परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 104
इक यही निराकुल हैं ।
गुरु ज्ञान बाग गुल हैं ।।
ओ ! गुरु विद्या सागर ।
अपना लो करुणा कर ।।स्थापना।।
संशोधन कर जल का ।
फिर भर मणिमय कलशा ।।
आये हम आप शरण ।
हित अन्त समाधि मरण ।।जलं।।
त्रिभुवन जन मनहारी ।
भर कर चन्दन झारी ।।
आये हम आप शरण ।
हित निरसन जमन मरण ।।चन्दनं।।
छत्रच्छाया पाने ।
ले अछत अछत दाने ।।
आये हम आप शरण ।
हित केवल ज्ञान किरण ।।अक्षतं।।
सुरभित प्रफुल्ल अच्छे ।
चुन पुष्पों के गुच्छे ।।
आये हम आप शरण ।
हित मन मानिन्द श्रमण |।पुष्पं।।
रस दार बने घी के ।
‘कर’ कर व्यंजन नीके ।।
आये हम आप शरण ।
निवसा लो निकट चरण ।।नैवेद्यं।।
घृत आठ पहर वाला ।
ले दीवों की माला ।।
आये हम आप शरण ।
बैठा लो मुकति तरण।।दीपं।।
ले धूप नूप प्यारी ।
दृग्-नासा गुण-कारी ।।
आये हम आप शरण ।
हों पाचों वशी-‘करण’ ।।धूपं।।
ऋतु फल बढ़िया-बढ़िया ।
भर हाथ परात लिया ।।
आये हम आप शरण ।
हित दुख संसार क्षरण ।।फलं।।
गा झूम बजा ताली ।
वसु द्रव्य लिये थाली ।।
आये हम आप शरण ।
खे दो उस पार तरण ॥अर्घं।।
==दोहा==
गुरु चरणों में रख दिया,
जिनने अपना माथ ।
मरण समाधि आ गया,
समझो उनके हाथ ॥
॥ जयमाला ॥
थे जमीं, पा गये आसमाँ ।
लाजमी इक हमीं भागवाँ ॥
नमो नम: ओ ! बागवाँ नमो नम: ।
नमो नम: गुरु-बागवाँ नमो नम: ॥
साँस भी, ले अभी न, पाये थे अये ।
आ यहीं पे, कहीं से, ‘कि परिन्दे गये ॥
शुक्रिया, जो दिया था, आपने उड़ा ।
काल के, जाल से, था लिया छुड़ा ॥
थे जमीं, पा गये आसमाँ ।
लाजमी, इक हमीं भागवाँ ॥
देख-रेख आपकी ‘कि बन शिशु गये ।
किन्तु ये, क्या हुआ, लो आ पशु गये ॥
शुक्रिया, जो दिया था, आपने भगा ।
काल-भाल, दी थी फिर, कालिमा लगा ॥
थे जमीं, पा गये आसमाँ ।
लाजमी, इक हमीं भागवाँ ॥
आपकी कृपा रही जो, बन गये कि यूँ ।
चले लहर, हिमानी, तूफानी, कभी लू ॥
कर न पा रहे बिगाड़, मिल के सभी ही ।
क्योंकि छत्र-छाँव आप, हम पे अभी भी ॥
थे जमीं, पा गये आसमाँ ।
लाजमी, इक हमीं भागवाँ ॥
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
==दोहा==
कब एकाद, हैं आपके,
हम पे अहसाँ नन्त ।
तो भी कम, सेवा करूँ,
इक क्या, जन्म अनन्त ॥
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