“जादुई बटुआ”
एक जागीर दार के पाँच बेटे थे । जागीर किसे दें यह चिन्ता उसे रात-रात सोने नहीं देती थी, बात पुराने जमाने की है, सभी को बराबर जागीर नहीं दी जाती थी, कोई एक योग्य व्यक्ति ही जागीरदार बनाया जाता था, चारों बड़े लड़के जागीरदारी बघारते रहते थे, ‘अपना पेट खाउ, मैं न देऊ काउ’ यह कहावत चरितार्थ होती थी, उनके किरदार को देखकर के । एक और बच्चा था उसका, नाम था सहजू, जैसा नाम था, उसका वैसा ही काम था, बड़ा ही सहज और सरल सारे के सारे गुण कूट-कूट कर उसमें भरे थे । पिता को पसंद तो था यह बालक, पर कसौटी पर कसना भी जरूरी समझा, उन्होंने इसलिये एक रोज पाँचों बच्चों को बुलाकर कहा, बेटा ! तुम्हें उपनय मतलब नंगे-पाँव माँ नर्मदा की परिकम्मा पाँव-पाँव गाँव-गाँव लगाने जाना है, न कोई घोड़ा रहेगा, न कोई गाड़ी, अपना सामान उतना ही ले जाना, जितना उठाते बन सके । और जो जो सामान ले जाओ उसे वापिस भी लाना है, और हाँ…एक महिने में वापिस भी लौट आना है, मुझे एक बड़ा सा जलसा करना है, जिसमें मैं अपनी जागीर तुममें से किसी एक के नाम करना चाहता हूँ और समझो ‘कि यही परीक्षा है । जो जितना सुरक्षित, संरक्षित आयेगा बाहर के हवा-पानी से, वही नया जागीरदार बनाया जायेगा, और हाँ…एक जादुई बटुआ आपको दिया जा रहा है। इसमें से आप खर्च जितना करोगे अपने लिये, साँझ साँझ को सुबह जितने पैसे थे, उतने पैसे हो जायेंगे ।
समय ठंडी का था, बड़े भाईंयों ने सोचा पिताजी ने सुरक्षित घर लौटने की बात कही है, सो खूब कपड़े रख लिये ‘कि ठण्ड़ी लगने न पाये, और सहजू तो दो जोड़ कपड़े ले निकला, एक जोड़ा पहिने, और दूसरा जोड़ा कल नहाने के बाद पहने के लिये । दूसरी कक्षा में जो पढ़ता था, जानता था, ठण्ड़ी तन को तन भर, मन को मन भर लगती है, और मन को वस्त्र नहीं, बातें पकड़ानी पड़तीं हैं, ‘कि ठण्ड़ी कितनी बस दो मुट्ठी, और रास्ते पर पाँव-पाँव जो चलना है, और एक लम्बी दूरी एक-माह जो पूरी करनी है, सो ठण्डी लगने की बात ही नहीं ।
यात्रा प्रारंभ हुई, चारों बड़े लड़के सिर पर एक बड़ा सा बोझ रखे, थके हारे साँझ को ठिकाने लगे जहाँ, छोटा सहजू सहज ही जा पहुँचा साँझ से पहले ही वहाँ । और जल्दी अपने भाईंयों के लिये जादुई बटुये से पैसे निकाल कर कुछ खाने-पीने की चीज ले आया, और पानी गर्म करके दिया ‘कि भाईंयों के पैर कुछ राहत पा जायें । भाइयों ने पैर पानी में डाले डाले ही मजे से चटखारे लेते हुए, भोजन किया, और सामने मुस्कान लेते हुये सहजू को देख करके, उसके सिर सारा बोझ रख के चलेंगें कल से, ऐसा मन ही मन सोचकर रात में निद्रा माई की गोद में सिर रखकर सभी के सभी सो गये, गहरी नींद में, थके हारे जो थे ।
सुबह सहजू सबसे पहले उठा, भाईंयों के लिये चाय-नास्ते की व्यवस्था की, पानी गर्म किया स्नान के लिये, पूजन-सामग्री सुधार के, धोकर के रख दी । सभी भाईंयों ने उठ करके नहा, धोकर के नर्मदा माई को अर्घ दिया, और जब चल पड़े तो सभी ने कहा सहजू हमारीं भी पोटलिंयाँ लेकर आज से तुम चलोगे, सहज सहजू ने स्वीकार कर लिया । चारों बड़े भाई दौड़ के रास्ता नापने लगे, रास्ते भर खूब मस्ती की, बटुये के सारे पैसे पानी के जैसे बहा दिये, साँझ को पुन: भर जो जाना था बटुआ, और जाके खूब उछल-कूट करने के कारण थक गये, और रास्ते में ही सो गये, सहजू कछुये की चाल चलता चलता साँझ को निश्चित स्थान पर पहुँचा, और बाजार से कुछ खाने पीने की चीजें ले आया, भाईंयों को आते-आते रात हो गई, रास्ता भी भटक गये थे वे, आज फिर सहजू को समय से पहले पहुँचा देख सभी को बगलें झाँकनी पड़ीं, और रोज के जैसे पानी में पैर डाले डाले भोजन करके सो गये।
धीरे-धीरे आज महीने का अंतिम दिन है, और जागीरदार भी इन्तजार कर रहा है बच्चों का, और बच्चों का क्यों कहें, अपने कुल को निराकुल बनने वाली शख्सियत का । और क्या देखता है । चारों बड़े लडके दौड़ के, ‘पहले में आया, पहले में आया’ इस तरह आपस में लड़ रहे थे, और दूर अभी आँखों से ओझल ही है सहजू, जो दिखा आता भर, कुछ एक गठरी पीठ पर, एक सिर पर और एक एक दोनों बाजू में लटकाये चला आ रहा है, पाँव खून से लथपथ हैं, छाले घाव बनकर रिसने लगे हैं, नर्मदा माई परिकम्मा कहाँ कहाँ से कैसे करनी है पाँव के निशाँ बनते आ रहे हैं । माथे से साक्षात् नर्मदा माई का पानी श्रम-बिन्दु बन झल रहा है ।
पिता ने चारों लड़ते हुये लड़कों को नजर-अंदाज करके, सहजू को आँखों में पानी लाते हुये, सारे बोझ को अपने हाथ से उतारते हुये, उसे गले से लगा लिया । तब दो-जोड़ कपड़े ही बस पहनते-पहनते मैला मुचेला सा दिख रहा था, सिर्फ जादुई बटुआ ही अन्टी में चमक रहा था, जिसमें न सिर्फ पैसा उतने के उतने करने का जादू था, बल्कि यदि पैसे दूसरों के लिये खर्च किये जायें, तो उतनी गहरी चमक बढ़ने का भी जादू था, बस यही परीक्षा थी, जिसमें सहजू पास हुआ, पास ही नहीं हुआ, शत प्रतिशत अंक लेकर आया । जागीरदार के पद पर बिठाते ही पिता जी ने नया नाम दिया ‘सहजो-निराकुल’
ये तो थी कहानी, लेकिन खूब बखूब अपने जीवन में भी घटित होती है, दूसरों के लिये खर्चा गया अपना समय अपनी किम्मत के सितारे और चमका देता है सो आओ परोपकार करने का मन बनायें ।
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