परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक 243
‘जि तारण तरण ।
अकारण शरण ।।
नजर डाल दो ।
लगा पार दो ।। स्थापना ।।
भरे जल घड़े ।
लिये दर खड़े ।।
नजर डाल दो ।
लगा पार दो ।। जलं ।।
गन्ध-घट बड़े ।
लिये दर खड़े ।।
नजर डाल दो ।
लगा पार दो ।। चंदनं ।।
कण-अछत निरे ।
लिये दर खड़े ।।
नजर डाल दो ।
लगा पार दो ।। अक्षतम् ।।
पुष्प सुनहरे ।
लिये दर खड़े ।।
नजर डाल दो ।
लगा पार दो ।। पुष्पं ।।
थाल चरु भरे ।
लिये दर खड़े ।।
नजर डाल दो ।
लगा पार दो ।। नैवेद्यं ।।
दिये मणि जड़े ।
लिये दर खड़े ।।
नजर डाल दो ।
लगा पार दो ।। दीपं ।।
धूप-घट निरे ।
लिये दर खड़े ।।
नजर डाल दो ।
लगा पार दो ।। धूपं ।।
फल निरे-निरे ।
लिये दर खड़े ।।
नजर डाल दो ।
लगा पार दो ।। फलं ।।
वसु द्रव सबरे ।
लिये दर खड़े ।।
नजर डाल दो ।
लगा पार दो ।। अर्घं।।
==दोहा==
बिगड़ रहा था देर से,
था बन रहा न काम ।
नाम आप ज्यों ही लिया,
त्यों ही बना, प्रणाम ।।
।। जयमाला ।।
ये है क्या जादू-टोना ।
पा तुझे न चाहूँ खोना ।।
वन-वन माफिक वन-चन्दन ।
ओ ! माँ श्री मन्ती नन्दन ।।
क्यों लगता अरे ! कहो ना ।
फीका तुम आगे सोना ।।
ये है क्या जादू-टोना ।
पा तुझे न चाहूँ खोना ।।
जग-सारे एक सहारे ।
दृग् पिता-मल्लप्पा तारे ।।
काहे मन-चपल खिलौना ।
लख तुम्हें, ले पकड़ कोना ।।
ये है क्या जादू-टोना ।
पा तुझे न चाहूँ खोना ।।
दिल-नेक रू सीधे-सादे ।
गुरु ज्ञान सिन्धु सहजादे ।।
को ? तिरे-सामने जो ना ।
आ रोवे अपना रोना ।।
ये है क्या जादू-टोना ।
पा तुझे न चाहूँ खोना ।।
जयमाला पूर्णार्घं
==दोहा==
इक इक करके हो गईं ,
त्रुटि सम सागर-नीर ।
फेर सभी पे दीजिये,
करके कृपा लकीर ।।
Sharing is caring!