वर्धमान मंत्र
ॐ
णमो भयवदो
वड्ढ-माणस्स
रिसहस्स
जस्स चक्कम् जलन्तम् गच्छइ
आयासम् पायालम् लोयाणम् भूयाणम्
जूये वा, विवाये वा
रणंगणे वा, रायंगणे वा
थम्भणे वा, मोहणे वा
सव्व पाण, भूद, जीव, सत्ताणम्
अवराजिदो भवदु
मे रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते मे रक्ख-रक्ख स्वाहा ।।
ॐ ह्रीं वर्तमान शासन नायक
श्री वर्धमान जिनेन्द्राय नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*पूजन*
प्राण तुम, मैं शरीर ।
तुम सागर, मैं तीर ।
तुम ज्योति मैं दीप ।
तुम मोती मैं सीप ।
है आरजू यही,
मॉं तुम यूँ ही,
बने रहना समीप ।।
ॐ ह्रीं श्री मॉं जिनवाणी नमो नमः
अवतर! अवतर! संवौषट्!
(इति आह्वाननम्)
अत्र तिष्ठ! तिष्ठ! ठ:! ठ:!
(इति स्थापनम्)
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्!
(इति सन्निधिकरणम्)
तुम पानी, मैं मीन ।
तुम दानी, मैं दीन ।
तुम ज्योति मैं दीप ।
तुम मोती मैं सीप ।
है आरजू यही,
मॉं तुम यूँ ही,
बने रहना समीप ।।
ॐ ह्रीं श्री मॉं जिनवाणी नमो नमः
जलं निर्वपामीति स्वाहा ।।
तुम चन्दन, मैं काठ ।
तुम तिलक, मैं ललाट ।
तुम ज्योति मैं दीप ।
तुम मोती मैं सीप ।
है आरजू यही,
मॉं तुम यूँ ही,
बने रहना समीप ।।
ॐ ह्रीं श्री मॉं जिनवाणी नमो नमः
चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।।
तुम अक्षत, मैं टूट ।
आप सुई, मैं सूत ।।
तुम ज्योति मैं दीप ।
तुम मोती मैं सीप ।
है आरजू यही,
मॉं तुम यूँ ही,
बने रहना समीप ।।
ॐ ह्रीं श्री मॉं जिनवाणी नमो नमः
अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा ।।
तुम फुलवा, मैं भृंग ।
‘डोर तुम, मैं पतंग ।
तुम ज्योति मैं दीप ।
तुम मोती मैं सीप ।
है आरजू यही,
मॉं तुम यूँ ही,
बने रहना समीप ।।
ॐ ह्रीं श्री मॉं जिनवाणी नमो नमः
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।।
तुम व्यंजन, स्वर मैं ।
मंजिल तुम, डगर मैं ।
तुम ज्योति मैं दीप ।
तुम मोती मैं सीप ।
है आरजू यही,
मॉं तुम यूँ ही,
बने रहना समीप ।।
ॐ ह्रीं श्री मॉं जिनवाणी नमो नमः
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
तुम बादल, मैं मोर ।
चाँद तुम, मैं चकोर ।
तुम ज्योति मैं दीप ।
तुम मोती मैं सीप ।
है आरजू यही,
मॉं तुम यूँ ही,
बने रहना समीप ।।
ॐ ह्रीं श्री मॉं जिनवाणी नमो नमः
दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।।
तुम खुश्बू, मैं फूल ।
मुआफ़ी तू, मैं भूल ।
तुम ज्योति मैं दीप ।
तुम मोती मैं सीप ।
है आरजू यही,
मॉं तुम यूँ ही,
बने रहना समीप ।।
ॐ ह्रीं श्री मॉं जिनवाणी नमो नमः
धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।।
तुम श्री फल मैं हाथ ।
तुम बिरछा, मैं पात ।
तुम ज्योति मैं दीप ।
तुम मोती मैं सीप ।
है आरजू यही,
मॉं तुम यूँ ही,
बने रहना समीप ।।
ॐ ह्रीं श्री मॉं जिनवाणी नमो नमः
फलं निर्वपामीति स्वाहा ।।
लाया हित सम दरश ।
प्रासुक जल भर कलश ।
भर के घट गंध रस ।
‘अक्षत’ खुद भाँत जश ।
नन्दन वन दल सहस ।
मिसरी चरु अरु परस ।
दीवा घी आदरश ।
सुरभित घट गंध दश ।
ऋत-ऋत मृदु फल सरस ।
सब द्रव अपने सदृश ।
करो किरपा, हरो कष्ट मेरा ।
तुमसे लागी लगन ।
चाहूँ चरणन शरण ।
आया डबडब नयन ।
लाया श्रद्धा सुमन ।
आ करो कण्ठ मेरे बसेरा ।
आसरा माँ मुझे सिर्फ तेरा ।।
ॐ ह्रीं श्री मॉं जिनवाणी नमो नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘दोहा’
जिसे चाहिये, ‘सार-दे’,
बस कहने की देर ।
एक जुवाँ में माँ खड़ी,
देने स्वर्ण-सुमेर ।।१।।
माँ की महिमा अपरम्पार ।
माँ को कब आता व्यापार ।।
आता सिर्फ लुटाना नेह ।
रञ्च किसे इसमें संदेह ।।२।।
भोला-भाला ग्वाला एक ।
कुन्द-कुन्द भगवन् अभिलेख ।।
रखना मन माफिक मासूम ।
जपना ‘नमो नमः माँ जूम्’ ।।३।।
बदल चली पानी में आग ।
गहरा माँ-शारद अनुराग ।।
गहरा माँ-शारद अनुराग ।
निकले हार, घड़े थे नाग ।।४।।
पग लगते ही खुले किवाड़ ।
‘जय माँ जूँ’ लगा जयकार ।।
‘जय-माँ-जूँ’ लगा जयकार ।
चीर जा खड़ा अछत कतार ।।५।।
सुत-अंजनि बजरंगी नाम ।
जप ‘माँ-जूँ’ चले अविराम ।।
जप ‘माँ-जूँ’ चले अविराम ।
द्वार चन्दना सन्मत स्वाम ।।६।।
समाधान मिलता हर बार ।
खाली गई ना भक्त गुहार ।
मात चढ़ावा श्रीफल हाथ ।
और सुमन-श्रृद्धा बरसात ।।७।।
तेरा मैं अपना लो राख ।
लाया मैं भी मोती आँख ।।
आन विराजो मेरे कण्ठ ।
नापूँ बल घुटने शिव-पन्थ ।।८।।
रञ्च किसे इसमें संदेह ।
आता सिर्फ लुटाना नेह ।।
माँ को कब आता व्यापार ।
माँ की महिमा अपरम्पार ।।९।।
‘दोहा’
सहज निराकुल रह सकूँ,
बेला अन्त प्रयाण ।
भूल कषायें मान वा,
रक्खूँ माँ-नव ध्यान ।।१०।।
ॐ ह्रीं श्री मॉं जिनवाणी नमो नमः
जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘श्री तत्त्वार्थ-सूत्र-जी विधान’
प्रथमो अध्याय:
सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-ज्ञाना ।
सम-चरित मोक्ष मारग माना ।।१।।
श्रद्धान अटल तत्त्वार्थ परम ।
सम-दर्शन, शिव-सोपन प्रथम ।।२।।
सम दर्शन हेत निसर्ग एक ।
अधिगम इक और अनर्घ लेख ।।३।।
चेतन, जड़, आस्रव-बन्ध भ्रात ।
संवर, निर्जर, शिव तत्व सात ।।४।।
निक्षेप-थापना, नाम, द्रव्य ।
निक्षेप-भाव, ध्यातव्य भव्य ।।५।।
जुड़ता प्रमाण नय से नाता ।
अधिगम तत्त्वों का हो जाता ।।६।।
निर्देश, स्वामि, साधन, विधान ।
अधि-करणस्-थिति मार्गणा थान ।।७।।
क्षेत्रन्तर, काल, संख्य, पर्शन ।
बहु अल्प भाव सत्-दिग्दर्शन ।।८।।
मति-ज्ञान, ज्ञान-श्रुत, अवधि-ज्ञान ।
मन-पर्यय, केवल-ज्ञान भान ।।९।।
यह सम्यक् ज्ञान विभेद पञ्च ।
जुग-भेद प्रमाण कथित विरञ्च ।।१०।।
थित-आदि, ज्ञान-मति-श्रुत सुजान ।
पहले परोक्ष नामक प्रमाण ।।११।।
अवधी मन-पर्यय सकल-ज्ञान ।
प्रत्यक्ष नाम दूजे प्रमाण ।।१२।।
मति, मृति, संज्ञा, चिंता साँची ।
अभिनिबोध-एकारथ-वाची ।।१३।।
मति-ज्ञान जन्म इन्द्रिय मन से ।
गुरु-मुख ‘निस्सृत’ मुख-भगवन् से ।।१४।।
अव-ग्रह, ईहा, अवाय, धारण ।
मति ज्ञान प्रभेद तरण-तारण ।।१५।।
बहु, बहुविध, अनिसृत, क्षिप्र, उक्त ।
ध्रुव और इतर इनके अनुक्त ।।१६।।
यह बारह मिल कर सभी भेद ।
होते पदार्थ के, कहें वेद ।।१७।।
व्यंजन विख्यात नाम जिसका ।
बस सिर्फ अवग्रह ही उसका ।।१८।।
न ‘अवग्रह-व्यजंन’ मन द्वारा ।
होता न कदापि नयन द्वारा ।।१९।।
श्रुत ज्ञान जन्म मति ज्ञान पूर्व ।
जुग भेद नेक द्वादश अपूर्व ।।२०।।
अधिकारी देव तथा नारक ।
भव प्रत्यय ज्ञान-अवधि नामक ।।२१।।
सविकल्प-षट् क्षयुप-शम निमित्त ।
हिस्से तिर्-यञ्च मनुज पवित्र ।।२२।।
ऋजु मति, मन-पर्यय ज्ञान एक ।
मति-विपुल अपर जैना-भिलेख ।।२३।।
इन दोंनो में लायें अन्तर ।
इक विशुद्धि, अप्-प्रति-पात इतर ।।२४।।
वर विशुद्धि, क्षेत्र, विषय, स्वामी ।
अर अवधि, मनः पर्यय नामी ।।२५।।
कुछ ही पर्याय समस्त द्रव्य ।
मतिज्ञान, ज्ञान-श्रुत विषय दिव्य ।।२६।।
अद्भुत अनूप भवि अवधि-ज्ञान ।
जाने पदार्थ बस रूप वान ।।२७।।
सर्वा-वधि विषय अनन्त भाग ।
जानें मन-पर्यय धर-विराग ।।२८।।
जानें युगपत् केवल ज्ञानी ।
पर्याय द्रव्य सब, ’जिनवाणी’ ।।२९।।
युगपत् इक आतम में प्रधान ।
हो सकते इक-लग चार ज्ञान ।।३०।।
मति-ज्ञान-अवधि-श्रुत मिथ्या-भी ।
होते सम्यक् भी, वाँचा-‘भी’ ।।३१।।
गत-हस्त असत्-सत् भंग सात ।
कुग्-ज्ञान ज्ञान उन्मत्त भाँत ।।३२।।
ऋजु सूत्र, शब्द, संग्रह, नैगम ।
व्यवहार, भिरुढ़, भूत-एवम् ।।३३।।
इति श्री मोक्ष-शास्त्रे
प्रथ-मो(ध्)-ध्यायः नमो नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।१।।
‘द्वितीय अध्याय’
उपशम, क्षय स्व-तत्व जीव राव ।
क्षयु-पशम उदय परिणाम भाव ।।१।।
क्रमश: जुग, नव,’नव-नव’ समेत ।
इक्कीस, ’भाव इन’ तीन भेद ।।२।।
जुग-भाव-औपशम जैन-अखर ।
सम्यक्त्व एक चारित्र अपर ।।३।।
दृग्, चारित ज्ञान-सकल-दर्शन ।
नव भाव क्षायिकन लब्धिन पन ।।४।।
दृग्, चरित मिश्र व्रत लब्धिन पन ।
चउ ज्ञान-अज्ञान तीन दर्शन ।।५।।
औदयिक कषाय लेश्य अविरत ।
दृग्, मिथ्या ज्ञान असिध लिंग गत ।।६।।
भव्यत्व और जीवत्व नाम ।
भवि ! भाव तीन यह पारिणाम ।।७।।
गुरु-देव, देव-पुरु प्रवचन है ।
उपयोग जीव का लक्षण है ।।८।।
उपयोग ज्ञान-इक भेद आठ ।
विध चउ दर्शन औ’ जैन पाठ ।।९।।
संसारी एक मुक्त दूजा ।
जुग भेद जीव ध्वनि जिन गूँजा ।।१०।।
जुग भेद जीव संसारी जन ।
मन सहित दूसरे विरहित मन ।।११।।
थावर संसारी कहलाते ।
त्रस भी संसारी में आते ।।१२।।
भू, वनस्पति, जल, अनिल, अनल ।
थावर यह झलके ज्ञान सकल ।।१३।।
इन्द्रिय दो, तीन, चार, पाँचा ।
त्रस, ‘आगम-जैन’ इन्हें वाँचा ।।१४।।
गर कहो, इन्द्रियाँ कितनी हैं ।
बस पाँच, नहीं अनगिनती हैं ।।१५।।
भो ! भेद इन्द्रियों के कितने ।
सँग बेरी के काँटे जितने ।।१६।।
निर्वृति और उपकरण नाम ।
द्रव्येन्द्रिय भेद-जुगल ललाम ।।१७।।
इक लब्धि नाम उपयोग अवर ।
भावेन्द्रिय भेद कथित जिनवर ।।१८।।
पर्शन इक इन्द्रिय इक रसना ।
इक घ्राण, चक्षु इन्द्रिय श्रवणा ।।१।।
तिन विषय पर्श, रस, गंध, वरण ।
अरु शब्द कथित जिनवर प्रवचन ।।२०।।
विश्रुत ! श्रुत-सुत में आते जो ।
श्रुत, मन का विषय बताते वो ।।२१।।
भू, वनस्पती, जल, अग्नि, पवन ।
थावर इन इन्द्रिय इक पर्शन ।।२२।।
कृमि, पिपीलिका, अलि, मनु-जाये ।
बढ़ती इक-इक इन्द्रिय पाये ।।२३।।
है जीव असंज्ञी मन रीता ।
मन सहित जीव संज्ञी, ’गीता’ ।।२४।।
गति विग्रह कर्म-निमित्त योग ।
तिन कथन वचन जिन सत्य-योग ।।२५।।
अनुसार श्रेणि के होती है ।
गति-विग्रह केवल ज्योति है ।।२६।।
जीवन जिन मनी दिवाली है ।
गति तिन, बिन मोड़े वाली है ।।२७।।
चउ समय पूर्व, मोड़े वाली ।
गति कही जीव-जन संसारी ।।२८।।
इक समय खरचता खाली है ।
ऋजु गति बिन मोड़े वाली है ।।२९।।
रहता गर जीव अनाहारक ।
तो समय इक-‘दु’-या तीन तलक ।।३०।।
सम्मूच्छन इक,वच मात-परम ।
इक गर्भ एक उप-पाद जनम ।।३१।।
चित् शीतल संवृत और इतर ।
सम्मिश्र योनि नव, ’रव-जिनवर’ ।।३२।।
इक गर्भ जरायुज बतलाया ।
अण्डज इक-पोत ‘तोत्र’ गाया ।।३३।।
सुर-नारक जो कहलाते हैं ।
उपपाद जन्म वो पाते हैं ।।३४।।
उपपाद अलावा जन्म गरभ ।
सम्मूर्च्छन जेते जीव सरब ।।३५।।
औदारिक एक वैक्रियिक तन ।
आहारक इक तैजस कार्मण ।।३६।।
तन जो आगे-आगे आते ।
अर और सूक्ष्म होते जाते ।।३७।।
तैजस शरीर तक, तन सारे ।
सुन, गुण असंख्य प्रदेश वाले ।।३८।।
आहारक से तैजस, कार्मण ।
गुण नन्त प्रदेश रखें प्रवचन ।।३९।।
तैजस, कार्मण यह जुगल देह ।
अप्-प्रतिघाती प्रवचन विदेह ।।४०।।
तैजस, कार्मण यह जुगल गात ।
हैं नादि-काल से जीव साथ ।।४१।।
सब के सब ही संसारी जन ।
रखते शरीर तैजस कार्मण ।।४२।।
हो सकते, लग इन देह चार ।
युगपत् जीविक ध्वनि-दिव्य सार ।।४३।।
कार्मण नाम अंतिम शरीर ।
सुनि, निरुपभोग धुनि-मुनि-गभीर ।।४४।।
सम्मूर्च्छन गर्भ जन्म पाते ।
देही औदारिक कहलाते ।।४५।।
शैय्या उपपाद जन्म पाते ।
देही वै-क्रियिक कहे जाते ।।४६।।
वै-क्रियिक शरीर अनोखा है ।
सम्भाव्य ऋद्धि भी होता है ।।४७।।
तैजस शरीर भी इसी भाँत ।।
तप-तप-विशेष, है लगे हाथ ।।४८।।
तन आहारक संयत प्रमत्त ।
शुभ अव्-व्याघाती इक विशुद्ध ।।४९।।
सम्मूर्च्छन नारक में आते ।
वे वेद नपुंसक इक पाते ।।५०।।
देवों में वेद नपुंसक ना ।
कहना तिनका जो हिंसक ना ।।५१।।
इन सिवा जीव जे बच जाते ।
वे वेद यथा सम्भव पाते ।।५२।।
सुर नारक, चरमोत्तम देही ।
पूर्णायु असंख्य वर्ष सेवी ।।५३।।
इति श्री मोक्ष-शास्त्रे
द्विती-यो(ध्)-ध्यायः नमो नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।२।।
‘तृतीय अध्याय’
भा रत्न, शर्करा, बालु, पंक ।
तर धूम तमः तम महा बंक ।।
घनु-दधि प्रतिष्ठ घन-तनू-वात ।
स-प्रतिष्ठ स्वयं आकाश बाद ।।१।।
लख तीस, बीस-पन, दश-पन दश ।
बिल तीन, पाँच कम इक, पन-बस ।।२।।
विक्रिया वेदना लेश्या-तन ।
परिणाम अशुभ-तर नारक-जन ।।३।।
हा ! जीव नरक जेते रहते ।
दुख आपस में देते रहते ।।४।।
दुख देते देव असुर-कुमार ।
जा तलक-नरक तीजे कराल ।।५।।
इक, तीन, सात, दश जुग मिल कर ।
वय दुबीस, ’तीस-तीन-सागर’ ।।६।।
जम्बू लग सिन्ध-लवण ललाम ।
सागर असंख्य शुभ द्वीप नाम ।।७।।
आकार-वलय पृथु दुगुण-दुगुण ।
घेरे पुरु द्वीप-समुद्र शगुन ।।८।।
तिन बिच पृथु जोजन इक लाखा ।
जुत नाभि मेरु जम्बू भाखा ।।९।।
इक भरत हैमवत नाम एक ।
हरि इक विदेह धर-नर-विवेक ।।
रम्यक इक हैरण्-यवत भ्रात ।
ऐरावत मिल ये क्षेत्र सात ।।१०।।
विस्तृत समुद्र पूरब पश्चिम ।
ले सिर, इन क्षेत्र विभाग धरम ।।
गिरि हिमवन्, हिमवन्-महा, निषध ।
गिरि नील, रुक्मि, शिखरी पर्वत ।।११।।
सुवरण, अर्जुन, तपनीय स्वर्ण ।
वै-डूर्य, रजत-मय हेम वर्ण ।।१२।।
मणि चित्र-विचित्र पार्श्व गिरवर ।
सम विस्तृत मूल मध्य ऊपर ।।१३।।
‘पद्-मौर’ पद्म तिगिन्छ केसर ।
मह पुण्डरीक-पुण्-डरीक सर ।।१४।।
सर लम्बा इक हजार योजन ।
चौड़ा ‘सौ’ पाँच-बार योजन ॥१५॥
सर, नाम-पद्म जो पहला है ।
भवि ! वह दश योजन गहरा है ॥१६॥
सरवर तिस बीचों बीच अचल ।
इक योजन वाला एक कमल ॥१७॥
सर और कमल अगले-अगले ।
दुगुने लम्बे चौड़े गहरे ॥१८॥
श्री, ही, धृति, लक्ष्मी, कीर्ति, बुद्ध ।
पल्यिक समान परिषद् निबद्ध ।।१९।।
धुनि-गंगा, सिन्धु-नदी, रोहित ।
धुनि-रोहितास्य इक सरित्-हरित ।।
हरि, कान्ता, सीता, सीतोदा ।
नारी,नर-कान्ता जल-स्रोता ।।
धुनि-स्वर्ण-कूल, धुनि-रूप्य-कूल ।
रक्ता, रक्तोदा तोय-मूल ।।२०।।
धुनि-जुगल पूर्व में आतीं जो ।
भवि ! दिशा-पूर्व में जातीं वो ।।२१।।
अवशेष सात धुनि इन चौदा ।
दिश्-पश्चिम बढ़ा रही शोभा ।।२२।।
परिवृत गंगा सिन्ध्वादि-धार ।
परिवार नदी चौदह हजार ।।२३।।
पृथु भरत पाँच-सौ अर छबीस ।
योजन छह भागर-‘भा-गुनीस’ ।।२४।।
गिरि क्षेत्र विदेह तलक आते ।
दुगुने-दुगुने होते जाते ।।२५।।
गिरि क्षेत्र यथा दक्षिण भाषे ।
गिरि क्षेत्र तथा उत्तर भासे ।।२६।।
छह-छह, ’जी उत्सर्पिणी काल ।
छह-छह ही अव-सर्पिणी काल ।।
उनमें भरतै-रावत इन में ।
भवि ! वृद्धि, हास हो छिन छिन में ।।२७।।
इन सिवा भूम जे जे विशाल ।
वे रहें अवस्थित सदा-काल ।।२८।।
है-मवत पल्य हरि वर्ष जुगल ।
कुरु-देव पल्य त्रिक् आयुष बल ।।२९।।
वय कहीं यथा दक्षिण ‘मानौ’ ।
वय रही तथा उत्तर मानो ।।३०।।
जो क्षेत्र विदेह प्रदत्त-हर्ष ।
हो वहाँ आयु संख्यात वर्ष ।।३१।।
इक सौ नब्बे कर जम्बु-भाग ।
इक भाग-भाग बस भरत-जाग ।।३२।।
जो कही द्वीप जम्बू विभूत ।
वो दुगुण खण्ड़-धातकि अकूत ।।३३।।
निधि खण्ड़-धातकी जैसी है ।
भवि ! आधे-पुष्कर वैसी है ।।३४।।
गिरि मानु-षोत्-तरन पहले बस ।
जा सकते धर-शरीर-मानस ।।३५।।
दो भेद मनुज, गिर्-जिन-मुखरित ।
इक आर्य, म्लेच्छ न लव-संस्कृत ।।३६।।
भवि ! विदेह कुरु दे-वुत्तर तज ।
भू-कर्म भरत-ऐरावत रज ।।३७।।
वय तीन पल्य उत्कृष्ट लखन ।
अन्तर्-मुहूर्त वय मनुज जघन ।।३८।।
वय जितनी कही मनुष्यों की ।
वय उतनी रही तिर्यचों की ।।३९।।
इति श्री मोक्ष-शास्त्रे
तृती-यो(ध्)-ध्यायः नमो नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।३।।
‘चतुर्थ अध्याय’
इक देव भवन-वासी-व्यन्तर ।
ज्योतिष इक वासी-कल्प अमर ।।१।।
आदिन् सुर तीन निकाय मीत ।
होतीं लेश्या पर्यन्त पीत ।।२।।
पन ज्योतिष, दुदश कल्प वासी ।
वसु व्यन्तर, रुदश भवन वासी ।।३।।
दश त्रिदश, इन्द्र इक सामानिक ।
जग-पाल-पारिषद, किल-वीषिक ।।
अभि-योग्य अनी-किक पर-कीर्णक ।
त्रायस-त्रिं-शरु आतम रक्षक ।।४।।
व्यन्तर ज्तोतिष्क निकाय जुगल ।
त्रायस्-त्रिंशरु जग-पाल विकल ।।५।।
पूरब गिनाय जो दो निकाय ।
हैं उनमें दो-दो इन्द्र राय ।।६।।
पर्यन्त स्वर्ग-पुर ऐशाना ।
प्रविचार काय द्वारा माना ।।७।।
होता प्रविचार परस द्वारा ।
फिर रूप शब्द मानस द्वारा ।।८।।
जा सोलह स्वर्गों से ऊपर ।
अप्-प्रवीचार-धर सभी अमर ।।९।।
दश भेद-देव वासी-भवनन ।
भवि ! असुर कुमार, नाग,सुपरण ।।
इक उदधि-कुमार, कुमार-तनित ।
दिक्, द्वीप, वात, अग्निन्, विद्युत ।।१०।।
नामा गन्धर्व, पिशाच त्रिदश ।
इक भूत, यक्ष नामा राक्षस ।।
किम्पुरुष, महोरग अर किन्नर ।
यह आठ प्रभेद देव-व्यन्तर ।।११।।
शशि, सूर्य, नखत, ग्रह, तारा-गण ।
ज्योतिष्क-देव, यह विभेद पन ।।१२।।
नर-लोक देव ज्योतिष तमाम ।
रत मेरु प्रदक्षिण आठ-याम ।।१३।।
गतिमान देव-ज्योतिष द्वारा ।
हो सके विभाग-काल सारा ।।१४।।
बाहिर हैं द्वीप अढ़ाई जे ।
ज्योतिष्क देव संस्थाई वे ।।१५।।
जे जन्म विमानों में पाते ।
वैमानिक देव-कहे जाते ।।१६।।
वैमानिक इक कल्पोप-पन्न ।
वैमानिक कल्पा-तीत अन्य ।।१७।।
ये वैमानिक विमान न्यारे ।
संस्थित ऊपर-ऊपर सारे ।।१८।।
सौधर्म देव ऐशान नाम ।
सानत मा-हेन्द्र विमान नाम ।।
सुर ब्रह्म नाम सुर ब्रह्मोत्-तर ।
नामा लान्तव कापिष्ठ शुकर ।।
सुर महा-शुक्र नामा शतार ।
कल्पोप-पन्न इक सहस्-स्रार ।।
आनत प्राणत आरण अच्युत ।
ग्रै-वेयक नव अनुदिश अद्भुत ।।
सुर विजय वै-जयंतर जयन्त ।
अपराजित सुर सर्वार्थ सिद्ध ।।१९।।
सुख, अवधि-विषय-इन्द्रिय, प्रभाव ।
थिति लिये लेश्य द्युति बढ़त भाव ।।२०।।
सुर ऊपर ऊपर हीन जान ।
गति, देह, परिग्रह’अर गुमान ।।२१।।
जुग स्वर्ग पीत, त्रिक स्वर्ग पद्म ।
लेश्या शुक्ला सुर-शेष-सद्म ।।२२।।
लग स्वर्ग प्रथम, ग्रै-वेय-पूर्व ।
है कल्प-नाम संज्ञा अपूर्व ।।२३।।
नामा जग-ब्रह्म स्वर्ग पंचम ।
सुर लौकान्तिक झूमें परचम ।।२४।।
लौकान्तिक देव प्रकार आठ ।
आदित्य, अरुण इक ‘वह्-नि’ पाठ ।।
इक गर्द तोय, इक सारस्वत ।
इक अरिष्ट, अव्याबाध, तुषित ।।२५।।
विज-यादि विभव भव जे पाते ।
द्वि चरम-शरीरी में आते ।।२६।।
जे नारक नर-सुर अर तमाम ।
संसार जीव तिर्-यञ्च नाम ।।२७।।
वय सागर एक असुर कुमार ।
वय पल्य तीन अहि-सुर कुमार ।।
दो पल्य द्वीप, ढ़ाई सुपरण ।
वय डेढ़-पल्य अवशेष छहन ।।२८।।
उत्कृष्ट कुछ अधिक दो सागर ।
सौधर्म और ऐशान सफर ।।२९।।
माहेन्द्र आयु सानत प्रधान ।
कुछ अधिक सात सागर प्रमाण ।।३०।।
वय ब्रह्मोत्-तर-अर दश सागर ।
जुग-लान्तव वय चौदस सागर ।।
वय शुक्र जुगल-सागर षट्-दश ।
वय जुग-सतार सागर अठ-दश ।।
वय सागर बीस जुगल-आनत ।
सागर बाबीस जुगल-अच्युत ।।३१।।
अर सागर इक-इक वय वैभव ।
कुछ ‘अर’ न मिले ग्रै-वेयक नव ।।
अनुदिश सागर वय और-और ।
बढ़ने विजयादिक और दौड़ ।।
सागर तेतीस जघन वय-अर ।
सर्वार्थ सिद्धि पा रहे अमर ।।३२।।
वय ऐशा-नरु सौधर्म जघन ।
कुछ अधिक पल्य इक जिन प्रवचन ।।३३।।
वय पूर्व-पूर्व उत्कृष्ट-अमर ।
वय जघन स्वर्ग सुर-गण नन्तर ।।३४।।
वय पूर्व-पूर्व उत्कृष्ट नरक ।
वय जघन अनन्तर इष्ट नरक ।।३५।।
हज्जार बरस दश अधिक न कम ।
वय जघन नारकी नरक-प्रथम ।।३६।।
हज्जार बरस दश अधिक न कम ।
वय जघन भ’वन’-वासी आगम ।।३७।।
हज्जार बरस दश अधिक न कम |
वय व्यन्तर जघन जैन-आगम ।।३८।।
उत्कृष्ट आयु व्यन्तर सुर-गण ।
कुछ अधिक पल्य इक जिन प्रवचन ।।३९।।
उत्कृष्ट आयु ज्योतिष सुर-गण ।
कुछ अधिक पल्य इक जिन प्रवचन ।।४०।।
ज्योतिष्क देव गण वय जघन्य ।
‘जिन वचन’ आठवें भाग पल्य ।।४१।।
वय लौकान्तिक उत्कृष्ट जघन ।।
सागर प्रमाण वसु माँ-प्रवचन ।।४२।।
इति श्री मोक्ष-शास्त्रे
चतुर्-थो(ध्)-ध्यायः नमो नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।४।।
‘पंचम अध्याय’
धर्मिक अधर्म अवकाश दाय ।
पुद्-गल यह सभी अजीवकाय ।।१।।
आकाश धर्म पुद्-गल अधर्म ।
यह सभी ‘द्रव्य’ मत जैन धर्म ।।२।।
ध्यातव्य बात यह सदा भव्य ।
है जीव नाम भी एक द्रव्य ।।३।।
यह द्रव्य सभी अद्-भुत अनूप ।
हैं नित्य-अवस्थित, हैं अरूप ।।४।।
इक पुद्-गल नाम द्रव्य इनमें ।
चर्चित वह रूपी ऋषि-गण में ।।५।।
संख्या में एक अधर्म द्रव्य ।
आकाश एक, इक धर्म द्रव्य ।।६।।
ये द्रव्य तीन जे एक-एक ।
निष्-क्रिय वज्रांकित जैन लेख ।।७।।
धर्मरु अधर्म इक जीव ख्यात ।
गणना प्रदेश है असंख्यात ।।८।।
आकाश प्रदेशों की गणना ।
है ‘अनन्त, मत’ संशय करना ।।९।।
पुद्-गल प्रदेश संख्यात, नन्त ।
हैं असंख्यात भी ‘भी’ सुगंध ।।१०।।
जिन जैनागम-संतोप-देश ।
परमाणु न होते हैं प्रदेश ।।११।।
अवगाह द्रव्य धर्मादि नेक ।
बस केवल लोका-काश एक ।।१२।।
खिल लोका-काश अधर्म-धर्म ।
अवगाह नाह-जिन-धर्म मर्म ।।१३।।
लोका-काशेक प्रदेश आद ।
पुद्-गल अवगाह विकल्प साथ ।।१४।।
लोका-काशाद असंख्य भाग ।
अवगाह जीव मत वीतराग ।।१५।।
विस्तार सकोची भाँत दीव ।
अवगाह लोक आकाश जीव ।।१६।।
उपकार धर्म गति में निमित्त ।
संथिति उपकार-अधर्म मित्र ।।१७।।
अद्-भुत महान अवकाश दान ।
उपकार द्रव्य ‘आकाश-वाण’ ।।१८।।
उपकार पुद्-गलों का गाया ।
मन प्राणा-पान वचन काया ।।१९।।
पुद्-गल-पुद्-गल उपकार और ।
सुख-दुख, यम-जीवन, भाग-दौड़ ।।२०।।
भो ! पार एक दूजे लाना ।
उपकार जीव जाना-माना ।।२१।।
परिणाम, क्रिया, वर्तन, परत्व ।
अपरत्व, अनुग्रह काल तत्व ।।२२।।
पुद्-गल अद्-द्वितिय फरस वाले ।
अर गन्ध वर्ण अर रस वाले ।।२३।।
थूलातप, शब्द, बन्ध, सूक्षम ।
उद्योत, छाँव, संस्था-नरु तम ।।२४।।
दिश्-दश सुगंध जिन श्रुतस्-कंध ।
पुद्-गल विभाग जुग अणुस्-कंध ।।२५।।
प्रतिकार-सन्ध संघात-भेद ।
अवतार कन्ध संघात-भेद ।।२६।।
सन्देश मनुज केवल ज्ञाना ।
अणु जन्म भेद केवल माना ।।२७।।
मिल-जुल संघात भेद करणी ।
अवतार कन्ध-चाक्षुष धरणी ।।२८।।
प्रवचन निर्गत रति-रोष श्रमण ।
सत् सुनो ! द्रव्य निर्दोष लखन ।।२९।।
उत्पाद युक्त जो व्यय संयुक्त ।
सत्, सत् है वह, वो धौव्य युक्त ।।३०।।
यह वही, यही जो आभाषा ।
साहित्य नित्य की परिभाषा ।।३१।।
सापेक्ष वस्तु इक मुख्य गौण ।
दो धर्म विरोधी सिद्ध मौन ।।३२।।
चिकनापन अथवा रूखापन ।
प्रवचन-निर्ग्रन्थ, बन्ध कारण ।।३३।।
पुद्-गल जघन्य गुण वाले जो ।
नहिं उनका बन्ध निराले वो ।।३४।।
होने पर गुण पुद्-गल समान ।
नहिं बन्ध सदृश भी गुण विधान ।।३५।।
शकत्यंश कहूँ या गुण न भेद ।
दो अधिक चाहिए बन्ध हेत ।।३६।।
गुण अधिक परिणमा ले समूल ।
गुड़ गीला धूल यथा अमूल ।।३७।।
पर्याय और गुण वाला है ।
अद्भुत है, द्रव्य निराला है ।।३८।।
ध्यातव्य, भव्य हे ! मति मराल ।
इक द्रव्य और भी नाम-काल ।।३९।।
सम-शरण अलौकिक उजियाला ।
वह काल अनंत समय वाला ।।४०।।
जे सदा द्रव्य में रहते हैं ।
निर्गुण वे गुण, जिन कहते हैं ।।४१।।
फिर के तद्भाव बना रहना ।
‘परिणाम’ जिनागम का कहना ।।४२।।
इति श्री मोक्ष-शास्त्रे
पञ्-चमो(ध्)-ध्यायः नमो नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।५।।
‘षष्ठम् अध्याय’
तन-क्रिया, क्रिया-मन, क्रिया-वचन ।
यह योग, सयोग दिया प्रवचन ।।१।।
जिन, भाई जिन्हें दृष्टि-नासा ।
तिन योग वही आस्रव भाषा ।।२।।
शुभ योग पुण्य-आस्रव सयोग ।
कारण पापस्रव अशुभ योग ।।३।।
ईर्यापथ आस्रव गत-कषाय ।
आस्रव कषाय-युत साम्पराय ।।४।।
आस्रव कषाय चउ अव्रत पञ्च ।
इन्द्रिय पन क्रिय पन गुणित पञ्च ।।५।।
वर तीव्र-मन्द अज्ञात भाव ।
अर वीर्य अधिकरण ज्ञात भाव ।।६।।
दूजा अजीव विरला वाना ।
अधिकरण जीव पहला माना ।।७।।
त्रिक् कृतादि सं-रम्भा-दिक त्रिक् ।
रु कषाय ‘योग’ तिय वसु सौ इक ।।८।।
ति निसर्ग योग ‘जुग’ निर-वर्तन ।
निक्षेप चउ अजी-वाधि-करण ।।९।।
उपघात, असादन, मात्सर्य ।
निह्-नव प्रदो-षन्-तराय वर्य ।।
आवरण ज्ञान आस्रव वरने ।
दर्शनावरण आस्रव वरणे ।।१०।।
हा ! वेद्य स्व-पर ‘अर’ परि-देवन ।
दुख, शोक, ताप, वध, आक्रन्दन ।।११।।
कर्मास्रव वेदनीय साता ।
अनुकम्पा भूत व्रती ध्याता ।।
दानादि योग संयम सराग ।
अर क्षान्ति शौच प्रवचन विराग ।।१२।।
आस्रव दृग्-मोह अवर्णवाद ।
श्रुत, देव, केवली, धर्म आद ।।१३।।
चरि-तास्रव मोह उदय कषाय ।
परिणाम तीव्र भव-विभव दाय ।।१४।।
नरकाय-आय आरंभ बहुत ।
‘अर’ हाय-हाय-पन परिग्रह बुत ।।१५।।
सम-शरण दिव्य धुन जिनराया ।
तिर्-यञ्च आयु आस्रव माया ।।१६।।
नर आय आय आरम्भ अलप ।
दुख-दाय ! हाय ! पन परिग्रह जप ।।१७।।
नर काय आय अर अधिकारी ।
आ जन्म-गर्भ मृदुता धारी ।।१८।।
व्रत रहित शील विरहित होना ।
आस्रव आयुष्क सकल ‘जो ना’ ।।१९।।
तप बाल ‘संयमा-संयम’ अर ।
संयम-सराग अकाम-निर्जर ।।२०।।
देवाय आय ‘मत साध’ पाठ ।
सम्यक्त्व और लो बाँध गाँठ ।।२१।।
प्रद आस्रव नाम-अशुभ प्रसाद ।
हा ! योग वक्रता विसंवाद ।।२२।।
‘अवि-संवा-दरु’ सारल्य योग ।
शुभ नाम कर्म आस्रव सयोग ।।२३।।
दर्शन विशुद्धि, सम्पन्न विनय ।
अतिचार शून व्रत शीलद्-द्वय ।।
ज्ञानोप-योग संवेग सतत ।
तप त्याग समाधि सु-वैय्या-वृत ।।
अरिहत, आचार्य भक्ति पाठक ।
पन-अपरि-हार षट् आवश्यक ।।
वत्सल-प्रवचन, प्रवचन-भक्ती ।
आस्रव तीर्थक कीर्तक मुक्ती ।।२४।।
परनिन्द असद्-गुण उद्-भावन ।
निज प्रशंस सद्-गुण उच्छादन ।।२५।।
दूजा गोत्रास्रव उच्च लेख ।
भवि ! वृत्ति नम्र इक अनुत्सेक ।।
निज निन्द असद्-गुण उच्छादन ।
पर-प्रशंस सद्-गुण उद्-भावन ।।२६।।
दानादिक विघ्न-करण शुरु-भी । ।
कर्मास्रव अन्तराय ‘सुर-भी’ ।।२७।।
इति श्री मोक्ष-शास्त्रे
षष्-ठमो(ध्)-ध्यायः नमो नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।६।।
‘सप्तम् अध्याय’
व्रत विरत झूठ, हिंसा, चोरी ।
अब्रह्म विरत माया जोड़ी ।।१।।
उपदेश महा-व्रत सर्व-देश ।
हिंसादि ‘विरत’ अणु एक-देश ।।२।।
व्रत रखने थिर सम्मत विरंच ।
भावन प्रतेक व्रत पंच पंच ।।३।।
दिन भोजन आदाँ निक्षेपण ।
समिती ईर्या गुप्ती वच-मन ।।४।।
कुप्-प्रलोभ-प्रत्या-ख्यान हास ।
भय प्रत्या-ख्या-ननु वीचि भाष ।।५।।
शुचि भो-जन वारण ‘रिता’ वास ।
अवि-संवा-दर मोचिता वास ।।६।।
रस त्याग अंग तिय कथा-राग ।
रत पूर्व ‘भोग’ श्रृंगार त्याग ।।७।।
अमनोज्ञ इन्द्रि-यन विषय भोग ।
परि-त्याग रोष अर रति मनोग ।।८।।
हा ! निन्दनीय हिंसादि पाप ।
प्रद इह-अमुत्र संक्लेश ताप ।।९।।
मन साँझ साँझ भावन गूँजे ।
हिंसादि पाप दुख ही दूजे ।।१०।।
माध्यस्थ और प्रिय जगत् तीन ।
अनुराग गुणी, कारुण्य दीन ।।११।।
संवेग और वैराग्य हेत ।
भाई स्वभाव-जग-तन समेत ।।१२।।
बन प्रमत्त, विहँसा मति-हंसा ।
प्राणों का वध करना हिंसा ।।१३।।
बन प्रमत्त विहँसा हंसा मत ।
कहना असत्य विख्यात अनृत ।।१४।।
विहँसा मति हंसा बन प्रमत्त ।
आदान वस्तु चोरी अदत्त ।।१५।।
बन प्रमत विहँसा हंस बुद्ध ।
मैथुन अब्रह्म जगत् प्रसिद्ध ।।१६।।
विहँसा मति हंसा प्रमत्त बन ।
मूर्च्छा परि-ग्रह चर्चित त्रिभुवन ।।१७।।
विरहित माया मिथ्या निदान ।
निःशल्य व्रती इक त्रिक्-जहान ।।१८।।
अनगार दूसरे व्रत धारी ।
गृह-सन्त अगारी बलिहारी ।।१९।।
अधिकारी मरण बाल पण्डित ।
पन अहिंसादि अणु-व्रत मण्डित ।।२०।।
उपभोग भोग परिमाण विरत ।
संविभाग अतिथि महान विरत ।।२१।।
गुरु परम प्रीति पूर्वक सुमरण ।
वर स्वयं प्रीति पूर्वक सु-मरण ।।२२।।
थव-दृष्टि-औ प्रशंसा शंका ।
विचिकित्सा दृगति-चार कांक्षा ।।२३।।
व्रत शील पंच पंचाति-चार ।
क्रम-बार भव्य ! अथ इस प्रकार ।।२४।।
वध, बन्धन, अति-भारा-रोपण ।
छेदन, निरोध-पानी-भोजन ।।२५।।
साकार मंत्र ‘भेदन’ प्रहास ।
वच ‘कूट’ लेख अपहार न्यास ।।२६।।
चोरी प्रयोग क्रय माल लूट ।
हा ! हाट-बाँट नृप-नियम-टूट ।।२७।।
कामातिरेक रत पर-विवाह ।
अर गणिका ‘गमन’ अनंग ग्राह ।।२८।।
घर, खेत, रूप्य, धन, स्वर्ण, धान ।
दासौर कुप्य अतिक्रम प्रमाण ।।२९।।
अध तिर्-यग् व्यति-क्रम ऊर्ध्व ओर ।
अर क्षेत्र वृद्धि विस्मरण-छोर ।।३०।।
आ-‘नयन’-प्रेष्य शब्दानु-पात ।
पुद्-गल क्षेपण रूपानु-पात ।।३१।।
कन्दर्प, मुखर-ता कौत्-कुच्य ।
अस-मीक्ष्य ‘भोग-अर’ अनर्थक्य ।।३२।।
मन-काय-वान दुष्-प्रणि-धान ।
अवधान-हान व्रत मान-हान ।।३३।।
उत्सर्ग शैन बिन-देख शोध ।
आदान, अनादर, लोप-बोध ।।३४।।
आहार सचित् अभि-षवाहार ।
संबंध दुपक मिश्रिता-हार ।।३५।।
निक्षेप सचित् अपि-धान और ।
मात्सर्य, विस्मरण दान और ।।३६।।
आशंस मरण-जीवन निदान ।
अनुराग मित्र सुख-पूर्व ध्यान ।।३७।।
भावन उपकार-स्वपर पवित्र ।
परि-त्याग वस्तु निज दान मित्र ।।३८।।
विधि, द्रव्य, पात्र, दाता विशेष ।
वरदान दान संशय न लेश ।।३९।।
इति श्री मोक्षशास्त्रे
सप्त-मो(ध्)-ध्यायः नमो नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।७।।
‘अष्टम अध्याय’
मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद ।
बन्धन कषाय अर योग-जात ॥१॥
कर कर्म योग पुद्-गल अपने ।
सकषाय जीव लगता बँधने ।।२।।
प्रकृती, संस्थिति, अनुभव, प्रदेश ।
ये भेद-बन्ध प्रवचन जिनेश ॥३॥
आवरण ज्ञान दृग् नाम आय ।
वेदन-मोहन गोत्रन्-तराय ।।४।।
क्रमशः पन नव ब्यालीस चार ।
जुग ‘आठ-बीस’ जुग पन प्रकार ।।५।।
मति-ज्ञान, ज्ञान-श्रुत, अवधि-ज्ञान ।
मन-पर्यय, केवल-ज्ञान-भान ॥६॥
निद्रादि पंच चक्षुस्-दर्शन ।
केवल अवधि अचक्षुस्-द्शन ।।७।।
है पहली साता वेदनीय ।
अर प्रकृति असाता वेदनीय ॥८॥
दो चरित्र ‘मोह’ दर्शन तीनों ।
सोलह कषाय-नौ नौ गीनो ।।९।।
तिर्-यञ्चा-यिक नरकाय एक ।
इक आय देव नर आय एक ॥१०॥
संस्थान नाम संघात जात ।
निर्माण अगुरुलघु वर्ण गात ।।
गति आनुपूर्वी ‘सं-हनन’ फरस ।
उद्यो-तातप पर-घातर रस ॥
तीर्थंकर अंगो-पांग गन्ध ।
गति विहायसी ‘उच्-छ-वास’ बन्ध ॥
त्रस तन प्रत्येक सुभग सुस्वर ।
थावर तनौर दुर्भग दुस्वर ॥
शुभ, अपर्याप्त, बादर, अस्थिर ।
पर्याप्त, अशुभ, सूक्षम, संस्थिर ।।
आदेय और इक यशः कीर्त ।
इक अनादेय अपयशः कीर्त ॥११॥
जो गोत्र कर्म वसु रहा बीच ।
इक उच्च दूसरा कहा नीच ॥१२॥
इक दान लाभ भोगान्-तराय ।
अर वीरज उप भोगान्-तराय ॥१३॥
वेद्यन्-तराय ज्ञाना-वरणर ।
थिति कोटा-कोटि तीस सागर ॥१४॥
उत्कृष्ट मोह थिति श्रुत-सुबोध ।
श्रुति सागर सत्तर कोटि-कोट ॥१५॥
थिति नाम गोत्र वर धुनि शिरीष ।
भवि सागर कोटा कोट बीस ॥१६॥
संस्थिति उत्कृष्ट आयु कर्मन ।
तैतीस साग-रोपम वर्णन ॥१७॥
बारह मुहूर्त भाई भागिनी ।
थिति जघन कर्म वेदन वरणी ।।१८।।
थिति मान्य जघन्य मुहूर्त आठ ।
द्वय नाम गोत्र धुनि-दिव्य पाठ ।।१९।।
थिति जघन कर्म अव-शेष पाँच ।
अन्तर्-मुहूर्त क्या ? साँच आँच ।।२०।।
फल दान शक्ति का पड़ जाना ।
अनुभवियों ने अनुभव माना ।।२१।।
सुप्रसिद्ध नाम जिसका जैसा ।
फल वैसा, फेर-बदल कैसा ।।२२।।
वे अपना-अपना देके फल ।
स्वयमेव कर्म सब देते चल ।।२३।।
थित सूक्ष्म योग अणु नन्त-नन्त ।
क्षेत्राव-गाह-इक आत्म बन्ध ।।२४।।
सद्-वेद्य आयु शुभ गोत्र नाम ।
ये प्रकृति पुण्य संज्ञक तमाम ।।२५।।
अवशेष प्रकृति इनके सिवाय ।
सब पाप रूप फल दुख-प्रदाय ।।२६।।
इति श्री मोक्षशास्त्रे
अष्ट-मो(ध्)-ध्यायः नमो नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।८।।
‘नवम् अध्याय’
जन जन ने माना निर्विरोध ।
‘संवर संज्ञक’, आस्रव-निरोध ।।१।।
वह गुप्ति, समिति, अनुप्रेक्ष रूप ।
परिषह जय, धर्म चरित अनूप ।।२।।
होती न अकेली निर्जर ही ।
‘तप से’, होता है संवर भी ।।३।।
निग्रह योगों का भली भाँत ।
वह गुप्ति, किसे यह खली बात ।।४।।
उत्सर्-गिक आदाँ-निक्षेपण ।
इक समिति भाष, ईया, ऐषण ।।५।।
मृदु, क्षमा, शौच, ऋजु, सत्, संयम ।
तप, त्याग, अकिंचन, ब्रह्म धरम ।।६।।
अनुपेक्ष अनित्य, अशुचि, निर्जर ।
संसार, लोक, आस्रव, संवर ।।
एकत्व, बोधि, दुर्लभ, अशरण ।
अन्यत्व, धर्म स्वाख्यात अहन ।।७।।
अच्यवन मार्ग संवर शिवार्थ ।
वे सह्य परी-षह निर्जरार्थ ।।८।।
शीतोष्ण, क्षुध्, पिपासा, चर्या ।
नग्नत्व, वध, निषद्या, शय्या ।।
आक्रोश, रोग, मल, तृणस्-पर्श ।
अज्ञान, अरति, प्रज्ञा, अदर्श ।।
सत्कार-समाहित-पुरस्कार ।
दंशक, याँचना, अलाभ, नार ।।९।।
छद्मस्थ-अरति लव साम्पराय ।
दश-चार परी-षह श्रुत गिनाय ।।१०।।
जिन सन्त जैन आगम धारा ।
अरिहन्त जिन परीषह ग्यारा ।।११।।
तर बादर साम्पराय खीसा ।
सम्पूर्ण परी-षह बाबीसा ।।१२।।
प्रज्ञा परिषह अज्ञान जनम ।
सद्-भाव आवरण ज्ञान करम ।।१३।।
परिषह अदर्श दृग्-मोह जाय ।
परिषह अलाभ लाभान्-तराय ।।१४।।
आक्रोश, निषधा, अरति, नार ।
सत्कार-समाहित-पुरस्कार ।।
नग्नत्व और परिषह, याँचा ।
सद्-भाव मोह चारित वाँचा ।।१५।।
अवशेष परी-षह जो नाना ।
सद्-भाव वेद्य ताना-बाना ।।१६।।
सविकल्प एक से ले उनीस ।
सम्भव युगपत् परिषह मुनीश ।।१७।।
परि-हार ‘विशुद्ध’ छेद समता ।
थाख्यात चरित्र, सूक्ष्म ममता ।।१८।।
तन-क्लेश, त्याग-रस, उदर-ऊन ।
परि-संख्य-वृत्ति, उपवास ‘शून’ ।।१९।।
स्वाध्याय, विनय, तप, प्रायश्चित ।
व्युत्सर्ग, ध्यान, तप, वैय्यावृत ॥२०।।
क्रम-बार ‘ध्यान-अर’ पाँच, चार ।
नो, दो, दश तप ‘भी’तर प्रकार ।।२१।।
तप, छेद, प्रति-क्रमण, आलोचन ।
तदुभय, विवेक इक उप-थापन ।।
व्युत्सर्ग और इक परी-हार ।
हैं प्रायश्चित यह नव प्रकार ।।२२।।
चौ विनय ज्ञान, आचार, विनय ।
इक दर्शन अर उपचार विनय ।।२३।।
बुध, सूर, शैक्ष्य, गण, क्लान्त-रोग ।
कुल, साधु, संघ, तापस-मनोज्ञ ।।२४।।
वाचन, स्वाध्याय, धर्म-देशन ।
आम्नाय, पृच्छना, अनु-पेक्षण ।।२५।।
व्युत्सर्ग उपधि इक बाह्य त्याग ।
अभ्यन्तर त्याग उपधि सजाग ।।२६।।
थिर ध्यान वृत्ति, चित् विषय एक ।
अन्तर्-मुहूर्त ‘सं-हनन’ नेक ।।२७।।
इक आर्त रौद्र इक शुक्ल ध्यान ।
औ’ धर्म ध्यान चौ सकल ध्यान ।।२८।।
धर्मौर शुक्ल ये ध्यान द्वेत ।
धुनि दिव्य भव्य ! निर्माण हेत ।।२९।।
अमनोग वियोग योग लाना ।
यह ध्यान आर्त पहला माना ।।३०।।
सुमनोग वियोग योग लाना ।
यह ध्यान आर्त दूजा माना ।।३१।।
चिन्ता पीड़ा घुलते जाना ।
यह ध्यान आर्त तीजा माना ।।३२।।
भाना कल विषय-भोग गाना ।
यह ध्यान आर्त चौथा माना ।।३३।।
सद्-भाव ध्यान आरत अविरत ।
संयत-प्रमत्त अर देश-विरत ।।३४।।
चोरी असत् तिजोरी हिंसा ।
ध्याँ रौद्र पाप देशिक ध्वंसा ।।३५।।
आज्ञा अपाय संस्थान विचय ।
ध्याँ धर्म कर्म-फल-दान विचय ।।३६।।
सवितर्क पृथक-इक शुक्ल ध्यान ।
भर्तार ‘पूर्व’ विद् सकल-ज्ञान ।।३७।।
क्रिय पात सूक्ष्म क्रिय शुकल ध्यान ।
भर्ता अपूर्व विद् सकल ज्ञान ।।३८।।
क्रिय सूक्ष्म पात सवितर्क पृथक् ।
क्रिय पूर्ण घात सह वितर्क यक ।।३९।।
तिय योग पृथक् ‘अर’ एक योग ।
क्रिय काय योग अक्रिय अयोग ।।४०।।
संज्ञा पृथकत्व एकत्व धार ।
सवितर्क इकाश्रय सवी-चार ।।४१।।
पर हाँ…रहना थोड़े सतर्क ।
ध्याँ अवी-चार भाविक वितर्क ।।४२।।
गत ‘तर्क-वितर्क’ वितर्क अर्थ ।
श्रुत सर्व मान्य निर्बल-समर्थ ।।४३।।
संक्रान्ति अर्थ व्यंजन योगन ।
वीचार मान्य बिन आलोचन।।४४।।
सम-दृष्टि निर्जरा गुण असंख्य ।
श्रावक विरत वियोजक अनंत ।।
दृग् क्षपक, उप-शमक मोह शान्त ।
अर क्षपक मोह-बिन जिन प्रशान्त ।।४५।।
‘निर्ग्रन्थ’ पुलाक, वकुश, कुशील ।
निर्ग्रन्थ, सनातक अगम-लील ।।४६।।
संयम श्रुत प्रति-सेवना तीर्थ ।
उप-पाद लेश्य लिंग ‘थान कीर्त’ ।।४७।।
इति श्री मोक्ष-शास्त्रे
नव-मो(ध्)-ध्यायः नमो नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।९।।
‘दशम् अध्याय’
क्षय मोह दर्श आवर्ण ज्ञान ।
क्षय अन्तराय जय पूर्ण ज्ञान ॥ १ ॥
बल निर्जर क्षय कर्मन तमाम ।
जय बन्ध हेत, बस मोक्ष धाम ॥२॥
अर भाव ‘उप-शमा-दिक’ अभाव ।
‘मुक्ती’ अभाव भव्यत्व भाव ॥३॥
सिद्धत्व सिद्ध केवल दर्शन ।
सम्यक्त्व ज्ञान केवल पर्शन ॥४॥
जैसे ही जीव मुक्ति पाता ।
ऊपर लोकान्त तलक जाता ॥५॥
पूरब-प्रयोग, संगिक-अभाव ।
दो-टूक-बंध, कारण स्वभाव ॥६॥
कुम्हार-चक्र, तुम्बी-सजात ।
एरण्ड-बीज, शिख-अग्नि भाँत ॥७॥
धर्मास्तिकाय आगम प्रसिद्ध ।
बस गमन वही तक स्वयं सिद्ध ॥८॥
गति, क्षेत्र, काल, प्रत्येक-बुद्ध ।
लिंग, तीर्थ चरित, बोधित-प्रबुद्ध ॥
अवगाहन, अल्प-बहुत्व ज्ञान ।
संख्या, अन्तर ‘दश-तीन ठान’ ॥९॥
इति श्री मोक्ष-शास्त्रे
दश-मो(ध्)-ध्यायः नमो नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।१०।।
*जयमाला*
दोहा
सभी छोड़ देवें भले,
माँ न छोड़ती साथ ।
तभी कण्ठ माँ आ बसें,
किसकी नहीं मुराद ।।
भक्त सन्तन,सीधा-साधा ।
बड़ा कुछ नहीं अभी ज्यादा ।।
कुल मिला के भोला-भाला ।
नाम कोण्ड़ेश एक ग्वाला ।।१।।
रच चला गाथाएँ अनगिन ।
बन चला कुन्द-कुन्द भगवन् ।।
मिला था उसे बना पोटर ।
शास्त्र इक रखा वृक्ष-कोटर ।।२।।
उठा था लाया घर अपने ।
विनय से रख सर पर अपने ।।
बड़ा खुश था अन्दर-अन्दर ।
पधारे मुनि इक दिन मन्दर ।।३।।
शास्त्र ले ऋषिवर पास चला ।
अश्रु-जल चरणन-श्रमण धुला ।।
बोलता गद-गद वाणी में ।
आप ध्यानी, अज्ञानी मैं ।।४।।
तभी से ‘मानौ’ भाग जगा ।
ग्रन्थ ये मेरे हाथ लगा ।।
आप सद्-पात्र न अर दूजा ।
ठान चरणन तुम की पूजा ।।५।।
मूढ़ मैं, तुम अन्तर्यामी ।
भेंट ये स्वीकारें स्वामी ।।
कीजिये बस इतनी करुणा ।
दीजिये चरणों में शरणा ।।६।।
ग्रन्थ पाकर मुनि हर्षाये ।
गगन जयकार-श्रुत पठाये ।।
यही ग्वाला पा भव अगला ।
भाँत वन-चन्दन दिव विरला ।।७।।
रूप सुन्दर बड़ा सलोना ।
बुद्धि आगे जिस जग बौना ।।
चूँकि ‘विष’ विषय छोड़ दीने ।
हाथ निज केश-लोंच कीने ।।८।।
चीर चीरे, आकर वन में ।
लहर उठती न एक मन में ।।
तभी प्राकृत पाहुड़ विरचे ।
स्वर्ग में भी जिनके चरचे ।।९।।
‘मंगलम् वीरो-गौतम’ फिर ।
जिन्हें हर-जैन झुकाये सिर ।।
‘आम्ना-कुन्द-कुन्द’ चलती ।
स्वप्न भी कहो किसे खलती ।।१०।।
कृपा ‘माँ-श्रुत’ अपरम्पारा ।
धरण धर-सहस-जिह्व हारा ।।
जुवाँ इक मेरा नाता भो ।
‘निराकुल’-मौन सुहाता सो ।।११।।
‘दोहा’
माँ सरसुति, माँ शारदे,
माँ द्वादश जिन वैन ।
बनी रहे तेरी कृपा,
सिर ‘सहजो’ दिन-रैन ।।
ॐ ह्रीं श्री मॉं जिनवाणी नमो नमः
जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘सरसुति-मंत्र’
ॐ ह्रीं अर्हन्
मुख कमल-वासिनी
पापात्-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-ज्-ञानज्-ज्वाला
सह(स्)-स्र(प्) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-संभवे
वं वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*विसर्जन पाठ*
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।१।।
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।२।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।३।।
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।४।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
दोहा-
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
बनी रहे यूँ ही कृपा,
सिर ‘सहजो’ निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये
‘आरती’
मुख अरिहन्त खिरी ।
गणधर कर्ण पड़ी ।।
वाणी-कल्याणी ।
वो माँ जिनवाणी ।
कलि जल जन्म तरी ।।
समो-शर्ण छाई ।
कर्ण कर्ण आई ।।
वाणी-कल्याणी ।
वो माँ जिनवाणी ।
सो श्रुत कहलाई ।।१।।
अक्षर संज्ञा ई ।
ज्यों की त्यों आई ।।
वाणी-कल्याणी ।
वो माँ जिनवाणी ।
आगम कहलाई ।।२।।
हुई बुद्धि मन्दा ।
तभी लिपी बद्धा ।।
वाणी-कल्याणी ।
वो माँ जिनवाणी ।
कहलाई ग्रन्था ।।३।।
भेद अंग बारा ।
चौदा पुव धारा ।।
वाणी-कल्याणी ।
वो माँ जिनवाणी ।
वेद प्रसिद्ध चारा ।।४।।
द्वतिय नाम करणा ।
तृतिय नाम चरणा ।।
वाणी-कल्याणी ।
वो माँ जिनवाणी ।
प्रथम द्रव्य वरणा ।।५।।
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