‘वृहद्-चालीसा’
दोहा-
स्वयं शब्द गुरु कह रहा,
गो अरु मैं इक भाँत ।
लग पीछे, पीछे लगा,
खुद वैतरणी घाट ।।
देश भरत कर्नाट प्रदेश ।
ग्राम सदलगा पुण्य विशेष ।।
कृषि-पण्ड़ित मल्लप्पा तात ।
धर्म-परायण श्री-मति मात ।।१।।
पूनम शरद आप शुभ जोग ।
शशि-शिशु मणि कांचन संजोग ।।
छव शशि अब घटने की बात ।
लगा दूज शशि जो जग हाथ ॥२।।
नामकरण विद्याधर आज ।
त्यै-निकले, ‘जै’ दे आवाज़ ।।
कुण्ड़ल स्वर्ण ड़ोलते कान ।
‘हाय’ कण्ठ में आप समान ॥३।।
काजर आँखों में बेजोड़ ।
दिया दिठौना तिनके तोड़ ॥
नीलीं आँखियाँ फीकी झील ।
बंकिम धनुषी भुयें सुनील ।।४।।
चिकने घूँघर वाले बाल ।
गोल गुलाबी गोरे गाल ।।
दिव्य नासिका चंपक फूल ।
रचना विधना मानो भूल ।।५।।
अधर इतर फल-बिम्ब सजात ।
गिरवर मेर समुन्नत माथ ।।
काँधे ककुद लगे आकाश ।
नख मोती मणि-माणिक राश ।।६।।
करधन देख लजायें देव ।
ठुमक चले, बाजे पाजेब ।।
नजर भ्रमर सहसा ठहराव ।
कमल सहस-दल कर-तल, पाँव ।।७।।
चार-पाइ से कस घट-ताम्र ।
पाय दूसरे नटखट-राम ।।
दधि-मथ, करती जाती बात ।
माखन स्वयं खिलाती हाथ ॥८।।
आखर ढ़ाई माँ से सीख ।
थामी जिन-वाणी सो ठीक ।।
रिद्ध-सिद्ध कब विनय वगैर ।
कण्ठ विराजीं माँ बिन देर ।।९।।
महावीर मिल शान्ति, अनन्त ।
स्वर्णा, शान्ता पढ़ते ग्रन्थ ।।
तर-कर भीतर बाहर नैन ।
सुनते मुख-विद्या जिन-वैन ।।१०।।
किया देश भूषण मुनि दर्श ।
स्वीकारा ब्रह्मचर्य सहर्ष ।।
गोम्म-टेश्वर पूर्ण मुराद ।
सप्तम प्रतिमा मिला प्रसाद ।।११।।
पद-भट्टारक फेर नसीब ।
जा पहुँचे गुरु-ज्ञान करीब ।।
सान चढ़ा परखा गुरुदेव ।
सच्चाई या सिर्फ फरेब ।।१२।।।
कुछ कुछ खटके नाम तिहार ।
ले विद्या गर हुये फरार ॥
बोले आप सवारी त्याग ।
सुन, गुरुदेव हुआ अनुराग ।।१३।।
कर कण्ठस्थ न्याय सिद्धान्त ।
पढ़ी व्याकरण आद्योपान्त ।।
सोनी जी नसिया अजमेर ।
फिरी बिनौली साँझ-सबेर ।।१४।।
पा गुरुदेव सहज आशीष ।
हुये दिगम्बर मुण्डित शीश ।।
देख समय नजदीक समाध ।
गुरु मड़ दी सिर शिष्य उपाध ॥१५।।
उतर सिंहासन बोले और ।
क्षपक बना लो मुनि सिर-मौर ।।
पलक न सोये हरदम जाग ।
उठे सेज-दिव जागे भाग ।।१६।।
हाय ! नियति तुम हुये अकेल ।
सिंह-चर्या, नहिं बालक खेल ।।
कृपा-दृष्टि गुरु आशीर्वाद ।
रिझा न पाया पलक प्रमाद ।।१७।।
जल-गालन विध लख निर्दोष ।
कदम बढ़ाये धर-सन्तोष ।।
यह बुन्देल-खण्ड़ पुन-भूम ।
हृदय हरिक श्रावक मासूम ।।१८।।
अग्नि परीक्षक पंड़ित लोग ।
हुये साथ इनके तज भोग ।।
नई उम्र बालाएँ नेक ।
हुईं व्रती ‘जित-चितवन’ देख ।।१९।।
पण्ड़ित फिरोजाबाद नरेन्द्र ।
देख वयस्-नव अक्ष-जितेन्द्र ।।
कहा दिश्-विदिश् उड़ा अबीर ।
दिखा मुझे अभिनव महावीर ।।२०।।
ठप्प हावड़ा ब्रिज संचार ।
उमड़ा जन-सैलाब अपार ॥
रही दंग यह दुनिया देख ।
सन्त उठाई नजर न एक।।२१।।
चर्या जुग चतुर्थ अवलोक ।
‘शशि-कैलाश’ विबुध दी ढ़ोक ॥
रहा बिन कहे कब छिन चैन ।
नव नक्षत्र जन्म नभ-जैन ।।२२।।
सिद्ध एक बापोली धाम ।
बना हुआ आश्रम अभिराम ॥
वेद मन्-तरोच्-चार समेत ।
विरचा गुरु गुण-गान अद्वैत ।।२३।।
बाबा नाम गुलाब प्रसिद्ध ।
हिन्द महन्त हस्तगत रिद्ध ।।
‘सहज-निराकुल’ जीवन देख ।
झुके चरण में माथा टेक ॥२४।।
खजुराहों में महिने चार ।
जन-विदेश चुन शाकाहार ।।
नम-दृग् कहें सुना था नाम ।
दिखे आज भगवान्, प्रणाम ।।२५।।
बैठे गुरु करने विश्राम ।
पत्थर के बढ़ चाले दाम ।।
मालिक ‘सहजू’ चाय-दुकान ।
कहे कौन बेंचे भगवान् ॥२६।।
जर-जर जीर्ण शीर्ण जिनगेह ।
राह निरखते निस्पृह-नेह ॥
काल-जेय जड़ पत्थर-लाल ।
माहन-संस्कृति किया निहाल ॥२७।।
भारत कहो, इन्ड़िया छोड़ ।
गूॅंज उठा नारा चहु-ओर ।।
आ कानों में फूँके प्राण ।
हिन्दी फिर पाई सम्मान ।।२८।।
थी कल रखती हृदय विराट ।
हाय ! चिकित्सा उतरी हाट ।।
संजीवन पूर्णायु प्रकल्प ।
जीवन-जीवन कायाकल्प ।।२९।।
निकला मीठा पानी कूप ।
करुणा दया-क्षमा-स्तूप ।।
और अजूबे चर्चित लोक ।
अंधों ने पाया आलोक ।।३०।।
मूठ, धूल-मोहन नाकाम ।
जपा ‘कि विद्या सागर नाम ॥
गन्धोदक का बड़ा प्रभाव ।
माथ चढ़ाया, दूर तनाव ।।३१।।
पाँव-पाँव नापे सब ग्राम ।
बरसा क्या सर्दी क्या घाम ।।
भील आदिवासी ग्रामीण ।
तभी भजें नित संध्या तीन ॥३२।।
आते रहते नेता लोग ।
लिये पराये अपने रोग ।।
राम-बाण औषध अखसीर ।
पा तुमसे, लें हर-जन पीर ।।३३।।
हवा पश्चिमी पकड़े जोर ।
प्रतिभा-थलि प्रकल्प बेजोड़ ।।
बच्चे करते सेव बुजुर्ग ।
कृपा आप उतरा भू स्वर्ग ।।३४।।
माल विदेशी अंधी होड़ ।
प्रकल्प हथकरघा बेजोड ।।
खड़े नौजवाँ अपने पाँव ।
तर बरगदी आपकी छाँव ।।३५।।
चीख सुनें, हों गर इंसान ।
जूँ न रेगतीं संसद कान ।।
लिया कहलवा पशु न बोझ ।
खुलतीं गोशालाएँ रोज ।।३६।।
विहर अमंगल मंगलदाय ।
शान्ति-दुग्ध-धारा गिर-गाय ।।
पंच-गव्य निर्मित उत्पाद ।
कृपा दया गुरु-देव प्रसाद ।।३७।।
पावन धूल चढ़ाते माथ ।
शगुन आ जुड़ें सब इक साथ ।।
दिया ग्रास भी भक्ति समेत ।
नहीं सुलाये खाली पेट ॥३८।।
हाथ लगी क्या पीछि पुरान ।
कलजुग हाथ लगा ‘कल-यान’ ।।
दिया वसतिका दान अमोल ।
लिया महल दरवाजा खोल ।।३९।।
कहते बनें अगर दो चार ।
तुम गुण गणना पार सितार ।।
दोंनो हाथ-जोड़, सिर-नाय ।
मौन इसलिये मुझे सहाय ।।४०।।
दोहा-
‘सहज-निराकुल’ बस हमें,
कर लो स्वयं समान ।
और नहीं कुछ चाहिये,
प्रतिफल तव गुण-गान ।।
ॐ ह्रूँ श्री 108 आचार्य विद्यासागरमुनीन्द्र
पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
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