परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन `क्रंमाक – 157
रग रग ऐसे बसी निराकुलता ।
नमक नीर में जैसे घुल मिलता ।।
वे गुरु ज्ञान सिन्धु नयनन-तारे ।
तर टोटे, कर दें वारे न्यारे ।। स्थापना ।।
जान हेत संक्लेशों का, लड़ना ।
पानी जैसा सीख लिया मुड़ना ।।
वे गुरु ज्ञान सिन्धु नयनन-तारे ।
लाये हैं जल-गुण भेंटें सारे ।। जलं ।।
बचना चूँकि निर्जन क्रंदन से ।
महक दे रहे घिस भी चंदन से ।।
वे गुरु ज्ञान सिन्धु नयनन-तारे ।
लाये चन्दन गुण भेंटें सारे ।। चन्दनं ।।
अक्षत भाँति न दुनिया फिर आना ।
जमीं बिछौना किया गगन वाना ।।
वे गुरु ज्ञान सिन्धु नयनन-तारे ।
लाये अक्षत-गुण भेंटें सारे ।। अक्षतम् ।।
बीच शूल फूलों सा मुस्काने ।
मन्मथ छाती खड़े तीर ताने ।।
वे गुरु ज्ञान सिन्धु नयनन-तारे ।
लाये पहुपन-गुण भेंटें सारे ।। पुष्पं ।।
पाने व्यंजन सी मिठास खासी ।
गफलत ओढ़, न करा रहे हाँसी ।।
वे गुरु ज्ञान सिन्धु नयनन-तारे ।
लाये व्यंजन-गुण भेंटें सारे ।। नैवेद्यं ।।
बनना जो है अबकि नन्त धी वाँ ।
खबर ले रहे अँधर बन दीवा ।।
वे गुरु ज्ञान सिन्धु नयनन-तारे ।
लाये दीवा-गुण भेंटें सारे ।। दीपं ।।
होने अधिपति अष्टम वसुंधरा ।
महका रहे धूप से गगन धरा ।।
वे गुरु ज्ञान सिन्धु नयनन-तारे ।
लाये सुगन्ध-गुण भेंटें सारे ।। धूपं ।।
तरु से दे फल रहे उपल बदले ।
रहना भाँति न कल-से अब गंदले ।।
वे गुरु ज्ञान सिन्धु नयनन-तारे ।
लाये ऋतु फल-गुण भेंटें सारे ।। फलं ।।
नभ पहुँचे लख कुछ साथी अपने ।
निरत पूरने में अपने सपने ।।
वे गुरु ज्ञान सिन्धु नयनन-तारे ।
लाये वसु द्रव-गुण भेंटें सारे ।। अर्घं।।
“दोहा”
‘मिले हाथ’ आ गावते,
गुरु-गुण देकर-ताल ।
‘जाने’ लेने के लिये,
आ धमके कब काल ॥
॥ जयमाला ॥
॥ जय-जय-जय-गुरुदेव ॥
ध्वनि सबसे प्यारी ।
ध्वनि जग से न्यारी ।।
ध्वनि इक विहर कुटेव ।
जय-जय-जय-गुरुदेव ॥
ध्वनि संकट हारी ।
ध्वनि मंगल कारी ।।
ध्वनि इक विहर फरेब ।
जय-जय-जय-गुरुदेव ॥
ध्वनि प्रद खुशहाली ।
ध्वनि निशि उजियाली ।।
ध्वनि इक हर दुर्दैव ।
जय-जय-जय-गुरुदेव ॥
ध्वनि दुख हर न्यारी ।
ध्वनि सुख करतारी ।।
ध्वनि इक अपहर ऐव ।
जय-जय-जय-गुरुदेव॥
ध्वनि शुभ अवतारी ।
ध्वनि शुभ्र अहा ‘री ।।
ध्वनि इक तारक खेव ।
जय-जय-जय-गुरुदेव ॥
।।जयमाला पूर्णार्घ।।
“दोहा”
यही प्रार्थना आपसे,
गज रेखा भरतार ।
धड़कन-धड़कन दो बसा,
सनेह शाकाहार ॥
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