“राज-गुरु”
एक पहुँचे हुये राज-गुरु थे । राजे-महाराजे अपने राजकुमारों को पढ़ने के लिये उनके पास भेजते थे । लेकिन एक दिन की बात है, एक गरीब माई, जिसके बच्चे के पिता अचानक हृदय की धड़कन थम जाने से स्वर्गलोक सिंधार गये थे, कुछ ही समय पहले । आई और राज-गुरु से प्रार्थना करने लगी, भगवन् ! मैं जानती हूँ, मेरी हैसियत क्या है, मैं अपने बच्चे का भविष्य भी देख रही हूँ, ‘कि दूर-दूर अंधकार के अलावा कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है । भगवन् ! सिर्फ हमारे पास समर्पण है, श्रद्धा-सुमन हैं, वही आपको समर्पित करती हूँ, और यह आँखों का पानी है, जो इस बच्चे के पिता जी के जाने के बाद रह-रह के बह निकलता है, उससे आपके दोनों चरण कमलों का प्रक्षालन करती हूँ, और सिर्फ-एक, सिर्फ-एक अनुनय विनय करती हूँ, ‘कि भगवन् ! राजे-रजवाड़े-वाले अपने गुरुकुल में, मेरे नन्हें से फूल को भी, थोड़ी सी जगह देकर कृतार्थ करें, सुना है ‘कि आप बड़े दयालु हैं, करुणामयी हैं । आँखों को नम रखने वाले हैं । कभी अपने दरबार से, किसी भी सवाली को, आपने खाली झोली नहीं लौटाया । भगवन् ! मेरे दामन में भी खुशिंयाँ डाल, चार-चाँद मेरी चुनरी में टक सके, ऐसा वरदान दीजिये । मैं जन्म-जन्मान्तर आपकी ऋणि रहूॅंगी ।
राज-गुरु बोले…देवि ! कोई भी अमीर-गरीब नहीं होता, ये तो बाहरी आँखों का लेखा-जोखा है । जिस-के पास भी-तर आँख है, उसके लिये सभी एक जैसे भगवन् आत्मा हैं । तुम अपनी आँखों से इन मोतियों को व्यर्थ मत ढ़ोलों । भगवन् की भक्ति करते समय काम आयेंगे । भगवन् पर पूरा भरोसा रखों… भगवन् एक रास्ता बंद करने के पहले दूसरा रास्ता खोल देते हैं, हमें ही जाके धकाना पड़ता हैं, अटका हुआ दरवाज़ा । यदि हम अकर्मण्य बन जाते हैं, तो कमी हमारी तरफ से रही, भगवन् तो सबका भला सोचते हैं । अब सुनो, तुम सहज-निराकुल रहो, मैं इस प्रस्तर को ईश्वर बनाने में कोई भी कमी न रखूँगा ।
अब कथा आगे कहती है, गुरुदेव ने स्वच्छ विनिर्मल जैसे आकाश से धवल पानी की धारा झिर लग झिरती है । वैसी अनवरत दिन-रात पल-पल बरसाई । अपना-अपना नियोग नीम में जा कड़वी…गन्ने में जा मिसरी… नाग के मुख में जा विषैली…सीप की गोद पा, मोती बनती है,
जैसे धारा… वैसे सभी बच्चों ने अपनी-अपनी योग्यानुसार शिक्षा ग्रहण की । सभी चोटी के विद्वान बन चले । आखिर वो दिन आ ही गया, जब बच्चे गुरुकुल से विदाई लेते हैं ।
अहम् तो राजकुमारों को विरासत में मिलता है । बिना प्रयास के, हाँ अर्हम् प्रयास-साध्य…किसी-किसी को उपलब्ध होता है । राजा अपने राजसी-वैभव के साथ आया । राजकुमारों ने कहा पिता जी, गुरु-देव को दक्षिणा में उनकी तौल के बराबर सोना-चाँदी, हीरे-मोती देने की हम लोगों की भावना है, जिससे गुरुदेव अब अपना समय राज-भोगों के साथ बितायें…उन्हें इस कुटिया में किसी को पढ़ा-लिखा के आजीविका न चलानी पड़े । पिता जी ने हामी भर दी, और गुरु जी ने ली हल्की सी मुस्कान…
और मन-ही-मन सोचा, बच्चों को राज की बात फिर दुहरा देते हैं । राज की बात क्या है, थोड़ा सा राज रखते है ।
कहानी आगे कहती है, एक दिव्य तराजू लाया गया, जिसके एक पलड़े पर गुरुदेव को बिठाया गया, दूसरे पर सोना-चाँदी रक्खा जाना था, सबसे पहले राजकुमारों ने जो राजसी वेष-भूषा में थे, एक-एक करके सारे आभूषण उतार दिये । वैसे तो कुछ ही राजकुमारों के आभूषणों से गुरु-देव के शरीर का वजन तौला जा सकता था, पर यहाँ गुरु-देव की दिव्य ज्ञान ज्योत को तौलने में लगे हैं, राजा-लोग…सभी राजकुमारों ने उतार के चढ़ा दिये आभूषण, राजा भी आगे बढ़ा…रानिंयों को साथ लेकर…सुनते हैं, सारा राजा का खजाना खाली हो गया, पर पलड़े पर यथा नाम तथा गुण ‘गुरु’ जो विराजमान हैं, पलड़ा इंच भी उठने तैयार नहीं…राजा-रानी-राजकुमार हाथ जोड़े, गुरु-देव के,
पैरों में गिर पड़े, ‘के भगवन् ! प्रसन्न हूजिये…त्रुटि कहाँ रह गई है, हमें क्षमा कीजिये ।
तभी गुरुदेव अपनी दृष्टि अपने उस सहज-निराकुल शिष्य पर डालते हैं, जो एक गरीब माँ का बेटा था । शिष्य ने सिर झुका लिया । गुरुदेव बोले, बच्चे तुम भी दक्षिणा दो…बच्चा अपनी माँ के साथ था…माँ बोली भगवन् ! हमारे पास तो कुछ भी नहीं, और बस आँखों से अविरल मोतिंयों की धार बह पड़ी । जो गालों से धीरे-धीरे नीचे आ पलड़े पर जा गिरी । अरे ये क्या, गुरुदेव जिस पलड़े पर थे, जो पलड़ा अभी तक इंच भी नहीं उठ रहा था । बराबर हो गया । दोनों पलड़े एक जैसे हो गये । सभी के मुख से एक-साथ जय-जय-गुरुदेव का अमर-मंत्र गूॅंज उठा ।
सच ही कहा है…हीरे का मोल मत लगाना…हीरा खुद कीमत अपनी कहने लगे, तो खरीद लेना, सस्ता सौदा होगा…क्यों ? क्योंकि हीरा तो अनमोल होता है । बिल्कुल वैसे ही हूबहू गुरुदेव रहते हैं, मत कहना कभी, मैं आपको दक्षिणा देना चाहता हूँ । गुरु माँगे तो हाथ का अंगूठा एकलव्य के भाँति दे देना…देर मत करना…गुरु की महिमा अपरम्पार होती है, देखो मूर्ति गुरु की, सिर्फ हाथ के अंगूठे से ही, सिखा पाई तीर चलाना, लेकिन गुरु ने, पाँव के अंगूठे से संधान साधना सिखाया…हाथ का अंगूठा माँगकर…अद्भुत होते हैं गुरुदेव…उनकी दूर-दृष्टि हम जैसे नादानों की समझ से परे है ।
सो सहजता के साथ, आ… गुरुदेव को अपने हाथ की अंगुली थमा देते हैं, और जहाँ गुरुदेव ले चलें…चले चलों, पीछे धकेलती सी हवा है
गुरुदेव…नाव शीघ्र मंजिल तक पहुँचाने में मदद करने वाले हैं गुरुदेव, दरद हरने वाले हैं गुरुदेव ।
आओ… मिल कर लगाये जयकारा…
जयकारा गुरुदेव का
जय जय गुरुदेव
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