परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक 294
==हाईकू==
विद्या सागर जी
गई खो, दिक्खा दो
राह घर की ।।स्थापना।।
रहा उदक भिंटा,
दीजे गुरु जी ये, दुख मिटा ।।जलं।।
रहा चन्दन भिंटा,
दीजे गुरु जी ये, विघ्न मिटा ।।चन्दनं।।
रहा अक्षत भिंटा,
दीजे गुरु जी ये, विपत् मिटा ।।अक्षतं।।
रहा पहुप भिंटा,
दीजे गुरु जी ये, कुप्-विघटा ।।पुष्पं।।
रहा पकवाँ भिंटा,
दीजे गुरु जी ये, क्षुधा मिंटा ।।नैवेद्यं।।
रहा प्रदीपा भिंटा,
दीजे गुरुजी ये, गुमाँ घटा ।।दीपं।।
रहा सुगंध भिंटा,
दीजे गुरु जी ये, द्वन्द्व मिटा ।।धूपं।।
रहा श्रीफल भिंटा,
दीजे गुरु जी ये, छल मिटा ।।फलं।।
रहा अरघ भिंटा,
दीजे गुरु जी ये, अघ मिटा ।।अर्घ्यं।।
==हाईकू==
‘आ गुरु-गुणगान गातें,
लॉटरी खुले, बताते’
।। जयमाला ।।
सुखकर जयवन्तो ।
दुखहर जयवन्तो ।।
शशि मुख जयवन्तो ।
शिशु रुख जयवन्तो ।।१।।
मन मण जयवन्तो ।
गुण गण जयवन्तो ।।
यति पति जयवन्तो ।
श्रुति रति जयवन्तो ।।२।।
समरस जयवन्तो ।
दिश् दश जयवन्तो ।।
गुरुतर जयवन्तो ।
तरुवर जयवन्तो ।।३।।
अर…नव जयवन्तो ।
गो…रव जयवन्तो ।।
सत्-कृत जयवन्तो ।
जनहित जयवन्तो ।।४।।
जो…वन जयवन्तो ।
लोच…न जयवन्तो
दृग् नम जयवन्तो ।
सर…गम जयवन्तो ।।५।।
।। जयमाला पूर्णार्घं ।।
==हाईकू==
अन्त में यही अर्जी,
कभी आईये मेरे घर भी ।
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