आचार्य श्री
‘लघु-चालीसा’
‘दोहा‘
श्रद्धा से जिसने लिया,
विद्या सागर नाम ।
आँखों देखी कह रहा,
बनता बिगड़ा काम ।।
जयतु जयतु जय विद्या-सागर ।
सन्त शिरोमण ! गुण रत्नाकर ।।
श्री मति सुत मल्लप्पा नन्दन ।
जन्म सदलगा माटी चन्दन ।।१।।
कोमल हृदय ! भद्र-परिणामी ।
पर-हित-आतुर ! अन्तर्जामी ।।
श्री गुरु ज्ञान-सिन्धु मन बसिया ।
कुन्द-कुन्द श्री-गुरु गुण-रसिया ।।२।।
खाते धूप खिलाते छाया ।
माँ किरदार बड़ा मन भाया ।।
इक सुकून मिलता है मन को ।
अपनी व्यथा सुना के इनको ।।३।।
दुखड़ा सबका हर लेते हैं ।
सुखिया सबको कर देते हैं ।।
भर देते हैं झोली खाली ।
बस आ जाये द्वार सवाली ।।४।।
दुखी किसी को देख न पाते ।
झिर लग दृग् पानी बरसाते ।।
हुआ आपका नजर उठाना ।
तम ने यम का घर पहचाना ।।५।।
भले दूर से तुम दिख जाते ।
प्रश्नों के उत्तर मिल जाते ।।
यात्रा थकन, मिटाती सारी ।
मिली एक मुस्कान तुम्हारी ।।६।।
अमरित झिरे चन्द्र मुख ऐसा ।
बूँद खरीद न पाये पैसा ।।
तुम जिससे बतिया लेते हो ।
मन उसका हथिया लेते हो ।।७।।
चरणोदक जिसने तुम पाया ।
सुख-वैकुण्ठ तुरत ठुकराया ।।
स्वर्गों में सुख क्या मिलता है ।
आज करीब ‘निराकुलता’ है ।।८।।
श्वास और निःश्वास सभी के ।
आप एक विश्वास सभी के ।।
तुम्हें छोड़ द्वारे किस जायें ।
तुम्हीं हमारे तभी बुलायें ।।९।।
अश्रु सिवा कुछ पास न मेरे ।
जो चरणों में रख दूँ तेरे ।।
ले भावन, पल-अंतिम सुमरण ।
श्रद्धा सुमन करूँ मैं अर्पण ।।१०।।
‘दोहा’
एक दृष्टि बस डाल दो,
साथ मन्द मुस्कान ।
बड़ा और कोई नहीं,
यही एक अरमान ।।
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