वर्धमान मंत्र
ॐ
णमो भयवदो
वड्ढ-माणस्स
रिसहस्स
जस्स चक्कम् जलन्तम् गच्छइ
आयासम् पायालम् लोयाणम् भूयाणम्
जूये वा, विवाये वा
रणंगणे वा, रायंगणे वा
थम्भणे वा, मोहणे वा
सव्व पाण, भूद, जीव, सत्ताणम्
अवराजिदो भवदु
मे रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते मे रक्ख-रक्ख स्वाहा ।।
ॐ ह्रीं वर्तमान शासन नायक
श्री वर्धमान जिनेन्द्राय नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘पूजन’
आन विराजो हृदय हमारे ।
हमें आपके चरण सहारे ।।
ओझल मत होना आंखों से ।
सच ! भगवन मैं आप भरोसे ।।
ॐ ह्रीं श्री आदि जिनेन्द्र !
अत्र अवतर अवतरण संवौषट्
(इति आह्वानन)
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्)
(पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
आँखों में पानी भर लाया ।
सम्यक् श्रृद्धा पाने आया ।।
लागें माया-मोह किनारे ।
हमें आपके चरण सहारे ।।
ओझल मत होना आंखों से ।
सच ! भगवन में आप भरोसे ।।
ॐ ह्रीं श्री आदि जिनेन्द्राय
जलं निर्वपामीति स्वाहा ।।
चन्दन लिये महक जो छोड़े ।
हित जोडूॅं जो जोड़ न छोड़े ।।
लगे भवातप जा यम द्वारे ।
हमें आपके चरण सहारे ।।
ओझल मत होना आंखों से ।
सच ! भगवन में आप भरोसे ।।
ॐ ह्रीं श्री आदि जिनेन्द्राय
चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अक्षत अनटूटे लाया हूँ ।
पाने अक्षत पद आया हूॅं ।।
देखे अलस-भाव दिन तारे ।
हमें आपके चरण सहारे ।।
ओझल मत होना आंखों से ।
सच ! भगवन में आप भरोसे ।।
ॐ ह्रीं श्री आदि जिनेन्द्राय
अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा ।।
लाया पुष्प भ्रमर मड़राते ।
मन तरंग लें मार बताते ।।
हों न्यारे मेरे भी बारे ।
हमें आपके चरण सहारे ।।
ओझल मत होना आंखों से ।
सच ! भगवन में आप भरोसे ।।
ॐ ह्रीं श्री आदि जिनेन्द्राय
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।।
लाया व्यंजन अपने जैसे ।
सिर चढ़ के बोलें ना पैसे ।।
जढ़ दो चूनर चाँद सितारे ।
हमें आपके चरण सहारे ।।
ओझल मत होना आंखों से ।
सच ! भगवन में आप भरोसे ।।
ॐ ह्रीं श्री आदि जिनेन्द्राय
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
आया लिये अबुझ दीपाली ।
पाया फल, डाली झुक चाली ।।
दूर दिखें जा मन अँधियारे ।
हमें आपके चरण सहारे ।।
ओझल मत होना आंखों से ।
सच ! भगवन में आप भरोसे ।।
ॐ ह्रीं श्री आदि जिनेन्द्राय
दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।।
लिये सुगंधित धूप अनूठी ।
जाने डूब-खूब क्यों रूठी ।।
मरहम पा जाये भव छाले ।
हमें आपके चरण सहारे ।।
ओझल मत होना आंखों से ।
सच ! भगवन में आप भरोसे ।।
ॐ ह्रीं श्री आदि जिनेन्द्राय
धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।।
लाया बड़े रसीले फल मैं ।
प्यासा हूँ, मछली सा जल में ।।
फूटें सहजो सौख्य फुहारे ।
हमें आपके चरण सहारे ।।
ओझल मत होना आंखों से ।
सच ! भगवन में आप भरोसे ।।
ॐ ह्रीं श्री आदि जिनेन्द्राय
फलं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जल, चन्दन, कण अक्षत शाली ।
गुल नन्दन, व्यंजन घृत थाली ।।
भेंटूॅं दीप, धूप, फल न्यारे ।
हमें आपके चरण सहारे ।।
ओझल मत होना आंखों से ।
सच ! भगवन में आप भरोसे ।।
ॐ ह्रीं श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
“कल्याणक अर्घ्य”
कल-यान बलिहारी ।।
गर्भ पहला ।
गर्व विरला ।
रत्न बरसा ।
सपन हरषा ।
देखती महतारी ।
कल-यान बलिहारी ।।
ॐ ह्रीं आषाढ़-कृष्ण-द्वितीयायां
गर्भ कल्याणक प्राप्ताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जन्म दूजा ।
गगन गूँजा ।
ढ़ेर कलशा ।
मेर जलसा ।
झूॅंमता पविधारी ।
कल-यान बलिहारी ।।
ॐ ह्रीं चैत्र-कृष्ण-नवम्यां
जन्म कल्याणक प्राप्ताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
त्याग तीजा ।
नैन भींजा ।
क्षमा दृग् नम ।
नमः सिद्धम् ।
प्रवज्या स्वीकारी ।
कल-यान बलिहारी ।।
ॐ ह्रीं चैत्र-कृष्ण-नवम्यां
दीक्षा-कल्याणक प्राप्ताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
ज्ञान चौथा ।
दुदश कोठा ।
विभव करुणा ।
समव शरणा ।।
चतुष्टय श्रृंगारी ।
कल-यान बलिहारी ।।
ॐ ह्रीं फागुन-कृष्ण-एकादश्यां
ज्ञान-कल्याणक प्राप्ताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
मोक्ष पञ्चम ।
मोक्ष परचम ।
सुख निराकुल ।
‘रे मिला कुल ।
ब्याह शिरपुर नारी ।
कल-यान बलिहारी ।।
ॐ ह्रीं माघ-कृष्ण-चतुर्दश्यां
मोक्ष-कल्याणक प्राप्ताय
श्री आदि जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
=विधान प्रारंभ=
“अष्ट दलकमल पूजा
विधान की जय“
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो जिणाणं*
जयतु जयतु श्री जी अरिहन्त ।
जयतु जयतु श्री सिद्ध अनंत ।।
प्रनुति सूर, उवझाय प्रणाम ।
नूर जैन नभ नुति अविराम ।।१।।
ॐ ह्रीं भीतर मौन प्रदाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो ओहि-जिणाणं*
मंगलमय अरिहन भगवान् ।
मंगल सिद्ध अनंत महान् ।।
मंगल जैन दिगम्बर साध ।
मंगल धर्म अहिंसा ख्यात ।।२।।
ॐ ह्रीं अन्त: अंधकार निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो परमोहि-जिणाणं*
परमोत्तम अरिहन भगवान् ।
उत्तम सिद्ध अनंत महान् ।।
उत्तम जैन दिगम्बर साध ।
उत्तम धर्म अहिंसा ख्यात ।।३।।
ॐ ह्रीं निस्वार्थ सहाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो सव्वोहि-जिणाणं*
परम शरण अरिहन भगवान् ।
शरणा सिद्ध अनंत महान् ।।
शरण चरण दैगम्बर साध ।
शरणा धर्म अहिंसा ख्यात ।।४।।
ॐ ह्रीं दुःख दावानल उपशामकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो अणंतोहि-जिणाणं*
विद समस्त व्यापार निसँग ।
वयस् दीर्घ जर चढ़ा न रंग ।।
सर्वग कैसे ? स्वात्म निवास ।
महिमा आप नाप आकाश ।।५।।
ॐ ह्रीं मनोवांछित फल प्रदाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो कोट्ठ-बुद्धीणं*
भले कीर्ति गुण अगम गणेश ।
चाहूँ तुम गुण-गान प्रवेश ।।
दीप अंधेरा करे न दूर ?
पहुॅंच न जहॉं किरण इक सूर ।।६।।
ॐ ह्रीं अल्प बुद्धि निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो बीज-बुद्धीणं*
पग पीछे लौटाता इन्द ।
मैं साधूॅं तुम श्रुति अनुबन्ध ।।
भाँत झरोखे थोथे ज्ञान ।
अधिक अर्थ का करूँ बखान ।।७।।
ॐ ह्रीं पाप फल विनाशकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो पदानु-सारीणं*
विश्व-दृश्व तुम विद् तिहुँ लोक ।
अगम त्रिजग मानस आलोक ।।
कितने ? तुम कैसे ? चुप बोल ।
तव थव असामर्थ्य कृति मोर ।।८।।
ॐ ह्रीं संकट मोचनयाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जल ले के, चन्दन ले के मैं ।
अक्षत लिये, सुमन ले के मैं ।।
चरु ले, दीप, धूप, फल न्यारे ।
करूँ यजन, दो लगा किनारे ।।
ॐ ह्रीं अष्टदल कमल हृदयस्-थिताय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
“षोडश दलकमल पूजा
विधान की जय”
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो सभिण्ण-सोदाराणं*
आत्म दोष से पीड़ित बाल ।
कृपा वैद्य पा यथा निहाल ।।
हम संसारी जन नीरोग ।
कृत भव पूर्व आप संजोग ।।९।।
ॐ ह्रीं अरिष्ट ग्रह निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो सयं-बुद्धाणं*
देता रहे दिलाशा भान ।
कल की तरह आज अवसान ।।
दे क्या दे ? धन इक आताप ।
पर मंशा पूरण तुम जाप ।।१०।।
ॐ ह्रीं दारिद्रय निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो पत्तेय-बुद्धाणं*
सुख पाता करके तुम सेव ।
विमुख उठाता दुख स्वयमेव ।।
किन्तु आप दर्पण मानिन्द ।
कब प्रसन्न ? कब रुष्ट जिनन्द ।।११।।
ॐ ह्रीं पुण्य-तन प्रदाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो बोहिय-बुद्धाणं*
गर्त सिन्ध, तुम हृदय उदार ।
ऊंट मेर गिर आप पहाड़ ।।
लिये सीम पृथुता नभ भूम ।
कहाँ न तुम ? जन-जन मालूम ।।१२।।
ॐ ह्रीं मनकाम रूप प्रदाय
श्रीवृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो ऋजु-मदीणं*
परिवर्तन तुम अटल विधान ।
पुनरागमन न, जा शिव थान ।।
तज सुख यहाँ, वहॉं सुख चाह ।
किन्तु बड़ा सामंजस वाह ! ।।१३।।
ॐ ह्रीं नरक तिर्यंच दुर्गति निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्ह णमो विउल-मदीणं*
किया भस्म बस तुमने काम ।
वशि पीछे भोला बस नाम ।।
जा लेटे हरि शैय्या नाग ।
नासा दृष्टि रखी तुम जाग ।।१४।।
ॐ ह्रीं भूत प्रेतादि भय निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो दसपुव्वियाणं*
और पाप घर तुम निष्पाप |
इसीलिये बस शगुन न आप ।।
कर निंदा छोटा सा ताल ।
नाहिं प्रशंसा सिन्ध विशाल ।।१५।।
ॐ ह्रीं संक्लेश संहारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो चोद्दस-पुव्वियाणं*
कर्म जीव नर्तन गृह नींव ।
कारण भ्रमण कर्म-थिति जीव ।।
नाव लगाती नाविक पार ।
नाविक बिन कब नाव किनार ।।१६।।
ॐ ह्रीं त्रैलोक्य-वशीकरणाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो अट्टंग-महा-निमित्त-कुसलाणं*
सुख हित, दुख कृत करना प्रीत ।
गुन हित, गाना औगुन गीत ।।
धर्म नाम हिंसा के खेल ।
रेल पेलना शिशु हित तेल ।।१७।।
ॐ ह्रीं मन्द कषाय करणाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो विउव्व-इड्ढि-पत्ताणं*
आप अलावा क्या विष मन्त्र ।
आप रसायन, मणी विष हन्त ।।
औषध इक तुम विष अपहार ।
जाने क्यूँ भटके संसार ।।१८।।
ॐ ह्रीं क्रोध उन्मूलन समर्थाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो विज्जा-हराणं*
कोन चार चित चित्त तरंग ।
चित्त बाह्य जीवन सतरंग ।।
सहज तुम्हें रखते ही चित्त ।
हाथ हाथ सब हाथ विचित्र ।।१९।।
ॐ ह्रीं मन कालुष्य निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो चारणाणं*
आप त्रिकाल जानते बात ।
आप एक त्रिभुवन के नाथ ।।
हैं पदार्थ लेकर मर्याद ।
महिमा केवल ज्ञान अगाध ।।२०।।
ॐ ह्रीं व्यापार वृद्धि बाधा निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो पण्ण-समणाणं*
शचपत क्या करता तुम सेव ।
बॉंध पाल भक्तिन् तट खेव ।।
हाथ छत्र हित आदर सूर ।
सिर छैय्या, पगतल न ततूर ।।२१।।
ॐ ह्रीं सौभाग्य साधकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो आगास-गामीणं*
कहाँ आप अपगत रत-द्वेष ।
अरु इच्छा बिन सुख उपदेश ।।
और नाग, नर, सुर प्रिय रम्य ।
गुण कीर्तिन तुम वचन अगम्य ।।२२।।
ॐ ह्रीं अकुटुम्ब बाधा निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो आसी-विसाणं*
आप अकिञ्चन ज्यों फलदार ।
धन सम्पन्न न फल दातार ।।
निकलीं पर्वत नदियॉं नेक ।
सिन्ध न जन्मी नदिया एक ।।२३।।
ॐ ह्रीं जिन दीक्षा बाधा निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो दिट्ठि-विसाणं*
इन्द्र जगत् सेवा प्रण मण्ड ।
लिये इसलिए सविनय दण्ड ।।
प्रेरक एक आप इस काज ।
प्रातिहार्य अष्टक सरताज ।।२४।।
ॐ ह्रीं आजिविका बाधा निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
भर लाया जल-चन्दन झारी ।
धान-शालि-सित, पुष्प पिटारी ।।
चरु ले, दीप, धूप, फल न्यारे ।
करुँ यजन, दुख मैंटो सारे ।।
ॐ ह्रीं षोडशदल-कमल
हृदयस्-थिताय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
“चतुर्विंशतिदल कमल पूजा’
विधान की जय”
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो उग्ग-तवाणं*
दृग् निर्धन, श्रीमन् दिन रैन ।
तुम सिवाय निर्धन किन नैन ।।
थित तम, थित प्रकाश ले देख ।
थित प्रकाश दृग् कब तम टेक ।।२५।।
ॐ ह्रीं दृष्टि दोष निरोधकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो दित्त-तवाणं*
वृद्धि, श्वास, लख दृग् टिमकार ।
वंचित स्वानु-भवन नर-नार ।।
तुम अध्यात्म रूप गत द्वन्द ।
कैसे लखें तुम्हें मत-मन्द ।।२६।।
ॐ ह्रीं अर्ध शिरः पीडा शामकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो तत्त-तवाणं*
आप पिता, इनके सुत आप ।
कुल प्रकाश यूँ तुम अपलाप ।।
तजना ले हाथों में सोन ।
मान स्वर्ण की पाहन जोन ।।२७।।
ॐ ह्रीं शत्रु उन्मूलन समर्थाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो महा-तवाणं*
विजय नगाड़ा मोह त्रिलोक ।
विनत सु-रासुर देते ढ़ोक ।।
पर, कब छेड़ तुम्हें की भूल ।
भट मुठभेड़ विनाश समूल ।।२८।।
ॐ ह्रीं आक्रन्दन शोक परिहारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो घोर-तवाणं*
दृग् औरन गति चार दुरन्त ।
देखा तुमने बस शिव पन्थ ।।
देख भुजा न किया गुमान ।
‘के जानूँ मैं तीन जहान ।।२९।।
ॐ ह्रीं नेत्र पीडा विनाशकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो घोर-गुणाणं*
राहु सूर पीछे दव नीर ।
सिन्धु परेशां प्रलय समीर ।।
साथ वियोग भाव जग भोग ।
अक्षर आप ज्ञान नीरोग ।।३०।।
ॐ ह्रीं रिद्धि-सिद्धि प्रदायकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्ह णमो घोर-परक्-कमाणं*
बिन जाने कर तुम्हें प्रणाम ।
तथा यथा बुध नुत परिणाम ।।
मान हरित मण कॉंच समान ।
कब दरिद्र ? मण माणिक-वान ।।३१।।
ॐ ह्रीं अपकीर्ति निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो घोर-गुण-वंभ-यारिणं*
दग्ध कषाय देव व्यवहार ।
चतुर मधुर भाषण व्यापार ।।
‘मंगल’ घट फूटा क्या मीत ।
बुझा दीप ‘बढ़ना’ जग-रीत ।।३२।।
ॐ ह्रीं सत्पथ प्रदर्शकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो आमो-सहि-पत्ताणं*
अनेकान्त श्रुत गत रत-रोष ।
कहे आप वक्ता निर्दोष ।।
बोल नाम सार्थक संयुक्त ।
कहें, कौन रोगी ज्वर मुक्त ।।३३।।
ॐ ह्रीं सत्त्वेषु मैत्रीं भावना संभवाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो खेल्लो-सहि-पत्ताणं*
बिन वाञ्छा तुम प्रणव निनाद ।
सिर्फ नियोग, न दूजी बात ।।
साथ चांदनी निकले इन्द ।
पूर बढ़ चले ‘सहजो’ सिन्ध ।।३४।।
ॐ ह्रीं गर्भ संरक्षकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो जल्लो-सहि-पत्ताणं*
धवल आप गुण परम गभीर ।
तुम गुण-सिन्ध भले यूँ तीर ।।
और किसी विध तुम गुण अन्त ।
देखा गया न हे ! गुणवन्त ।।३५।।
ॐ ह्रीं अतिवृष्टि अनावृष्टि निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो विप्पो-सहि-पत्ताणं*
थुति न सिर्फ सरवारथ सिद्ध ।
नुति सपेक्ष, ‘मृति’ भक्ति प्रसिद्ध ।।
सुमरूॅं, भजूँ, नमूॅं सिर टेक ।
साधित साध्य उपाय प्रतेक ।।३६।।
ॐ ह्रीं बान्धव बाधा निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्ह णमो सव्वो-सहि-पत्ताणं*
अधपत आप नगर तिहु धाम ।
नित्य ज्योत वन्दन त्रिक-शाम ।।
विगत पाप, कब पुण्य समेत ।
औरन पुण्य सातिशय हेत ।।३७।।
ॐ ह्रीं वैभव वर्धन समर्थाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो मण-बलीणं*
अन्य अगोचर विदित स्वरूप ।
विरहित शब्द, पर्श, रस, रूप ।।
सुमरण अगम यदपि जिनराज ।
तदपि करूँ मैं सुमरण आज ।।३८।।
ॐ ह्रीं निरंजन भव प्रदाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो वच-बलीणं*
याचित श्रीमन् यदपि अकिंच ।
गुण गभीर पर-मनस् अचिन्त्य ।।
विश्व पार ! कब जिनका पार ।
शरण चरण वे जिन अविकार ।।३९।।
ॐ ह्रीं जिन भक्त कीर्ति संभवाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्ह णमो काय-बलीणं*
ढ़ोक त्रिलोक दीक्ष गुरुदेव ।
वर्धमान उन्नत स्वयमेव ।।
पाहन पूर्व न, पर्वत बाद ।
मेर न फिर गिर कुल विख्यात ।।४०।।
ॐ ह्रीं राग आग परिदाहनाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो खीर-सवीणं*
बाध्य न बाधक, एक स्वरूप ।
गत गौरव लाघव चिद्रूप ।।
काल कला क्षत अक्षत ज्योत ।
चरणन तुम भेंटूॅं दृग्-मोत ।।४१।।
ॐ ह्रीं विष विषय रति हरणाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्ह णमो सप्पि-सवीणं*
वर व माँगता बन के दीन ।
क्षीण-राग तुम रोष-विहीन ।।
आप वृक्ष तर छाया लाभ ।
कहो ? यॉंचना से क्या लाभ ? ।।४२।।
ॐ ह्रीं निकाचित कर्म निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो महुर-सवीणं*
यदि आग्रह मॉंगो वरदान ।
लगन चरण तुम करो प्रदान ।।
होगी शीघ्र दया बरसात ।
शिख विनम्र गुरु करुणा पात्र ।।४३।।
ॐ ह्रीं किमिच्छ-दान समर्थाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो अमिय-सवीणं*
साध भक्ति तुम बीस उनीस ।
पूरण मन भावन जगदीश ! ।।
सहज-निराकुल भक्ति विशेष ।
साथ धनंजय करे स्वदेश ।।४४।।
ॐ ह्रीं संसार सागर तारणाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो अक्खीण-महा-णसाणं*
जय-जय-जय अरिहन्त जिनेश ।
जय जय सिद्ध अनन्त महेश ।।
जयतु सूरि, उवझाय जयन्त ।
जयतु दिगम्बर साध समन्त ।।४५।।
ॐ ह्रीं मारी बीमारी निवारकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो वड्ढ-माणाणं*
मंगल पहले जिन अरिहन्त ।
दूजे मंगल सिद्ध अनन्त ।।
मंगल तीजे मुनि अनगार ।
धर्म अहिंसा मंगल चार ।।४६।।
ॐ ह्रीं सार्थ सु-मरण भव प्रदाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्ह णमो सव्व सिद्धा-यदणाणं*
उत्तम पहले जिन अरिहन्त ।
दूजे उत्तम सिद्ध अनन्त ।।
उत्तम तीजे मुनि अनगार ।
धर्म अहिंसा उत्तम चार ।।४७।।
ॐ ह्रीं वात पित्त कफ उपशामकाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*ॐ ह्रीं अर्हं णमो सव्वसाहूणं*
शरणा पहले जिन अरिहन्त ।
दूजे शरणा सिद्ध अनन्त ।।
शरण तीसरे मुनि अनगार ।
धर्म अहिंसा शरणा चार ।।४८।।
ॐ ह्रीं निरा’कुल प्रदाय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
“पूर्णार्घं”
जल पावन, वावन चन्दन ले ।
अक्षत अछत, सुमन मोहन ले ।।
चरु ले, दीप, धूप, फल न्यारे ।
करूँ यजन, टक दो जश तारे ।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशति दल कमल
हृदयस्-थिताय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
“महा-अर्घं”
जल मीठा लें चन्दन नीका ।
तण्डुल, गुल-कुल आप सरीखा ।।
चरु ले, दीप-धूप, फल न्यारे ।
करूँ यजन, हित शिरपुर द्वारे ।।
ॐ ह्रीं अष्ट-चत्वारिंशद्-दलकमल
हृदयस्-थिताय
श्री वृषभ जिनेन्द्राय
महार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
:: जाप्य ::
।। ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं अर्हं
श्री वृषभ नाथ तीर्थंकराय नमः ।।
==जयमाला==
“लघु चालीसा”
=दोहा=
सुगरण श्री भगवान का,
कलयुग केवल सार ।
लें बटोर धन ! पुण्य आ,
भेंट हृदय उद्-गार ।।
=चौपाई=
जैसे आप न दूजा कोई ।
देख और दुख आँख भिंजोई ।।
भिंजा, नयन बस रह न जाते ।
बिठाल काँधे गगन छुवाते ।।१।।
अग्नि परीक्षा सीता रानी ।
खिले सरोज सरोवर पानी ।।
गूँजा सति सीता जयकारा ।
आप सिवाय कौन रखवाला ।।२।।
घड़े नाग नागिन दो काले ।
फूल माल बन चले, निकाले ।।
गूँजा सति सोमा जयकारा ।
सिर्फ सहारा एक तुम्हारा ।।३।।
चीर जा खड़ा अक्षत पंक्ती ।
दुपत दुलारी अंधी भक्ती ।।
गूँजा सति द्रौपद जयकारा ।
साँचा एक तुम्हारा द्वारा ।।४।।
टूक शिला, परचम लहराया ।
सुत अंजन बजरंग कहाया ।।
गूँजा सति अंजन जयकारा ।
आप कृपा भव सिंधु किनारा ।।५।।
खुला देव कीलित दरवाजा ।
पांव लगा साक्षी महराजा ।।
गूँजा सति नीली जयकारा ।
महिमा आप अचिन्त्य अपारा ।।६।।
सार्थ सुलोचन ध्यान लगाया ।
छू मन्तरी व्यन्तरी माया ।।
गूँजा सति सुलोच जयकारा
दूर न दृग् नम स्वर्ग नजारा ।।७।।
श्री भगवन् मैं भी इक दुखिया ।
बनी अहर्निश निर्झर अंखिया ।।
विथा आपसे छुपी न म्हारी ।
आती तुम्हें न थारी-मारी ।।८।।
सुनते तुम, जब सुना, सुनाऊँ ।
मैं ही क्यूॅं पीछे रह जाऊॅं ।।
तुमने पार उतारे लक्खा ।
मैंने भी तुम दर सिर रक्खा ।।९।।
‘सहज-निराकुल’ अपने जैसा ।
आप करोगे मुझे भरोसा ।।
बरसे गुरु किरपा बलिहारी ।
शिष्य अगर हो आज्ञाकारी ।।१०।।
=दोहा=
करत-करत सुमरण प्रभो,
सु-मरण लगता हाथ ।
हो मथान दधि घूमती,
दूर न मक्खन भ्रात ।।
।।इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
‘सरसुति-मंत्र’
ॐ ह्रीं अर्हन्
मुख कमल-वासिनी
पापात्-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-ज्-ञानज्-ज्वाला
सह(स्)-स्र(प्) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-संभवे
वं वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*विसर्जन पाठ*
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।१।।
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।२।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।३।।
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।४।।
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।५।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
दोहा-
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
बनी रहे यूँ ही कृपा,
सिर ‘सहजो’ निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
“आरती”
आदि ब्रह्मा वृषभ देवा ।
देव करते आप सेवा ।।
गर्भ आना अभी देरी ।
नभ लगाये रतन ढ़ेरी ।।
सौ-धरम-शच पार खेवा ।
देव करते आप सेवा ।।१।।
आदि ब्रह्मा वृषभ देवा ।
देव करते आप सेवा ।।
मेर गिर जल क्षीर कलशा ।
नृत्य ताण्डव जन्म जलसा ।।
दृग् खुशी से गंग-रेवा ।
देव करते आप सेवा ।।२।।
आदि ब्रह्मा वृषभ देवा ।
देव करते आप सेवा ।।
राज-पाट विमुचं वन धन ! ।
वेष मुचंन केश लुचंन ।।
डूब भीतर इक सदैवा ।
देव करते आप सेवा ।।३।।
आदि ब्रह्मा वृषभ देवा ।
देव करते आप सेवा ।।
सम-शरण सिंह हिरण आया ।
जात-वैर विडार, माया ।।
सुने जिन धुन बिन कुटेवा ।
देव करते आप सेवा ।।४।।
आदि ब्रह्मा वृषभ देवा ।
देव करते आप सेवा ।।
कर्म ध्यानानल जला के ।
सुख निराकुल धाम आ के ।।
हो चला कृत-कृत परेवा ।
देव करते आप सेवा ।।५।।
आदि ब्रह्मा वृषभ देवा ।
देव करते आप सेवा ।।
Sharing is caring!