परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक 179
न निराकुल इनसा ।
दरिया दिल इंसाँ ।।
मसीहा अहिंसा ।
सम्पूरो मंशा ।। स्थापना ।।
लाये आ चल जल ।
अपहरने छल-पल ।।
विद्या सागर ओ ।
छल सभी विहर लो ।। जलं ।।
लाये घिस चन्दन ।
अपहरने क्रन्दन ।।
विद्या सागर ओ ।
वन-रुदन विहर लो।। चंदनं ।।
लाये अछत,अछत ।
अपहरने पद-छत ।।
विद्या सागर ओ ।
कपि गफलत हर लो ।। अक्षतम्।।
लाये सुमन सुमन ।
अपहरने छुटपन ।।
विद्या सागर ओ ।
मति मराल कर लो ।। पुष्पं।।
लाये व्यंजन घृत ।
अपहरने क्षुध् गद् ।।
विद्या सागर ओ ।
विदा क्षुधा कर दो ।। नैवेद्यं ।।
लाये दीवा घी ।
अपहरने धी ‘ही’ ।।
विद्या सागर ओ ।
आदर ‘भी’ भर दो ।। दीपं ।।
लाये सुगंध घट ।
अपहरने संकट ।।
विद्या सागर ओ ।
शिव नागर कर दो ।। धूपं ।।
लाये ऋतु-ऋतु फल ।
अपहरने अटकल ।।
विद्या सागर ओ ।
उर साहस भर दो।। फलं ।।
लाये सरब, दरब ।
अपहरने अब-तब ।।
विद्या सागर ओ ।
सु-मरण कर-कर दो ।। अर्घं।।
==दोहा==
गुरु की नजरों में अहो,
रहता जादू मीत ।
पड़ते ही, हारी हुई,
बाजी जाते जीत ।।
॥ जयमाला ॥
देखो, वो देखो, खो माया गई ।
गुरु जी जो मिल, अशीष छाया गई ।।
आया जमीं था, ‘कि रोने लगा ।
पाया सभी ये क्या खोने लगा ।।
मिली चीज जो भी थी मुँह में रखी ।
यूँ फिर से सपने सजोने लगा ।|
देखो, वो देखो, खो माया गई ।
गुरु जी जो मिल, अशीष छाया गई ।।
किससे छुपा मधु माँखी करम ।
किससे छुपा शिशु काकी भरम ।।
गहल कहीं ‘शुक’ तो कहीं ‘वानरी’ ।
किससे छुपा पशु-पाखी धरम।।
देखो, वो देखो, खो माया गई ।
गुरु जी जो मिल, अशीष छाया गई ।।
जड़ वृक्ष की उस तरफ बढ़ चली ।
थी जिस तरफ कंचन कंकण गली ।।
एक नहीं हर-इक की हालत यहीं ।
चींटी लिये वो दुगुण गुड़ डली ।।
देखो, वो देखो, खो माया गई ।
गुरु जी जो मिल अशीष छाया गई ।।
।। जयमाला पूर्णार्घं ।।
==दोहा==
गुरुवर के उपकार की,
क्या बतलायें बात ।
बात-बात में आप ही,
लग जाये सब हाथ ।।
Sharing is caring!