परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 113
लो लख इक नजर उठाकर ।
नीरज सूरज सा आकर ।।
रत्नाकर, ज्ञान-दिवाकर ।
जय जय गुरु विद्या-सागर ।। स्थापना ।।
भरकर जल निर्मल गागर ।
भेंटूँ समकित हित सादर ।।
समता-धर, ज्ञान-दिवाकर ।
जय जय गुरु विद्या-सागर ।।जलं ।।
भरकर रज मलयज गागर ।
भेंटूँ पद रज हित सादर ।।
गुण-आगर, ज्ञान-दिवाकर ।
जय जय गुरु विद्या-सागर ।। चन्दनं ।।
धोकर सित अक्षत लाकर ।
भेंटूँ थिर-पद हित सादर ।।
श्रुत सागर, ज्ञान-दिवाकर ।
जय जय गुरु विद्या-सागर।।अक्षतम्।।
चुनकर गुल-थाल सजाकर ।
भेंटूँ व्रत-धृत हित सादर ।।
आपा-धर, ज्ञान-दिवाकर ।
जय जय गुरु विद्या-सागर |।पुष्पं ।।
तर-घृत पकवान बनाकर ।
भेंटूँ जित-क्षुध् हित सादर ।।
सुखदा ऽपर, ज्ञान-दिवाकर ।
जय जय गुरु विद्या-सागर।।नैवेद्यं ।।
घृत संभृत दीपक लाकर ।
भेंटूँ श्रुत-सुत हित सादर ।।
नित-जागर, ज्ञान-दिवाकर ।
जय जय गुरु विद्या-सागर ।। दीपं ।।
घट धूप सोधकर लाकर ।
भेंटूँ अरिहत हित सादर ।।
शिव-नागर, ज्ञान-दिवाकर ।
जय जय गुरु विद्या-सागर ।। धूपं ।।
फल निकर मधुर-तर लाकर ।
भेंटूँ शिव-पद हित सादर ।।
अमि-सागर, ज्ञान-दिवाकर ।
जय जय गुरु विद्यासागर ।। फलं ।।
संस्कृत वसु द्रव्य सजाकर ।
भेंटूँ अमरित हित सादर ।।
अजरामर, ज्ञान-दिवाकर ।
जय जय गुरु विद्या-सागर ।।अर्घं।।
==दोहा==
कछुआ जिनसे पा गया,
कला अंग संगोप ।
गुरु विद्या गत-कोप वे,
करें ‘चपल-पन’ लोप ।।
॥ जयमाला ॥
।। बाँह पसार खड़े अपनाने ।।
स्वर्ण करे, मणि-पारस माना ।
जीव सभी लख सिद्ध समाना ।।
जुटे कनक-कण भेद मिटाने ।
बाँह पसार खड़े अपनाने ।।
कौन न पग पाहन ठकुराये ।
सिर्फ शिल्पि दृग् लख प्रभु पाये ।।
जुट साक्षात् गये प्रगटाने ।
बाँह पसार खड़े अपनाने ।।
जग कब शीर्ष भिजाना आसाँ ।
वो भी बिन छल-छिद्र-ऽभिलाषा ।।
लगे बाँसुरी बांस बनाने ।
बाँह पसार खड़े अपनाने ।।
खानि न दे यूँ ही दे सोना ।
वक्त गवाना पड़े सलोना ।।
ढ़ेर मिट्टी का लगे हटाने ।
बाँह पसार खड़े अपनाने ।।
कीमत ही क्या काँच शकल की ।
ये क्या ? दिखने लगी शक्ल की ।।
दिया पठा अनमोल घराने।
बाँह पसार खड़े अपनाने ।।
।।जयमाला पूर्णार्घ्य।।
==दोहा==
आँख उठा गुरुदेव ने,
लिया जिसे भी देख ।
भाग्यवान दूजा नहीं,
वो लाखों मैं एक ।।
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