परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक 218
नहिं और निराकुल इनसा ।
यहिं इक पूरण ऽखिल मंशा ।।
गुरु ज्ञान कलाकृति न्यारी ।
स्वीकारो ढ़ोक हमारी ।। स्थापना ।।
हैं नीले-नीले नयना ।
मीठे-मीठे से वयना ।।
गुरु ज्ञान कलाकृति न्यारी ।
स्वीकारो, जल की झारी ।। जलं ।।
है अधर बिम्ब के फल से ।
जुग कर्ण लोल सुन्दर से ।।
गुरु ज्ञान कलाकृति न्यारी ।
स्वीकारो, चन्दन झारी ।। चंदनं ।।
पाँखुरी पद्म सी पलकें ।
चिकनी घुँघराली अलकें ।।
गुरु ज्ञान कलाकृति न्यारी ।
स्वीकारो, कण-धाँ-शाली ।। अक्षतम् ।।
है स्वर्ण सरीखी काया ।
नूरानी काया-छाया ।।
गुरु ज्ञान कलाकृति न्यारी ।
स्वीकारो, पुष्प-पिटारी ।। पुष्पं ।।
है गोल-कपोल निराले ।
नख, नख शिख शशि छवि वाले ।।
गुरु ज्ञान कलाकृति न्यारी ।
स्वीकारो, चरु मनहारी ।। नैवेद्यं ।।
गज-रेखा बड़ी सलोनी ।
उर माफिक कोमल लोनी ।।
गुरु ज्ञान कलाकृति न्यारी ।
स्वीकारो, दीवा-थाली ।। दीपं ।।
गुल चम्पक सी नासा है ।
माथा गिरि परिभाषा है ।।
गुरु ज्ञान कलाकृति न्यारी ।
स्वीकारो, धूप निराली ।। धूपं ।।
गल शंखावर्त सरीखा ।
है बाहु जुगल भी नीका ।।
गुरु ज्ञान कलाकृति न्यारी ।
स्वीकारो, फल मृदु क्यारी ।। फलं ।।
पग तलियाँ अहा गुलाबी ।
भ्रूएँ सुरधनु पे हावी ।।
गुरु ज्ञान कलाकृति न्यारी ।
स्वीकारो, वसु द्रव सारी ।। अर्घं ।।
।। दोहा ।।
सुन, छू चौखट आपकी,
मनवा जाये झूम ।
आया, कर लीजे मुझे,
मुनि मन सा मासूम ।।
।। जयमाला ।।
वर्तमान भगवन्त ।
विद्यासागर सन्त ।।
ऋषि संस्कार शाला ।
कृषि, गो, शाला, बाला ।।
हित इन बने बसन्त ।
विद्यासागर सन्त ।।
वर्तमान भगवन्त ।
विद्यासागर सन्त ।।
पश्चिमी हवा आई ।
लेने दम पुरवाई ।।
संस्कृति पुरा सामन्त ।
विद्यासागर सन्त ।।
वर्तमान भगवन्त ।
विद्यासागर सन्त ।।
हतकरघा संजीवा ।
संस्थलि-प्रतिभा नींवा ।।
देश-विदेश-महन्त ।
विद्यासागर सन्त ।।
वर्तमान भगवन्त ।
विद्यासागर सन्त ।।
पर-पीर न लख पाते ।
दृग्-नीर झलक आते ।।
अनन्त-करुणा-वन्त ।
विद्यासागर सन्त ।।
वर्तमान भगवन्त ।
विद्यासागर सन्त ।
।। जयमाला पूर्णार्घ्य ।।
==दोहा==
यही प्रार्थना आपसे,
हाथ जोड़ सिर टेक ।
हाथ मिरे भी खींच दो,
मिलन-शिष्य गुरु रेख ।।
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