भक्ता-मर-स्तोत्र ५४
भवि भक्त अमर ज्यों झुकते ।
मुकुटों के रतन दमकते ।।
कर जाते पाप किनारा ।
वह आदि जिन्होंने तारा ।।१।।
श्रुत-सुत कतार में आता ।
गाथा वह सुर-पति गाता ।।
मैं भी गा रहा तराने ।
जिन-के भक्तों में आने ।।२।।
नुत पाद पीठ बुध थारी ।
थुति तुम, हट सिर्फ हमारी ।।
जल पड़ी देख शशि छाया ।
बस शिशु ने कदम बढ़ाया ।।३।।
गुण इतने जितने तारे ।
गा, गुण तुम सुर-गुरु हारे ।।
जल मगर पौन तूफानी ।
तट कौन जोर-भुज प्राणी ।।४।।
पग उलट शक्ति लौटाये ।
तुम भक्ति परन्तु धकाये ।।
हित शिशु रक्षण जा भिड़ती ।
हिरनी सिंह से कब डरती ।।५।।
यूँ तो कुछ मुझे न आये ।
मुखरी तुम भक्ति बनाये ।।
वन आम्र बौर-छा जाती ।
पिक बड़ा सुरीला गाती ।।६।।
पल नाम तिहारा रटते ।
चिर संचित पाप विघटते ।।
इक सूर्य किरण से हारा ।
काला मावस अँधियारा ।।७।।
थुति यह होगी मन हारी ।
पा कृपा आप अविकारी ।।
जल-बिन्दु दल कमल पड़ के ।
लगती मोती से बढ़-के ।।८।।
थव दूर, न जिसमें खामी ।
तव कथा व्यथाहर स्वामी ।।
नभ दूर दिवाकर पाते ।
खिल कमल सरोवर जाते ।।९।।
है इसमें अचरज कैसा ।
करते तुम अपने जैसा ।।
जो सुनता सेवक विनती ।
सेठों में उसकी गिनती ।।१०।।
दृग् देख तुम्हें क्या आते ।
फिर कहीं चैन जा पाते ।।
जल क्षीर सिन्धु से नाता ।
तब नीर सिन्धु कब भाता ।।११।।
थे उतने ही बड़भागी ।
परमाणु प्रशान्त विरागी ।।
बस देह आप रच जाये ।
तुम भाँत न तभी दिखाये ।।१२।।
इक सत् शिव सुन्दर नीका ।
मुख मुख वह आप सरीखा ।।
शशि लगे कहाँ तुम आगे ।
हतप्रभ ज्यों सूरज जागे ।।१३।।
पूरन शशि भा-से न्यारे ।
गुण तुम लाँघें जग सारे ॥
है तेरा जिसे सहारा ।
फिर कौन रोकने वाला ।।१४।।
ले चितवन रम्भा आई ।
चित चुरा कहाँ तुम पाई ।।
झंझा प्रलयी डग भरता ।
जग डिगे, मेर कब डिगता ।।१५।।
निर्धूम तेल बिन बाती ।
पवमान बुझा नहिं पाती ।।
गुम जगत् तीन अँधियारे ।
तुम दीप अखण्ड निराले ।।१६।।
नहिं हाथ राहु के लगते ।
अस्ताचल राह न तकते ।।
जग-दीप्त भा न घन रोके ।
ऐसे तुम सूर्य अनोखे ।।१७।।
नित्योदित, मेघ न झापे ।
जग तिमिर रास्ता नापे ।।
आँखें नहिं राहु दिखाता ।
मुख चन्दर आप विधाता ।।१८।।
सूरज क्यों आंखें खोले ।
क्यों चॉंद रात भर डोले ।।
जब तुमने किया उजाला ।
घर नाज, व्यथा घन काला ।।१९।।
मति मरालता के किस्से ।
तुम और न आये हिस्से ।।
जो तेज रत्न की थाती ।
कब काँच मण्डली पाती ।।२०।।
है गया व्यर्थ न भटकना ।
दृग् हुआ आप पर टिकना ।।
दर तेरे जब से आया ।
चित् चुरा न कोई पाया ।।२१।।
भव मात्र एक अवतारी ।
नहिं और आप महतारी ।।
दिश् दिश् तारे अनगिनती ।
सूरज एक पूरव जनती ।।२२।।
युग-पुरुष ! पन्थ-शिव नेता ।
ऊरध-रेता ! दृग् जेता ।।
मृत्युंजय एक तुम्हीं हो ।
शत्रुंजय नेक तुम्हीं हो ।।२३।।
तुम नन्त ! आद्य ! व्यय-रीते ।
हरि-हर ! तीजे दृग् तीते ।।
ईश्वर ! योगीश्वर नामी ।
जगदीश्वर ! अन्तर्यामी ।।२४।।
तुम शुद्ध, बुद्ध, अविकारी |
शम-कर, शंकर, त्रिपुरारी ।।
शिव-पाथ-विधात निरीहा ।
पुरु ! पुरुषोत्तम नर-सिंहा ।।२५।।
बीड़ा सिर पीड़ा हारी ।
भू-भूषण ढ़ोक हमारी ।।
जय थारी त्रिभुवन-स्वामी ।
जिन गुण सम्पद् आसामी ।।२६।।
मुख तलक भरा गुण खीसा ।
तुम जगत जगत् निशि-दीसा ।।
चुन लिये दोष दुनिया ने ।
नहिं कहा और ने मॉं ने ।।२७।।
पुण्योदय अशोक आया ।
आ बैठे तर तरु छाया ।।
तब दिखा दृश्य इक विरला ।
रवि बीच श्याम घन निकला ।।२८।।
सिंहासन बड़ा सलोना ।
मणि-मण्डित कोना कोना ।।
तन बनक कनक अनमोला ।
गिर उदय-उदित रवि-भोला ।।२९।।
ले चॅंवर खड़े दिवि-वासी ।
भा-देह स्वर्ण आभा सी ।।
तट मेर झिरे-सा झरना ।
होता भा-चाँद उछलना ।।३०।।
आताप भास्कर हरते ।
मिस छत्र सेव शशि करते ।।
डोले लर-झालर होले ।
जग-तीन ईश इक बोले ।।३१।।
बहरी करती दिश् भेरी ।
गाती विरदावली तेरी ।।
सद्-धर्म राज जय जय हो ।
वह धर्म अहिंसा-मय जो ।।३२।।
सुर-परिकर हरषा-हरषा ।
करता पुष्पों की वरषा ।।
जल-गन्ध मन्द अर पवना ।
लग पंक्ति झिरे तव वचना ।।३३।।
भा-उपमा जेय विशाला ।
भा-मण्डल आप निराला ।।
रवि कोटिक तेज समाया ।
छवि सौम्य सोम, है माया ।।३४।।
शिव, स्वर्ग दिलाती पल में ।
संबोध कराती पल में ।।
सब भाष परिणमन वाली ।
थारी धुनि खास निराली ।।३५।।
विकसित पंकज भी फीका ।
नख नख-शिख चॉंद सरीखा ।।
पग-तल तुम अपने रखते ।
आ सुर-गण कमल विरचते ।।३६।।
अनुरूप नाम सम-शरणा ।
सिंह बैठा समीप हिरणा ।।
वैभव अनमोल तिहारा ।
कब रवि-सा चमके तारा ।।३७।।
मद झरता झरने जैसा ।
रव करता भ्रमर परेशां ।।
हाथी ऐसा उत्पाती ।
आगे तुम जप गो भाँती ।।३८।।
गज छीन मोति भर खोवा ।
दी बढ़ा भूमि की शोभा ।।
सिंह ऐसा आये बढ़ता ।
कुछ भक्त न आप बिगड़ता ।।३९।।
पवमान-प्रलय साथी है ।
जग भखने मुँह बाती है ।।
लपटें छूती नभ, दावा ।
क्या जल तुम नाम अलावा ।।४०।।
छाई अँखियन लाली है ।
कोकिला देह काली है ।।
ऐसा फन सांप प्रहारा ।
निष्फल जप नाम तिहारा ।।४१।।
भर रहे अश्व हुंकारें ।
गजराज जहाँ चिंघाड़ें ।।
अभिजेय शत्रु हा ! सेना ।
गुम नाम सिर्फ तुम लेना ।।४२।।
हत गज भाले नाखूनी ।
दरिया बह चाला खूनी ।।
अरि तरे जिसे ले वेगा ।
बस जीत नाम तुम देगा ।।४३।।
अठपहर जन्तु-जल जागी ।
लागी वड़वा हा ! आगी ।।
हो बीच भँवर भी नैय्या ।
तट जप तुम नाम जपैय्या ।।४४।।
हा ! जाँलेवा बीमारी ।
मारी दुख-देवा भारी ।।
लेते तुम नाम दवाई ।।
ले अपने-आप विदाई ।।४५।।
आपाद-कण्ठ तन सारा ।
जकड़ा दृढ़-सॉंकल द्वारा ।।
तुम नाम ‘निराकुल’ पढ़ते ।
बन्धन खुद ही खुल पड़ते ।।४६।।
गज, सिंह, दव, विषधर काला ।
वड़वा, गद, रण, गृह-कारा ।।
भय कैसा ? क्या डरना है ।
जप आप नाम शरणा है ।।४७।।
यह वरण-वरण गुल चुनके ।
तैयार माल-गुण बुनके ।।
जो इसे कण्ठ धारेगा ।
निष्कण्ट शिव पधारेगा ।।४८।।
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