अनन्त नाथ
वृहद चालीसा
‘दोहा’
निज भक्तों पे आपकी,
बरसे करुणा ‘नन्त’ ।
सुन ! नापूँ उस वक्त से,
आप भक्ति इक पन्थ ।।
चौपाई
जम्बू पाश्च-इरावत विरली ।
रम्यक देश अरिष्टा नगरी ।।
भव यह पिछला तीजा जानो ।
यहाँ पद्यरथ नाम पिछानो ।।१।।
वर्ण, स्वर्ण के जैसा दीखे ।
ग्यारह-अंग इन्होंने सीखे ।।
थे मांडलिक यहाँ पर राजा ।
बाद श्रमण भव-जलधि-जहाजा ।।२।।
शगुन नेक सद्-गुण आभरणा ।
व्रत सिंह निष्क्रीड़ित आचरणा ।।
धन ! प्रायोपगमन सन्यासी ।
पुष्पोत्तर विमान अधिशासी ।।३।।
‘गर्भ-पर्व’ छह महीने पहले ।
रत्न बरसने लगे रुपहले ।।
लिये हाथ में भेंट अनोखी ।
माँ सेविका देवि-देवों की ।।४।।
सार्थ नाम धर ऊरध-रेता ।
सींह सेन नृप विश्व विजेता ।।
नगर अयोध्या अर रजधानी ।
प्रसिद्ध श्री श्यामा महरानी ।।५।।
सपने लगे हुये से अपने ।
देखे माँ ने सोलह सपने ।।
मानो कोई बाल पुकारे ।
“जागो माँ हम आये द्वारे” ।।६।।
गर्भ कार्तिकी प्रतिपद-श्यामा ।
नाम रेवती रिख अभिरामा ।।
अंगिक-देश स्वर्ग से आये ।
कुल इक्ष्वाकु प्रदीप कहाये ।।७।।
ज्येष्ठ कृष्ण दिन बारस जनमे ।
स्वर्ग उतर आया भू छिन में ।।
‘जनमत’ पुष्य ‘योग’ विख्याता ।
मीन राशि जुड़ चाला नाता ।।८।।
नाम रेवती रिख अवतारी ।
आभा तप्त स्वर्ण मनहारी ।।
शचि आई, बालक को लाई ।
अवतारी भव-एक कहाई ।।९।।
हिवरा फूला नहीं समाया ।
बाल गोद सौधर्म थमाया ।।
पार रुप कब नेत्र सफीने ।
नेत्र हजार इन्द्र ने कीने ।।१०।।
ऐरावत की किस्मत जागी ।
सेवा हाथ भागवत लागी ।।
रच सुमेर अभिषेक अनोखा ।
सुर-गण पुण्य कमाया चोखा ।।११।।
पैर उखड़ते दीखे यम के ।
नृत्य किया ताण्डव फिर जमके ।।
यादगार ये दृश्य अनूठे ।
लाञ्छन सेही पाँव अँगूठे ।।१२।।
बढ़ने लगे दूज चन्दा से ।
निष्कलंक शशि पूनम भासे ।।
दर्श मात्र अपहारक-पीडा ।
धनु पचास उत्तुंग शरीरा ।।१३।।
साढ़े-सत-लख बर्ष कुमारा ।
वर्ष तीस लख जीवन धारा ।।
निमित्त उल्का पात बनाया ।
यह संसार जान के माया ।।१४।।
बारह सभी भावना भाये ।
देव तभी लौकान्तिक आये ।।
”विरला थामे केतु-अहिंसा” ।
लगे बाँधने सेतु-प्रशंसा ।।१५।।
बिन ओड़े दैगम्बर-बाना ।
भ्रम व्रत-मन्दिर कलश चढ़ाना ।।
देव-शास्त्र-गुरु का कहना है ।
संयम भव-मानव गहना है ।।१६।।
सिर्फ न लोचन, मन-मन भाई ।
सागर-दत्ता शिविका आई ।।
अधिप अनंत पधारे आ के ।
हर्षाये सुर-असुर उठा के ।।१७।।
पुर परिजन ने दूर तलक आ ।
किया विदा निज-नैन-उदक ला ।।
नगर अयोध्या जाना-माना ।
विपिन सहेतुक तप उद्याना ।।१८।।
मुँह लग वृक्ष गगन बतियाई ।
छै सौ धनुष प्रमाण उँचाई ।।
साथ सहस राजे महराजे ।
तर पीपल तरु आन विराजे ।।१९।।
‘णमो सव्व सिद्धाणं’ बोला ।
दिया उतार राजसी चोला ।।
पंच मुष्टी लुंचन अपना के ।
खड़े हो गये ध्यान लगा के ।।२०।।
दीक्षा ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशमी ।
अपराह्निक छवि रवि खर रशमी ।।
रिक्ष रेवती दीक्षा न्यारा ।
अष्टम भक्त नियम उर धारा ।।२१।।
विसर पूर्व-भव-तापस शेखी ।
लगा टक-टकी नासा देखी ।।
कर अफसोश दोष-कृत पिछले ।
हरकत बिना तीन दिन निकले ।।२२।।
रखे दर्श-मुनि हित बेशबरी ।
जग विख्यात अयोध्या नगरी ।
हेत पारणा आये स्वामी ।
राजा धन्य-सेन इक नामी ।।२३।।
नवधा भक्ति से पड़गाया ।
गो-क्षीरान्न अहार कराया ।।
पुण्य सातिशय अबकि बोने ।
पञ्चाश्चर्य किये देवों ने ।।२४।।
बीते बीस और चउ मासा ।
गले उतार ध्यान परिभाषा ।।
बस अन्तर्मुहूर्त इक लागा ।
सुप्त चतुष्टय-अनन्त जागा ।।२५।।
मावस चैत कृष्ण तिथि न्यारी ।
अपराह्निक बेला मनहारी ।।
नियम धारणा धारी बेला ।
नखत रेवती वाली बेला ।।२६।।
विपिन सहेतुक छव लासानी ।
तर पीपल तर केवलज्ञानी ।।
ऊँचाई धनु मानस्तंभा ।
भो ! छै सौ धुनि माँ जगदम्बा ।।२७।।
कोट उँचाई यही बताई ।
चैत्य ‘वृक्ष’ सिद्धार्थ गुसाईं ।।
गिरि-तोरण भी इतने ऊँचे ।
इतने ऊँचे ध्वज नभ गूँजे ।।२८।।
वेदिस्-तूप न इससे ज्यादा ।
विस्तृत इतने ही प्रासाद ।।
कोट, वेदि सम-शरणा साँची ।
चौड़े धनुष डेढ़ सौ वॉंची ।।२९।।
पर्वत धनुष चार सौ चौड़े ।
तूप धनुष पचास अर थोड़े ।।
अध पन युजन प्रमाण सभा का ।
‘कुस’ बाबीस वितान सभा का ।।३०।।
सिंहासन पद्मासन माड़े ।
चौषठ चँवर लिये सुर ठाड़े ।।
छतर तीन सिर-ऊपर डोलें ।
देव-दुन्दुभि मिसरी घोलें ।।३१।।
भामण्ड़ल भव-भव दर्पण है ।
झिर लग गंधोदक बर्सण है ।।
मन्द-मन्द चाले पवमाना ।
पुष्प-वृष्टि नन्दन बागाना ।।३२।।
तर अशोक तर छटा निराली ।
ध्वनि शिव-स्वर्ग भिंटाने वाली ।।
गुण अनुरूप नाम सम शरणा ।
वैर छोड़ बैठे सिंह-हिरणा ।।३३।।
सहज केवली पाँच हजारा ।
एक हजार पूर्व घर धारा ।।
अधून चालिस सहस गिनाये ।
गुरु, पन सहस विपुल श्रुत गाये ।।३४।।
शत बत्तीस वादि अविकारी ।
शत तेतालिस अवधि प्रभारी ।।
वसु सहस्र विक्रिया प्रकाशा ।
गणि पचास रसिया दृग् नासा ।।३५।।
नाम जयार्य गणेश प्रधाना ।
प्रथम सर्व-श्री फिर माँ नाना ।।
प्रश्न हजार साठ कर्तारा ।
‘पुण्डरीक’ मुख श्रोतृ पुकारा ।।३६।।
लाख-जुगल सुधि श्रावक शोभें ।
चार-लाख श्राविका सुशोभें ।।
किन्नर नामा यक्ष सुनो जी ।
नन्तमति यक्षिणी चुनो जी ।।३७।।
निस्पृह सिखला आखर-ढ़ाई ।
मास पूर्व ली सभा विदाई ।।
चैत्र कृष्ण दिन-मावस मोखा ।
दुपहर रिख रेवती अनोखा ।।३८।।
कूट स्वयं-प्रभ गिर सम्मेदा ।
मुद्रा कायोत्सर्ग समेता ।।
जा पहुँचे शिव समय मात्र में ।
सिद्ध श्रमण ‘शत-सहस’ साथ में ।।३९।।
तीसर-छै केवली अनबद्धा ।
सहस इवावन तीर्थ प्रसिद्धा ।।
कहूँ कहाँ तक पार न आता ।
‘सहज-निराकुल’ मौन सुहाता ।।४०।।
दोहा
मूदूॅं, खोलूँ आँख मैं,
छवि पा जाऊँ तोर ।
पहला, अगला, आखरी,
अरमॉं बस यह मोर ।।
ॐ ह्रीं श्री अनन्त नाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
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