- परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक 480
हाईकू
‘पा गुरु कृपा’
बना आईना,
साँच-में,
था काँच मैं ।।स्थापना।।
पहुँचे कर्ण-द्वार हृदय पीर,
भेंटूॅं दृग्-नीर ।।जलं।।
शीतल आप पा जाऊँ दो वचन,
भेंटूॅं चन्दन ।।चन्दनं।।
पदवी अब ‘कि पा जाऊँ, शाश्वत,
अक्षत ।।अक्षतं।।
‘के कर सकूँ देह सनेह गुम,
कुसुम ।।पुष्पं।।
द्वार मेरा पा ले तुम्हें पाँव रज,
भेंटूॅं नेवज ।।नैवेद्यं।।
निहारने यूँ ही तुम्हें एक-टक,
भेंटूॅं दीपक ।।दीपं।।
आप भाँति ‘कि होऊँ दर्द-मन्द ,
भेंटूॅं सुगंध ।।धूपं।।
‘के रह सकूँ जागृत हर-पल,
भेंटूॅं श्रीफल ।।फलं।।
रखने फूक-फूक अपने डग,
भेंटूॅं अरघ ।।अर्घ्यं।।
हाईकू
कद-काठी,
हैं उठाते गुरु-देव जी हाथ न ‘कि
जयमाला
यूँ ही हमेशा
तेरी दया की वरषा
होती रहे
धोती रहे
मैल मन के
मैं ले मनके
तेरे नाम के
गुजाएँ लम्हें शाम के
यूँ ही हमेशा
कर कर के थोड़ा-थोड़ा
भव भव में जिसको जोड़ा
फले वो पुण्य ऐसा
‘कि यूँ ही हमेशा
तेरी दया की वरषा
होती रहे
धोती रहे
मैल मन के
मैं ले मनके
तेरे नाम के
गुजाएँ लम्हें शाम के
यूँ ही हमेशा
मैं गैर न तेरा अपना
सिर्फ यही मेरा सपना
अय ! भावी जिनेशा
‘कि यूँ ही हमेशा
तेरी दया की वरषा
होती रहे
धोती रहे
मैल मन के
मैं ले मनके
तेरे नाम के
गुजाएँ लम्हें शाम के
यूँ ही हमेशा
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
हाईकू
रहे नाम पे तेरे जो कुर्वां,
मुझे मिले वो जुवाँ
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