भक्ता-मर-स्तोत्र ६६
सुर, नर, नाग-शरण ।
कोटि-कोटि वन्दन ।।१।।
इन्द्र थुति सुहानी ।
इन अंखियन पानी ।।२।।
लाज-पत गवाना ।
गुण तुमरे गाना ।।३।।
सुर-गुरु पछताये ।
क्यों ? तुम गुण गाये ।।४।।
तेरी भक्ति मगर ।
कहती बाँध कमर ।।५।।
आप भक्ति कारण ।
कूक मधुर पिक वन ।।६।।
दर्शन आप असर ।
दिखें पाप यम घर ।।७।।
दया तुम अलौकिक ।
थुति यह होगी इक ।।८।।
क्या थव ? तव भगती ।
पाप चूर करती ।।९।।
बढ़ के पारस तुम ।
करते अपने सम ।।१०।।
देख तुम्हें अपलक ।
इन्द्र न पाया छक ।।११।।
माटी वो अद्भुत ।
गुम, रच करुणा बुत ।।१२।।
दाग-दार शशि दुख ।
नयनहार तुम मुख ।।१३।।
गुण स्वछन्द विचरें ।
आप हाथ पकड़ें ।।१४।।
नार मार मद गुम ।
लख नासा दृग् तुम ।।१५।।
अगम हवा झोंके ।
दीप तुम अनोखे ।।१६।।
विनत राहु निकले ।
सूरज तुम विरले ।।१७।।
चीन न अमि बाँटा ।
छवि शशि बड़ नाता ।।१८।।
रवि शशि भव विरथा ।
‘दिया’ तुम तम मिटा ।।१९।।
आप ज्ञान भी तर ।
और अभि-मान तर ।।२०।।
कृपा सरागी धन ।
तुम अनुरागी मन ।।२१।।
एक माँ तुम मही ।।
पुत्र तुम सा नहीं ।।२२।।
सार्थक नाम अमर ।
तुम्हें मान देकर ।।२३।।
हरि-हराद सबरे ।
नाम और तुमरे ।।२४।।
शमकर, पुरुषोत्तम ।
बुद्ध, विधाता तुम ।।२५।।
नमो नमः असि, सा ।
ओं नम: आ, उसा ।।२६।।
और औगुन ‘चुना’ ।
तुम्हें गुण ने, सुना ।।२७।।
तुम तन अशोक तर ।
मेघ निकट दिनकर ।।२८।।
सिंहासन देखा ।
तुम्हें पा, नभ दिखा ।।२९।।
तन तुम स्वर्ण चँवर ।
झिरे मेरु निर्झर ।।३०।।
छतर तीन जग-मग ।
कहे ईश तुम जग ।।३१।।
दे फेरी दिश् दश ।
गाये भेरी जश ।।३२।।
झिर जल-गन्ध सुमन ।
मनहर मन्द पवन ।।३३।।
अभिजित शशि शीतल ।
छवि रवि भा-मण्डल ।।३४।।
दुख त्रिभुवन हारी ।
दिव्य धुन तुम्हारी ।।३५।।
पल विहार पद तर ।
रचते कमल अमर ।।३६।।
विभव तुम समशरण ।
और नहीं त्रिभुवन ।।३७।।
तुम्हें पलक ले भज ।
होता प्रशान्त गज ।।३८।।
जुड़ा आप रिश्ता ।
पकड़े सिंह रस्ता ।।३९।।
छुआ नाम तुम जल ।
प्रशमित दावानल ।।४०।।
निरत आप जश में ।
आप साँप वश में ।।४१।।
ले बस तुम्हें सुमर ।
कहता ओम् समर ।।४२।।
कृपा नाम तेरी ।
मित्र बने, वैरी ।।४३।।
झंझा-वात भले ।
तट तुम भक्त मिले ।।४४।।
नाम तुम दवाई ।
रोग सब बिदाई ।।४५।।
किया तुम्हें वन्दन ।
तड़ तड़ाट बन्धन ।।४६।।
हुये क्या तुम्हारे ।
लगे भय किनारे ।।४७।।
माँ देवी विद्या ।
दे दो भी विद्या ।।४८।।
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