परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक 231
मैं आकुल-व्याकुल ।
हैं आप निराकुल ।।
कर निज-सा लीजे ।
घर निज-सा कीजे ।। स्थापना।।
मैं पुलिन्दा खता !
हैं आप देवता ।।
कर निज सा लीजे ।
घर निज सा कीजे ।। जलं ।।
मैं तरबतर गुमां ।
हैं आप रहनुमा ।।
कर निज सा लीजे ।
घर निज सा कीजे ।। चंदनं ।।
मैं पाप-सरगना ।
हैं आप दृढ़मना ।।
कर निज सा लीजे ।
घर निज सा कीजे ।। अक्षतम् ।।
मैं हद विकार की ।
हैं आप पारखी ।।
कर निज सा लीजे ।
घर निज सा कीजे ।। पुष्पं ।।
मैं परेशाँ क्षुधा ।
हैं आप ज्ञाँ-सुधा ।।
कर निज सा लीजे ।
घर निज सा कीजे ।। नैवेद्यं ।।
मैं आलय-आमय ।
हैं आप निरामय ।।
कर निज सा लीजे ।
घर निज सा कीजे ।। दीपं ।।
मैं आस्पद-आपद ।
हैं आप निरापद ।।
कर निज सा लीजे ।
घर निज सा कीजे ।। धूपं ।।
मैं पात्र हंसी का ।
हैं आप मसीहा ।।
कर निज सा लीजे ।
घर निज सा कीजे ।। फलं ।।
मैं पाप-के रस्ते ।
हैं आप फरिश्ते ।।
कर निज सा लीजे ।
घर निज सा कीजे ।। अर्घं ।।
==दोहा==
नजर उठा गुरुदेव जी,
क्या देखें इक बार ।
आता सा लगने लगे,
भव-सागर का पार ।।
।। जयमाला ।।
ज्ञान गुरु नैन सितारे ।
न एक गुण नेक तिहारे ।।
ये जो मुस्कान है तुम्हारी ।
थकन वो ले विहर हमारी ।।
दे लगा सितम-तम-मातम एक किनारे ।।
न एक गुण नेक तिहारे ।
ज्ञान गुरु नैन सितारे ।
न एक गुण नेक तिहारे ।।
ये जो छत्रछाँव है तुम्हारी ।
करे भराव घाव बलिहारी ।।
दे भर सवाली झोली खाली चाँद सितारे ।
न एक गुण नेक तिहारे ।
ज्ञान गुरु नैन सितारे ।
न एक गुण नेक तिहारे ।।
ये जो मुद्रा-अभय तुम्हारी ।
ले विहर डर-फिकर ये सारी ।।
दे दिखा दिव-शिव के भी नजारे ।
न एक गुण नेक तिहारे ।
ज्ञान गुरु नैन सितारे ।
न एक गुण नेक तिहारे ।।
।। जयमाला पूर्णार्घं।।
==दोहा==
अन्त अन्त में आपसे,
सिर्फ यही फरियाद ।
हर-क्षण यूँ ही आपका,
पाऊँ मुखप् प्रसाद ।।
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