।
मैनें साँचा गुरु पाया ।।चन्दनं।।
शालिक धॉं सुगन्ध पातर ।
भेंटूँ सादर दर आकर ।।
मन मन्दिर उत्सव छाया ।
मैंने सॉंचा गुरु पाया ।।
मेरा पुण्य उदय आया ।
मैनें साँचा गुरु पाया ।।तण्डुलं।।
नन्दन-प्रसून मनवा हर ।
भेंटूँ सादर दर आकर ।।
मन मन्दिर उत्सव छाया ।
मैंने सॉंचा गुरु पाया ।।
मेरा पुण्य उदय आया ।
मैनें साँचा गुरु पाया ।।पुष्पं।।
व्यंजन थाल मण-सजाकर ।
भेंटूँ सादर दर आकर ।।
मन मन्दिर उत्सव छाया ।
मैंने सॉंचा गुरु पाया ।।
मेरा पुण्य उदय आया ।
मैनें साँचा गुरु पाया ।।नैवेद्यं।।
दीप खचित मण रत्नाकर ।
भेंटूँ सादर दर आकर ।।
मन मन्दिर उत्सव छाया ।
मैंने सॉंचा गुरु पाया ।।
मेरा पुण्य उदय आया ।
मैनें साँचा गुरु पाया ।।दीप॑।।
धूप अनूप स्वर्ण लाकर ।
भेंटूँ सादर दर आकर ।।
मन मन्दिर उत्सव छाया ।
मैंने सॉंचा गुरु पाया ।।
मेरा पुण्य उदय आया ।
मैनें साँचा गुरु पाया ।।धूप॑।।
फल ऋत-ऋत रस-रस आगर ।
भेंटूँ सादर दर आकर ।।
मन मन्दिर उत्सव छाया ।
मैंने सॉंचा गुरु पाया ।।
मेरा पुण्य उदय आया ।
मैनें साँचा गुरु पाया ।।फलं।।
अर्घ मिलाकर गुण गाकर
भेंटूँ सादर दर आकर ।।
मन मन्दिर उत्सव छाया ।
मैंने सॉंचा गुरु पाया ।।
मेरा पुण्य उदय आया ।
मैनें साँचा गुरु पाया ।।अर्घं।।
“दोहा”
बढ़ जिनके जुग चरण से,
और न कलि शिवधाम ।
गुरु विद्या सविनय तिन्हें,
बारम्बार प्रणाम ॥
“जयमाला”
हाथ घृत दीपक लिये सदैव ।
कीजिये आरतिया गुरुदेव ।।
कब दुठ से भी बोले तीखे ।
श्री गुरु ने राग द्वेष जीते ।
दृग् करुणा, क्षमा, दया तीते ।
गुरुदेव देवता धरती के ।।
ले चलें, पार दूसरे खेव ।
हाथ घृत दीपक लिये सदैव ।
कीजिये आरतिया गुरुदेव ।।१।।
जग सिन्धु दूसरे खारे हैं ।
बिन कारण एक सहारे हैं ।।
परिणाम बाल वत् न्यारे हैं ।
गुरु भगवन् जगह उतारें हैं ।।
इन्हीं के दृग् बस जमुना रेव ।
ले चलें, पार दूसरे खेव ।
हाथ घृत दीपक लिये सदैव ।
कीजिये आरतिया गुरुदेव ।।२।।
चलते फिरते तीरथ गुरुजी ।
दिश् दश विहरे कीरत गुरुजी ।।
मां ममता की मूरत गुरुजी ।
सहजो शिव सत् सुन्दर गुरुजी ।।
सुख निरा-कुल साधन स्वय-मेव ।
इन्हीं के दृग् बस जमुना रेव ।
ले चलें, पार दूसरे खेव ।
हाथ घृत दीपक लिये सदैव ।
कीजिये आरतिया गुरुदेव ।।३।।
“दोहा”
किया जिन्होंने हाथ में,
गुरु का आशीर्वाद ।
हुई पलक में पूर्ण है,
तिनकी हरिक मुराद ॥
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