परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक 184
होता पलक भी,
झलक तेरी पाना।
खुशी का मेरी,
न रहता ठिकाना ।। स्थापना ।।
छाँव ‘तर’ सर और छाते ।
सदा मिलते मुस्कुराते ।।
नीर लेके शरण आया ।
रहें यूँ ही छत्र छाया ।। जलं ।।
मान इनको कहाँ छूता ।
ज्ञान इनका है अनूठा ।।
लिये चन्दन शरण आया ।
रहें यूँ ही छत्र छाया ।। चंदनं ।।
लोभ से ये हैं अछूते ।
आसमां बस यही छूते ।।
लिये अक्षत शरण आया ।
रहें यूँ ही छत्र छाया ।। अक्षतम् ।।
नेह माया गया है खो ।
देह हैं क्या ? जरा देखो ।।
पुष्प लेके शरण आया ।
रहें यूँ ही छत्र छाया ।। पुष्पं ।।
नहीं चुगली वैन चखते ।
रैन पिछली शैन करते ।।
लिये व्यंजन शरण आया ।
रहें यूँ ही छत्र छाया ।। नैवेद्यं ।।
दीन पे ना कभी हँसते ।
मीन से ना कभी फँसते ।।
दीप लेके शरण आया ।
रहें यूँ ही छत्र छाया ।। दीपं ।।
काम की सब बात करते ।
दाम की कब बात करते ।।
धूप लेके शरण आया ।
रहें यूँ ही छत्र छाया ।। धूपं ।।
जीत पा लें, फेर चाबी ।
और ना हाजिर जवाबी ।।
लिये ऋतु फल शरण आया ।
रहें यूँ ही छत्र छाया ।। फलं ।।
पिछि कमण्डल हाथ इनके ।
तिय न मण्डल साथ इनके ।।
अर्घ लेके शरण आया ।
रहें यूँ ही छत्र छाया ।। अर्घं ।।
==दोहा==
गुरु की मिल जाये मुझे,
मीठी गर मुस्कान ।
स्वर्ग धरा की बात क्या,
वारूँ पद निर्वाण ।।
॥ जयमाला ॥
हो जर्रा-सा, तो दूँ चुका ।
तिरे उपकार का न पार दिखा ।।
चल थी रही हवा पश्चिमी ।
हिल थी रही नौनिहाल जमीं ।।
रखी नींव जो प्रतिभा संस्थली ।
पुनः लो खिली मुरझाई कली ।।
हो जर्रा-सा, तो दूँ चुका ।
तिरे उपकार का न पार दिखा ।।
चल थी रही हवा पश्चिमी ।
हिल थी रही नौजवान जमीं ।।
करघे की तुमने जो पहल की ।
बेरोजगारी छू, छू भुखमरी ।।
हो जर्रा-सा, तो दूँ चुका ।
तिरे उपकार का न पार दिखा ।।
चल थी रही हवा पश्चिमी ।
हिल थी रही बेजुबान जमीं ।।
गोशाला दी खुलवा जो हर जगह ।
कट न रहे अब पशु बेवजह ।।
हो जर्रा-सा, तो दूँ चुका ।
तिरे उपकार का न पार दिखा ।।
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
==दोहा==
इस भव में नहिं आपके,
चुक सकते उपकार ।
जहाँ जा रहे तुम वहाँ,
ले चलना हर बार ॥
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