परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक 248
तुम्हीं सब हो,
यहाँ तक ‘कि मेरे,
तम्हीं रब हो ।। स्थापना ।।
भेंटूँ जल,
ओ ! समाँ जल,
कर दो हमें उज्जवल ।। जलं ।।
भेंटूँ चन्दन,
समाँ चन्दन,
हर लूँ जन-मन ।। चंदनं ।।
भेंटूँ शालि धाँ,
समाँ काली अमा
दो मेंट कालिमा ।।अक्षतम् ।।
भेंटूँ सुमन,
समाँ श्रमण-मन !
कीजिये मन ।। पुष्पं ।।
भेंटूँ ‘व्यञ्जन,
स्वर’-सा अनिधन,
कीजिये धन ।। नैवेद्यं ।।
भेंटूँ प्रदीप,
कर लीजिये,
कुछ और समीप ।। दीपं ।।
भेंटूँ धूप,
‘कि, लख सकूँ अनूप,
आत्म स्वरूप ।। धूपं ।।
भेंटूँ फल,
न कर सके विह्वल
और गहल ।। फलं ।।
भेंटूँ अरघ,
न वरपा कहर सके ‘कि अघ ।। अर्घं।।
“हाईकू”
गुरु परम !
जिसका न कोई ,
हो उसके तुम ।
।। जयमाला ।।
गुरु जी थारी जो इक नजर पड़ जाये ।
तो हमारी, पतंग उड़ जाये ।।
खा रही गोटे है ।
उल्टे पग लौटे है ।।
गुरु जी थारी, जो मुस्कान मिल जाये ।
तो हमारी, पतंग उड़ जाये ।।
गुरु जी थारी, जो इक नजर पड़ जाये ।
तो हमारी, पतंग उड़ जाये। ।
थी सुबह की लाली ।
घटा छा गई काली ।।
गुरु जी थारी, जो इक छत्र छाँव मिल जाये ।
तो हमारी, पतंग उड़ जाये ।
गुरु जी थारी, जो इक नजर पड़ जाये ।
तो हमारी, पतंग उड़ जाये ।।
अन्तर् लगे माया ।
अन्धर हहा ! छाया ।
गुरु जी थारी जो पद-धूलि मिल जाये ।
तो हमारी, पतंग उड़ जाये ।।
गुरु जी थारी, जो इक नजर पड़ जाये ।
तो हमारी, पतंग उड़ जाये ।
।। जयमाला पूर्णार्घं ।।
“हाईकू”
क्या ? मालूम न आप को,
सभी भूलें कर माफ दो ।
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