परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 107
निरे निराकुल यही ।
खोज लिया हर कहीं ।।
यही सभी ने कही ।
सिर्फ इन्हीं से यही।।स्थापना।।
कहाँ धीर साथ में ।
लिये नीर हाथ मैं ।।
विद्या गुरु-देव जी ।
सँभालिये सदैव ही ।।जलं।।
पन स्वछंद साथ में ।
लिये गन्ध हाथ मैं ।।
विद्या गुरु-देव जी ।
सँभालिये सदैव ही ।। चंदनं।।
गरम बात बात में ।
लिये अछत हाथ मैं ।।
विद्या गुरु-देव जी ।
सँभालिये सदैव ही ।।अक्षतम्।।
कहाँ सुकूँ साथ में ।
लिये प्रसूँ हाथ मैं ।।
विद्या गुरु-देव जी ।
सँभालिये सदैव ही ।।पुष्पं।।
हा ! गुरुर हाथ में ।
लिये चरु-परात मैं ।।
विद्या गुरु-देव जी ।
सँभालिये सदैव ही ।।नैवेद्यं।।
गरीबा अनाथ मैं ।
लिये दीव हाथ में ।।
विद्या गुरु-देव जी ।
सँभालिये सदैव ही ।।दीपं।।
भेक-कूप नाथ ! मैं ।
लिये धूप हाथ में ।।
विद्या गुरु-देव जी ।
सँभालिये सदैव ही ।।धूपं।।
चपल प्रात-रात मैं ।
लिये फल परात में ।।
विद्या गुरु-देव जी ।
सँभालिये सदैव ही ।।फलं।।
स्वप्न अनघ साथ में ।
लिये अरघ हाथ मैं ।।
विद्या गुरु-देव जी ।
सँभालिये सदैव ही ।।अर्घं।।
==दोहा==
गुरुवर ने जिसकी अहो,
बाग-डोर ली थाम ।
सहजो सन् मृत्यु लिखी,
उसने अपने नाम ।।
॥ जयमाला ॥
था, अब ‘कि तब, बुझा जिया दिया ।
जो, ज्योति दे उसे, मुझे जिला दिया।।
शुक्रिया तिरा शुक्रिया ।
शुक्रिया तिरा शुक्रिया।।
थी भिजाई अन्धकार ने पवन ।
मौत ही थी दूसरी आई बन ।।
जो, ओट दे उसे, मुझे जिला दिया ।
शुक्रिया तिरा शुक्रिया ।
शुक्रिया तिरा शुक्रिया ।।
हाय राम ! वक्त ने ये क्या किया |
वर्तिका कुतर दी, तेल पी लिया ।।
जो, लौट दे उसे, मुझे जिला दिया ।
शुक्रिया तिरा शुक्रिया ।
शुक्रिया तिरा शुक्रिया।।
मेघ थे लगे मुनादी पीटने ।
मचल रहा अन्धकार जीतने ।
परकोट दे उसे, मुझे जिला दिया ।।
शुक्रिया तिरा शुक्रिया ।
शुक्रिया तिरा शुक्रिया ।।
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
==दोहा==
जिन्हें पल पलक मिल रही,
श्री गुरुवर की छाँव ।
रुको ! रुको ! तिन से कहे,
यही ठाव शिव गाँव ।।
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