(१७)
‘नास’मझ समझ करते न कोप ।
‘तम’ आँख उठा, कर दें विलोप ।।१।।
‘क’ब हीरा खोला हाट-हाट ।
‘दा’निश न आज इन-सा विराट ।।२।।
‘चि’ढ़ जला न पाई कभी खून ।
‘दु’श्मन गणना आ थमी शून ।।३।।
‘प’र्दे-पीछे रह करें काम ।
‘या’चक मति पूर्ण दिया विराम ।।४।।
‘सि’क्के न एक पहलू रसिया ।
‘न’ भले न किया, हाँ कहाँ किया ।।५।।
‘रा’वन-फन हुआ जुदा इन से ।
‘हु’र-दंग रंग छूटा मन-से ।।६।।
‘गम’, तलक यम पठाना आया ।
‘यह’ बनता, बनें हाथ दांया ।।७।।
‘स्पष्’-ट मिष्ट इनकी भाषा ।
‘टी’का न राह, इतनी आसाँ ।।८।।
‘क’रते जितना, करते मन से ।
‘रो’नक जिन-शासन की इन से ।।९।।
‘सि’सकी न थमे, न थमे हिचकी ।
‘स’रित-सी सोच हरिक हित की ।।१०।।
‘ह’र शरणागत का रखें मान ।
‘सा’रा इनका अपना जहान ।।११।।
‘यु’द्धन्-तरंग दें मचने ना ।
‘गप’ दे आते पल अपने ना ।।१२।।
‘ज’न जन त्रिभुवन मन भाये हैं ।
‘ज’न त्रिभुवन नयन सुहाये हैं ।।१३।।
‘गण’ रहें, एक-जुट, गुट सुदूर ।
‘ति’हु-लोक, अलौकिक एक नूर ।।१४।।
‘ना म’न झांके क्षण भी बगलें ।
‘भो’जन रस लाला सॅंग निगलें ।।१५।।
‘ध’रती के देव कहे जाते ।
‘रो’शन स्वयमेव पंक्ति आते ।।१६।।
‘द’रकार किया मन दर-किनार ।
‘र’तनार न कीने नैन-चार ।।१७।।
‘निरु’पम अनुपम इक अनुपमेय ! ।
‘द’रबार किमिच्छिक जगज्जेय ।।१८।।
‘ध’र्मेक अहिंसा आन-बान ।
‘म’जहबी सभी जानें जुबान ।।१९।।
‘हा’थन निज कारज रहे साध ।
‘प्र’तिपल बचते प्रज्ञा-पराध ।।२०।।
‘भा’रत गौरव पदवी इनकी ।
‘वह’ जन-मन बसी छवि इनकी ।।२१।।
‘सूर’ज प्रताप फीका आगे ।
‘या’मिनी-धनी पीछे भागे ।।२२।।
‘ति’हरी दुहरी न भक्ति रखते ।
‘शा’पा-नुग्रह शक्ति रखते ।।२३।।
‘यि’तना कितना है बड़ा जिया ।
‘म’नु-सुनु है अपना हरिक लिया ।।२४।।
‘हि’य था, हाँ ! कभी खुरापाती ।
‘मा’कूल बात कहनी आती ।।२५।।
‘सि’त स्वानुभूति इक खोजी हैं ।
‘मु’नि मौनी हैं, मनमौजी हैं ।।२६।।
‘नीं’दन भी दिव्य-धुनी गूंजी ।।
‘द्र’विभूत अपूर्व भूत पूँजी ।।२७।।
‘लो’गों को थापें सत्-मग में ।
‘के’वल इनके चर्चे जग में ।।२८।।
नास्-तम् कदाचि-दु-पयासि
न राहु-गम्यः,
स्पष्-टी क-रोषि स-हसा
यु-गपज्-जगन्ति ।
नाम्भो-धरोदर निरुद्ध
महा(प्)-प्रभाव:,
सूर्याति-शायि-महि-मासि
मुनीन्द्र ! लोके ॥१७॥
(१८)
‘नित’ निलय निजात्म रहे विराज ।
‘यो’गी, जोगीश्वर, जोगीराज ।।१।।
‘द’ण्डक-वन इक नन्दन-वन है ।
‘यम’ आमन्त्रण इक जीवन है ।।२।।
‘द’र्शन इन कल्मष धो देता ।
‘लि’खना इन, नैन भिंजो देता ।।३।।
‘त’ल संस्पर्शी अद्भुत ज्ञानी ।
‘मो’हक इक-रूप मधुर वाणी ।।४।।
‘ह’र रोज रोज-नामचा लिखें ।
‘म’न-हार लिखें, ना मचा लिखें ।।५।।
‘हा’ ! नकल न असल मिलाते हैं ।
‘ध’क्के मिस हमें धकाते है ।।६।।
‘कार’ज लें पल पहले निपटा ।
‘म’तलब से मतलब लिया हटा ।।७।।
‘गम’ इन्हें न अब सिहरन-सी दे ।
‘यम’ इन्हें सलामी फरसी दे ।।८।।
‘न’फरत निकाल फेंकी मन से ।
‘रा’केश अभी सीखे इन से ।९।।
‘हु’ङ्कार भरें नित प्रति-कर्मन ।
‘व’र-माल चाह, वधु-शिव-शर्मन ।।१०।।
‘द’श दिश् फन उभरा खालिस है ।
‘नस’-नस पन भरा निरालस है ।।११।।
‘य’द्यपि आसामी सभी कला ।
‘न’हले पर कब मारें दहला ।।१२।।
‘वा’रिस वसु वसुधा इक भावी ।
‘रि’स चुकी हृदय-खिल बेताबी ।।१३।।
‘दा’मन खुशियों से भर देते ।
‘ना म’न कब्जे गुरूर देते ।।१४।।
‘वि’श्वके दृष्टि शोभन इनकी ।
‘भ्रा’मरी वृत्ति भोजन इनकी ।।१५।।
‘ज’ब-तब गहना सहना पहने ।
‘ते’जो-बल के इन क्या कहने ।।१६।।
‘त’न्मय नित चिन्मय कस्तूरी ।
‘व’र्जित से रखें बना दूरी ।।१७।।
‘मु’क्ती इक लगी लगन हरदम ।
‘खा’ने में आती रहती गम ।।१८।।
‘बज’ बाबा इनका रहा नाम ।
‘मन’ इन्हें बिठाया, हुआ काम ।।१९।।
‘ल’त गलत विगत इक मंजे हुये ।
‘प’ल पलक इन्हें रख, मजे हुये ।।२०।।
‘कान’न रव-कानन भाता है ।
‘ति’रछा-पन न बर-गलाता है ।।२१।।
‘वि’रहित तन-डोर, दूर चादर ।
‘द्यो’तक भी-तर सा-ही बाहर ।।२२।।
‘तय’ इन शिव-राधा मिलन आज ।
‘ज’म कर आ बैठे शिव-जहाज ।।२३।।
‘ज’ञ्जीर सनेह न बाँध सकी ।
‘ग’र्जन सुन जिद-हा ! माँद दिखी ।।२४।।
‘द’ङ्गल को ना कहना सीखे ।
‘पूर’क बन कर रहना सीखे ।।२५।।
‘व’शि जाने कैसे कर लेते ।
‘श’स्त्रन अस्त्रन न प्रशय देते ।।२६।।
‘शां’ती कपोत अद्वितिय भेष ।
‘क’वि कुल अगम्य छूते प्रदेश ।।२७।।
‘बिं’दास नापते अखर डगर ।
‘बं’जारे, खातिर अक्षर घर ।।२८।।
नित्यो-दयं दलित मोह
महान्-धकार,
गम्यं न राहु व-दन(स्)-स्य
न वारि-दानाम् ।
वि(भ्)-भ्राजते तव मुखाब्ज
म-नल्-पकान्ति,
वि(द्)-द्यो-तयज्-जग-दपूर्व-
शशाङ्क-बिम्बम् ॥१८॥
(१९)
‘कि’स-किस खातिर कितना न किया ।
‘मश’वरा दिया इन भाँत ‘दिया’।।१।।
‘रव’ गौरव जन-जन मन-हारी ।
‘री’झी इन-पे दुनिया सारी ।।२।।
‘सु’ख चूल बलैया ले, निकले ।
‘श’क भूल भुलैया से निकले ।।३।।
‘शि’शु माफिक निर्विकार, न्यारे ।
‘नाह’क हक न जमाने वाले ।।४।।
‘नि’यमित इन्हें माँजना आतम ।
‘वि’श्वास-योग्य ! कल परमातम ।।५।।
‘व’धु-शिव ले आश-मिलन हरषे ।
‘स्व’-राज्य हेत निकले घर से ।।६।।
‘ता’ना-बाना व्रत जोड़ रखा ।
‘वा’ना करुणा ऋत ओड़ रखा ।।७।।
‘यु’वती हर-युवक इन्हें चाहें ।
‘ष’ट् आवश्यक सर अवगाहें ।।८।।
‘मन मु’ख कर, करें न आत्म बगल ।
‘खे’लों में खरच न आते पल ।।९।।
‘न दु’मुँह करते है बात कभी ।
‘द’रख्वाश्त न करते हाथ कभी ।।१०।।
‘लि’पि सारीं हीं इनको आतीं ।
‘ते’तीं, भाषा जेतीं थातीं ।।११।।
‘सु’लझा देते उलझन सारी ।
‘त’स्वीर और भगवन् न्यारी ।।१२।।
‘मह’नीय राज खोला करते ।
‘सु’नते, कम ही बोला करते ।।१३।।
‘ना’ दो एकेक बल्कि ग्यारा ।
‘थ’मना है मना, लिये नारा ।।१४।।
‘निष्प’न्द, वद्य, आनन्द-कन्द ।
‘न’व नवल धवल अध्यात्म छन्द ।।१५।।
‘न’य और प्रमाण ‘दिये’ वाले ।
‘शा’सन-जिन केत लिये चाले ।।१६।।
‘लि’ख ना, लखें ‘कि होना खोना ।
‘व’शि-और, और जादू-टोना ।।१७।।
‘न’ मरण रखें न जीवन इच्छा ।
‘शा’ला घर, शिक्षक माँ शिक्षा ।।१८।।
‘लि’ख पाँवन लाये रेखा गज ।
‘नी’रज से, बीच कीच नीरज ।।१९।।
‘जी’वन इन संजीवन करना ।
‘व’शिभूत विभूति न, क्या डरना ।।२०।।
‘लो’गों से करें सलूक नेक ।
‘केका’ सुर-पंचम कूक एक ।।२१।।
‘र’ग-रग बहती महती करुणा ।
‘यम’ सिर्फ इन्हें देता दम-ना ।।२२।।
‘कि’ल्विष विष विषय न छूते हैं ।
‘यज’ करज सुदूर अनूठे हैं ।।२३।।
‘ज’ल क्यों ऊपर नासा भागे ।
‘ल’म्बा कद करने में लागे ।।२४।।
‘ध’र्मेश पना भावी थाती ।
‘रै’ना आधी, काफी भाती ।।२५।।
‘र’ह रहे देह, पर हैं विदेह ।
‘जल’ना कैसा ? हो तो सनेह ।।२६।।
‘भा’वुकता हेत न हृदय सन्ध ।
‘र’हना एकान्त इन्हें पसन्द ।।२७।।
‘न’फरत रत-जग इक त्राता हैं ।
‘म्रै:’ बीज-अक्षरन ज्ञाता हैं ।।२८।।
किं शर्-वरीषु शशि-नाह्-(हि)नि
विव(स्)-स्वता वा,
युष्मन्-मुखेन्दु-दलि-तेषु
तमः सु-नाथ !
निष्-पन्न-शालि-वन-शा-लिनी
जीव-लोके,
कार्यं कियज्-जल-धरैर्-
जल-भार-न(म्)-म्रैः ॥१९॥
(२०)
‘ज्ञा’यक सँग नित्य करें केली ।
‘नम’ परिणति अन्तर् अलबेली ।।१।।
‘य’श मिले, लगा न रहे अटकल ।
‘था’पित इन संस्कार अविचल ।।२।।
‘त’व-मम गुस्से को पी जाते ।
‘वयि’धानिक, तनिक न ‘ही’ नाते ।।३।।
‘वि’रहित-परिहास ! निरभिलाषी ।
‘भा’वी लोकाग्र शिखर-वासी ।।४।।
‘ति’हु-जग नीरोगी एक काय ।
‘कृ’श करने में लागे कषाय ।।५।।
‘ता’शों का महल बनाते ना ।
‘व’न्दना समय अलसाते ना ।।६।।
‘का’लीन साथ जादू रखते ।
‘शम’शीर धार ऊपर चलते ।।७।।
‘नै’यायिक वैय्या-करण बडे़ ।
‘व’र आश लिये कर जोड़ खड़े ।।८।।
‘मत’ गिरा नजर से प्रभु देना ।
‘था’मे रहना, इतना कहना ।।९।।
‘ह’क हेत और, जब भी बरसे ।
‘रि’श्ता इन गहरा ईश्वर से ।।१०।।
‘ह’ल्का भी, बोझ न काँधों पर ।
‘रा’हत हित उतरे राहों पर ।।११।।
‘दि’नकर से तेज प्रकाश पुंज ।
‘सु’षमा नुपमा माहन निकुंज ।।१२।।
‘ना’राज इन्हें देखा न कभी ।
‘य’ह सबके, इनके और सभी ।।१३।।
‘के’शर इन पाँवन रज पावन ।
‘सु’मरण इन विहर मरण-जामन ।।१४।।
‘ते’तीस तीस लग करें बात ।
‘जो’खिम न किसी के करें हाथ ।।१५।।
‘म’हसूस करें औरन पीड़ा ।
‘हा’थों में निज निखार बीड़ा ।।१६।।
‘म’न को रखते बस्ते ठण्डे ।
‘नि’र्मूल मूल गोरख-धन्धे ।।१७।।
‘सु’र-पुर, शिव-पुर हित इन प्रयास ।
‘या’पन न फनाफन इन्हें रास ।।१८।।
‘ति’हु जगत् न इनसा देखा है ।
‘य’वनों ने आ सिर टेका है ।।१९।।
‘था’ती है इन इक आर्जवता ।
‘म’न धसी बसी है मार्दवता ।।२०।।
‘हत त’न-चाहत रस्ता नापें ।
‘वं’चक न रंच, क्यों कर कॉंपें ।।२१।।
‘नै’नन लख हाथ चार चलते ।
‘वं’शानु-गतिक प्रण आदरते ।।२२।।
‘तु’लना क्या इन शशि दागदार ।
‘काँ’टे गुलाब, रवि आग दार ।।२३।।
‘च’ल चंचल सिर्फ लोल कानन ।
‘श’ङ्कादि दोष झिटका दामन ।।२४।।
‘क’ञ्चन सनेह तन पालें ना ।
‘ले’-दे-के काम निकालें ना ।।२५।।
‘कि’रदार निभाते माँ दूजी ।
‘र’खते निस्पृह सनेह पूँजी ।।२६।।
‘ना’हक उधड़े रिश्ते सिलते ।
‘कु’छ कुछ ये भगवन् से मिलते ।।२७।।
‘ले’के चलते उनमें आते ।
‘पि’ञ्चरे छोटे न बड़े भाते ।।२८।।
ज्ञानं यथा(त्)-त्वयि विभाति
कृ-ता-वका-शं,
नैवं तथा हरि-हरा-दिषु
ना-यकेषु ।
तेजो महा मणिषु याति
यथा महत्त्वं,
नैवं तु काच-शकले
कि-रणा-कुलेऽपि ॥२०॥
(२१)
‘मन’ पावन माफिक गंगा जल ।
‘ये’ भरसक खर्चे जंघा-बल ।।१।।
‘व’न उपवन देर खड़े रहते ।
‘रम’ जगह न इक, जल से बहते ।।२।।
‘ह’म-दर्द दुशाल ओढ़ते हैं ।
‘रि’श्ता बेजोड़ जोड़ते हैं ।।३।।
‘ह’ल बनें, करें न सवाल खड़े ।
‘रा’खे नाखून न बाल बडे़ ।।४।।
‘द’ब रहे, न दाब रहे पर को ।
‘य’ह कहें, गहो पहले परखो ।।५।।
‘ए’नक रक्खी देखी न नाक ।
‘व’शि हैं ही कब ये ताँक-झाँक ।।६।।
‘दृष्टा’ वैसे, ज्ञाता जैसे ।
‘दृ’ग-धर अपर, न ऐसे-वैसे ।।७।।
‘षट्’ दर्शन हर-इक मान्य सन्त ।
‘टे’ड़े मेड़े चलते न, पन्थ ।।८।।
‘सु’र, नाग, मनुज जग एक नूर ।
‘ये’ अवसरवाद सुदूर-दूर ।।९।।
‘सु’ख-सुविधा मन न कहे चख लें ।
‘हृद’ आत्म-पैठ परमात्म मिलें ।।१०।।
‘य’ह जा कहते, गुरु ! लगे दोष ।
‘म’छली जल जैसा इन्हें होश ।।११।।
‘त’प धनिक आज न इन सदृश्य ।
‘वयि’भव इन आज अधिक अदृश्य ।।१२।।
‘तो’षित रहना, वय-शिशु सीखे ।
‘ष’ट्-पद समाँ न, सुमनन दीखे ।।१३।।
‘मे’धावी एक अकेले हैं ।
‘ति’हु जग दिल नेक अकेले हैं ।।१४।।
‘किम’ वदन्ति इन कण्ठस्थ कई ।
‘वी’रासनादि अभ्यस्थ कई ।।१५।।
‘क्षि’प्रा ले गति मंजिल साधें ।
‘ते’रा-मेरा न गाँठ बांधें ।।१६।।
‘न’गमे भगवन् इक गाते हैं ।
‘भ’गवत् इक कथा सुनाते हैं ।।१७।।
‘व’न निर्जन निमिष न खोते हैं ।
‘ता’बीज बीज कब बोते हैं ।।१८।।
‘भु’क्ती-मुक्ती का पन्थ थाम ।
‘वि’श्वास ले, बढ़ें आठ-याम ।।१९।।
‘ये’ नहीं किसी को रिझा रहे ।
‘न’ दिखे, पल थे दृग् भिंजा रहे ।।२०।।
‘ना न’ग वाली मुंदरी पहने ।
‘यह’ पहने हया-लाज गहने ।।२१।।
‘कश्’-ती दो पैर न रखते हैं ।
‘चिन्’मय छिन-छिन में तकते हैं ।।२२।।
‘म’न चाकर बन मुँह की खाई ।
‘नो’बत न कभी ऐसी आई ।।२३।।
‘ह’र हालत में जा रहे बढ़े ।
‘र’फ्तार लिये जा रहे चढ़े ।।२४।।
‘ति’लली भँवरे खेलें चरणन ।
‘ना’जुक पंकज पाखुड़ि नयनन ।।२५।।
‘थ’क चली, रिझा न सकी हाँसी ।
‘भ’द्रम्-भूयात् वचन आशी ।।२६।।
‘वा’त्सल्य भाव हिय बहे गंग ।
‘नत’ भवि, थामे डोरी पतंग ।।२७।।
‘रे’खा आगम न रहे उलाँघ ।
‘पि’क भाँत न रितु मधु रहे माँग ।।२८।।
मन्ये वरं हरि-हरा-
दय एव दृष्टा,
दृष्-टेषु येषु हृदयं
त्वयि तोष-मेति ।
किं वी(क्)-क्षितेन भवता
भुवि येन नान्यः,
कश्चिन्-मनो हरति नाथ !
भवान्-तरेऽपि ॥२१॥
(२२)
‘स्त्री’ न साथ रखते बच्चे ।
‘ना म’काँ दुकाँ, दिल के सच्चे ।।१।।
‘श’र्तों को मान द्यूत छोड़ा ।
‘ता’लीम मिली रिश्ता जोड़ा ।।२।।
‘नि’कले शिव-खेत बीज बोना ।
‘श’व हेत न भव मानव खोना ।।३।।
‘त’स्वीर-और निस्पृह नेकी ।
‘शो’भा इनसे जिन-शासन की ।।४।।
‘ज’यनों ने इन आचरण छुआ ।
‘नय’नों ने चिर अंजन न छुआ ।।५।।
‘न’न्दन माँ जिनवाणी वन्दन ।
‘ति’हु-काल-योग-तिहु अभिनन्दन ।।६।।
‘पु’स्तैनी-गुर हंसी-विवेक ।
‘त्राण’न प्राणन कलि-काल एक ।।७।।
‘ना न’जरों में रखते फरेब ।
‘या’दों से रीती हृदय जेब ।।८।।
‘सु’ख नन्त हाथ आने वाला ।
‘तम त’न्त्र मात खाने वाला ।।९।।
‘व’ह यह इनसे सुख पाते हैं ।
‘दु’ख इन्हें न दे दुख पाते हैं ।।१०।।
‘प’ङ्कज भव पंक पंक्ति नाते ।
‘मम’ सो इक आतम बतलाते ।।११।।
‘ज’ब देखे ये मुस्कान संग ।
‘न’व अंग-अंग छाये उमंग ।।१२।।
‘नी’तिज्ञ विज्ञ श्रुत-चारों के ।
‘प्र’स्तोता नये विचारों के ।।१३।।
‘सू’रज माथा, चन्दा मुखड़ा ।
‘ता’रा-ध्रुव नैन विहर दुखड़ा ।।१४।।
‘सर’दार सन्त इक असरदार ।
‘वा’णी माहन्त मिलें विचार ।।१५।।
‘दि’ल-पर कोई लेते न बात ।
‘शो’षण-काई लेते न हाथ ।।१६।।
‘द’श मुण्डन मुण्डित मुण्ड आप ।
‘ध’र चरिया ब्रह्म अखण्ड आप ।।१७।।
‘ति’हु जगत्-भगत-वत्सल अ-प्रतिम ।
‘भा’वी भरतार भूमि अंतिम ।।१८।।
‘नि’ज आतम सुदृढ़ प्रीत जोड़ी ।
‘स-हस्र’ लख, क्रिया हरिक छोड़ी ।।१९।।
‘र’ण सीखा पीठ दिखाना ना ।
‘श’र सीखा पीठ चलाना ना ।।२०।।
‘मि’ल गया उसी में हैं राजी ।
‘म’न जीत, जीत लेते बाजी ।।२१।।
‘प्रा’वट् तप वृक्ष-मूल साधा ।
‘च’ढ़ चूल ग्रीष्म तप आराधा ।।२२।।
‘ये’ जा बैठे चौराहे पर ।
‘व’ह ठण्डी जब, बह चली लहर ।।२३।।
‘दिग्’ चार विदिग् जितनी इनकी ।
‘जन’-मन-हर में गिनती इनकी ।।२४।।
‘य’वनिका न हटा-हटा देखा ।
‘ति’रछा-पन, मनस् हटा फेंका ।।२५।।
‘स्फु’ट-कृति चेतन जगह-जगह ।
‘र’स्ता कब देते जिरह-गिरह ।।२६।।
‘दं’शोप-सर्ग करते न खेद ।
‘शु’भ मंगल-मम भावन समेत ।।२७।।
‘जा’ना इनको कुछ दूर न कम ।
‘लम’सम कुछ तो बस शम-यम-दम ।।२८।।
स्त्रीणां शतानि शतशो
ज-नयन्ति पुत्रान्,
ना(न्)-न्या सुतं त्व-दु-पमं
जननी प्रसूता ।
सर्वा दिशो दधति भानि,
स-ह(स्)-स्र-रश्मिम्,
प्रा(च्)-च्येव दिग्-ज-नयतिस्-
फुर-दंशु-जालम् ॥२२॥
(२३)
‘त’न पर मन तनिक न आया है ।
‘वामा’ न वाम बैठाया है ।।१।।
‘मन’ एक समाया निज-आतम ।
‘न’स-नस निवसा इक परमातम ।।२।।
‘ति’रने की कला रहे सिखला ।
‘मु’रझाया चेहरा रहे खिला ।।३।।
‘न’खरे नहिं, निखरे, खरे अरे ।
‘यह’ भोग-देह-भव डरे-डरे ।।४।।
‘पर’देश हुआ रहना काफी ।
‘म’न रुचि न जिन्दगानी हॉंपी ।।५।।
‘म’ग पर आ गये, देश अपने ।
‘पु’रुषार्थ साध, साधें सपने ।।६।।
‘मान’क घर के विसराये हैं ।
‘स’द्-धर्म-बाँट अपनाये हैं ।।७।।
‘मा’या मनसूबे संहारें ।
‘दि’न रात आत्म बल विस्तारें ।।८।।
‘तय’ इन-का पार पहुॅंचना है ।
‘वर्ण’न वर्णन न उलझना है ।।९।।
‘मम’ गला रहे, मंगल अनुपम ।
‘ल’खते-लखते गम करते गुम ।।१०।।
‘म’न को छू जाने वाले हैं ।
‘त’कदीर बनाने वाले हैं ।।११।।
‘म’न दर्प…न बांध रखा सेहरा ।
‘सह’जो, पन से नाता गहरा ।।१२।।
‘पु’रु-देव भक्त बैठे कतार ।
‘रस्’-ता नेकी कर हृदय-हार ।।१३।।
‘ता’लीम दे रहे जन-जन को ।
‘त’मगे न जीतना अब इनको ।।१४।।
‘त’कलीफ-हरण गुण भावित हैं ।
‘वा’मन मुनि विष्णु प्रभावित हैं ।।१५।।
‘मे’ला जग थामे माँ अंगुली ।
‘व’शिभूत न मति किल्विष पगली ।।१६।।
‘सम्य’क् आचार विचार निलय ।
‘गुप’ चुप कर लेना किया विलय ।।१७।।
‘ल’ख इन्हें प्रीत रत चिड़िया भी ।
‘भय’भीत न इनसे चिंटिया भी ।।१८।।
‘जय’ मरणा-वीचि वरे इनको ।
‘न’ख-शिख कीना वश में मन को ।।१९।।
‘ति’नका न भार, है मन खाली ।
‘मृत्’-यु न इन्हें छूने वाली ।।२०।।
‘यु’ग दिशा-नई करते प्रदान ।
‘म’न-मथन न दें सम्मान मान ।।२१।।
‘ना’सूर, जखम ना कर लेते ।
‘न’जरन न छूट ज्यादा देते ।।२२।।
‘यह’ पहले से ही आदत है ।
‘शि’कवा न गिला न शिकायत है ।।२३।।
‘वह’ रहे सुखी, ख़्वाहिश इनकी ।
‘शिव-ह’रिक चले कोशिश इनकी ।।२४।।
‘शिव’ शिविका आज हवाले इन ।
‘प’न्थिन् नभ नाम हवा-ले इन ।।२५।।
‘द’र्शन इन, सम्यक्-दर्शन दे ।
‘स’च्चिदानन्द संस्पर्शन दे ।।२६।।
‘य’तीन्द्र न और इक यही मही ।
‘मु’नीन्द्र’ न और इक मही-यही ।।२७।।
‘पन्था’ शिव ! कन्ता शिव-राधा ।
‘ह’र लेते हेर जगत्-बाधा ।।२८।।
त्वा-मा-मनन्ति मुनयः
परमं पुमांस-
मादि(त्)-त्य-वर्ण-ममलं
त-मसः पुरस्-तात् ।
त्वामेव सम्य गु-पलभ्य
जयन्ति मृ(त्)-त्युम्,
नान्यः शिवः शिव-पद(स्)-स्य
मुनीन्द्र ! पन्थाः ॥२३॥
(२४)
‘त’ख्तौर-ताज निकले मन से ।
‘वा’सव जुड़ने मचले इन से ।।१।।
‘म’न को तह से यह पहिचानें ।
‘व’ह चाहे क्या, कहना जानें ।।२।।
‘य’ज अम्बर-आडम्बर त्यागा ।
‘यम’ आप आप ही डर भागा ।।३।।
‘विभु’ ! वैभव रत्नत्रय करीब ।
‘म’न मिलन-आश निधि-निज अतीव ।।४।।
‘चिन्त’न में सामंजस घोलें ।
‘य’ह बन धागे मणियाँ गो लें ।।५।।
‘म’न्जिल पर कदम प्रथम धरने ।
‘सं’बंध विसारे जड़ इनने ।।६।।
‘ख’प रहे न पल जाला मकड़ी ।
‘य’ह रहें गली प्राय: सकरी ।।७।।
‘मा’नक यह-इक सत् शिव सुन्दर ।
‘द’क्षिण-पूरब-पश्चिम-उत्तर ।।८।।
‘य’ह बात एक इनमें अद्भुत ।
‘म’न इनका सुलसा हुआ बहुत ।।९।।
‘ब्रह्मा’ ! नित आत्म रमण करते ।
‘ण’वकार-धार नह्वन करते ।।१०।।
‘मी’दास गहल न सँजोते हैं ।
‘श्व’ खातिर आज न खोते हैं ।।११।।
‘रम’णीय महल-शिव संदर्शक ।
‘नं’दन-वैशाख गहल निरसक ।।१२।।
‘त’ड़के न पसारे पैर मिले ।
‘म’न करते मन्दिर सैर मिले ।।१३।।
‘नं’दन निज-मात-पिता विरले ।
‘ग’प रह जाये न नृभव, निकले ।।१४।।
‘के’शरिया लिये पताका हैं ।
‘तुम’ हम-इक भाग विधाता हैं ।।१५।।
‘योगी’ ! चंचलता योग खतम ।
‘श्व’सनन इन छेड़ रखी सरगम ।।१६।।
‘रम’-जम क्या किया भजन भगवन् ।
‘वि’घ्नों पर पड़ते टूट विघन ।।१७।।
‘दि’न-कर दिन नाहक इधर-उधर ।
‘त’प-तेज आप, जब तिमिर-विहर ।।१८।।
‘यो’गी प्राचीन मिले चरिया ।
‘गम’ और देख जुग-दृग् दरिया ।।१९।।
‘ने’की कर दरिया ले जाते ।
‘क’ब गीत प्रशंसा निज गाते ।।२०।।
‘मे’रा-तेरा मन पढ़ लीना ।
‘कम’ कभी न इन्होंने दीना ।।२१।।
‘ज्ञा’नी-ध्यानी समरस-सानी ।
‘न’म न कम, रहम-मरहम वाणी ।।२२।।
‘स्व’जनन न लड़ें, लड़ते हारें ।
‘रू’हानी ! कण्टक-संहारें ।।२३।।
‘प’तितोद्-धारक अव-तार मही ।
‘मम’ प्राणों के आधार यही ।।२४।।
‘ल’श्कर इन पीछे भगत भगत ।
‘म’मता जो रखते विगत शरत ।।२५।।
‘प्र’तिमा अ-प्रतिम दूजी करुणा ।
‘व’ह वाह बचा जीवन, चलना ।।२६।।
‘दं’भी न हुये, न झुके दूना ।
‘ति’हु लोक शिखर इनको छूना ।।२७।।
‘सं’सार सार बतलाते सत् ।
‘तह’ छूने की रखते ताकत ।।२८।।
त्वा-म(व्)-व्ययं विभु-मचिन्त्य-
म-संख्य मा(द्)-द्यं,
ब्रह्माण-मी(श्)-श्वर मनन्त
मनङ्ग-केतुम् ।
योगी(श्)-श्वरं विदित योग-
मनेक-मेकं,
ज्ञान(स्)-स्व-रूप म-मलं
प्र-वदन्ति सन्तः ॥२४॥
(२५)
‘बु’द्ध’न पंक्तिन में आगे हैं ।
‘सत’-पथ पन्थिन् बड़भागे हैं ।।१।।
‘व’न से सिंह, सिंह से वन रक्षा ।
‘मे’घों की लें दूजी कक्षा ।।२।।
‘व’श कीनी आसक्ति रसना ।
‘वि’गलित कीना फबती कसना ।।३।।
‘बु’द-बुद न बैठ जल पार करें ।
‘धा’गा न प्रेम दो-तार करें ।।४।।
‘र’त सतत पूरने में सपना ।
‘चि’द्रूप अनूप लखें अपना ।।५।।
‘त’ब पीठ, वहाँ अब मुख मोड़ा ।
‘बुद’बुद-जल ! नेह जगत् छोड़ा ।।६।।
‘धि’क्कारें सदा कदा-चरणा ।
‘बो’लें आगम सम्मत वचना ।।७।।
‘धा’गा बन भेजें नभ पतंग ।
‘त’र अंग-अंग वात्सल्य रंग ।।८।।
‘त’करीबन मिले हंस मन से ।
‘वं’चन छू-मन्तर जीवन से ।।९।।
‘शं’का न उठें मन, हैं निशंक ।
‘क’ब सम्पद् सम्यक्-ध्यान रंक ।।१०।।
‘रो’पे इन पौध खूब बढ़ते ।
‘सि’सकें, पर-हेत चीख पड़ते ।।११।।
‘भु’गतान न रोक रहे कर्मन ।
‘वन’ निकल पड़े हित शिव शर्मन ।।१२।।
‘त्रय’ साँझन मिलते-घर अन्दर ।
‘शं’कर, पा इन संगत कंकर ।।१३।।
‘कं’चन के आभूषण माफिक ।
‘रत्’ती भर खोट कलंक न धिक् ।।१४।।
‘बा’बत न इबादत करते हैं ।
‘त’करार न पल आदरते हैं ।।१५।।
‘धा’रा से कभी न टकराते ।
‘ता’रों से जाकर बतियाते ।।१६।।
‘सि’र धारें नित कुछ भले नियम ।
‘धी’वर किस्सा भरता दम-खम ।।।१७।।
‘र’स्ते से मन चलने वाला ।
‘शिव’-राज हाथ लगने वाला ।।१८।।
‘मा’सूम, गोद माँ-सी शरणा ।
‘र’ग-रग निस्वार्थ बहे करुणा ।।१९।।
‘ग’लने को मान-गुमान बरफ ।
‘वि’कसित होने को ज्ञान-सिरफ ।।२०।।
‘धे’ला न खरचते पुण्य कभी ।
‘र’खते हटके कुछ पुण्य अभी ।।२१।।
‘वि’द्वान न इन मिलती जोड़ी ।
‘धा’रा-जिन डूब न लें थोड़ी ।।२२।।
‘ना’काम हो, न वो करें काम ।
‘त’रबतर जुबां जिन-राम-नाम ।।२३।।
‘वय’ सब जन इन चाहें छाया ।
‘क’र कर चलना न इन्हें आया ।।२४।।
‘तम’ से न पड़े अब पाला है ।
‘त’र-बाती दीपक ‘बाला’ है ।।२५।।
‘व’र्जित-फल कर्म किये जाते ।
‘मेव’न मिलते-पल सकुचाते ।।२६।।
‘भगवन्’ के भक्त अनोखे हैं ।
‘पुरुषोत्त’म नन्दन छोटे हैं ।।२७।।
‘मो’हक मुस्कान धनी हैं ये ।
‘सि’द्धन कल शिरोमणी हैं ये ।।२८।।
बुद्धस्-त्व-मेव वि-बुधार्-चित-
बुद्धि-बोधात्,
त्वं शङ्-करोऽसि भु-वन(त्)-
त्रय-शङ्-कर(त्)-त्वात् ।
धातासि धीर ! शिव-मार्ग-
विधेर्-विधानाद्,
व्यक्तं त्व-मेव भगवन्
पुरु-षोत्-तमोऽसि ॥२५॥
(२६)
‘तु’प ठण्डी में बैठे न दिखे ।
‘भ’र रहे रंग ‘मत-जैन’ लिखे ।।१।।
‘य’ह रखते अनलख हाथ घड़ी ।
‘मन’चल-पन रखा न साथ घड़ी ।।२।।
‘मस्’-तक उन्नत, गत दूषण हैं ।
‘त्रिभुव’न चारित आभूषण हैं ।।३।।
‘ना’हक खोते न दया मौके ।
‘र’क्षक संरक्षक दीनों के ।।४।।
‘ति’नका-तिनका जग देखा है ।
‘ह’मराज न और अनोखा है ।।५।।
‘रा’मायण कीना आत्म-सात ।
‘य’ह छोड़ चुके विश्वास-घात ।।६।।
‘ना’समझ न छेड़ रही इनको ।
‘थ’म कहें, विपथ जाते मन को ।।७।।
‘तु’मरे-हमरे से नाता ना ।
‘भय’ खाने में अब आये ना ।।८।।
‘मह’नीय-मोहनी वाणी है ।
‘क्षिति’, जल, नभ इक कल्याणी है ।।९।।
‘त’म इक किनार कर डाला है ।
‘ला’खों को पार उतारा है ।।१०।।
‘म’न्तव्य छुपा किनसे इनका ।
‘ल’ख, ले रख रहे तलक तिनका ।।११।।
‘भू’ बिस्तर, चादर अम्बर है ।
‘ष’ट्पदी-गहल छू-मन्तर है ।।१२।।
‘ना’जुक अन्तर् नारियल भाँत ।
‘य’ह निभा सभी का रहे साथ ।।१३।।
‘तु’ल पाना इनका नामुमकिन ।
‘भ’क्तों को शरण चरण जुग-इन ।।१४।।
‘यम’ हारेगा इन से अबकी ।
‘नम’ कब पर-हेत आँख सबकी ।।१५।।
‘स’पना अपना होने वाला ।
‘त्रि-जगत’-भिरमन खोने वाला ।।१६।।
‘ह’सरत न रखें, कद से ऊँची ।
‘प’ल-चलते दृष्टी रखें नीची ।।१७।।
‘र’खते न पास अपने यह कुछ ।
‘मे’ला लगता बस जायॅं पहुँच ।।१८।।
‘श’क्कर-गुड़-घी इनके वचना ।
‘व’र-भोग-सुधी इनकी रचना ।।१९।।
‘रा’धा-शिव हित गुण सुमन चुनें ।
‘य’ह मलें न कर, फिर सर न धुनें ।।२०।।
‘तु’रही छेड़ें इन नाम तान ।
‘भ’क्तों के दृग्-इन वसें प्राण ।।२१।।
‘य’ह बात जमाना जाने है ।
‘म’न गाये आत्म तराने है ।।२२।।
‘न’ शरारत से इनकी यारी ।
‘मो’हक मूरत भव-दुख हारी ।।२३।।
‘जि’तना बनता कम ही जीमें ।
‘न’ अँगुलियाँ कब इनकी घी में ।।२४।।
‘भ’रने वाले रंग तितली ये ।
‘वो’ तप्त धरा जग, बदली ये ।।२५।।
‘द’स्तक मंजिले स्वयं आ दें ।
‘धि’क् शब्द बोझ जिह्वा ना दें ।।२६।।
‘शो’धन समेत दिन आहारी ।
‘ष’ट् रस, गत-रस, समता धारी ।।२७।।
‘ना’राजगी न ये रखते हैं ।
‘य’ह लाज बन सके रखते हैं ।।२८।।
तुभ्यं नमस् त्रि-भु-वनार्-ति
हराय नाथ !
तुभ्यं नमः क्षिति-तलामल-
भू-षणाय ।
तुभ्यं नमस् त्रि-ज-गतः
प-र-मे(श्)-श्वराय,
तुभ्यं नमो जिन ! भवोदधि-
शो-षणाय ॥२६॥
(२७)
‘को’दों इक शाली इन्हें धान ।
‘विस्म’य दे राखा इन न थान ।।१।।
‘यो’द्धा बखतर पहने संवर ।
‘त्र’स, थावर दया खूब अन्दर ।।२।।
‘य’श-अयश हेत दरकार नहीं ।
‘दि’ल, खाई कहीं दिवार नहीं ।।३।।
‘ना’ सकुचाते पल बाहों को ।
‘म’चलें छूने न गुनाहों को ।।४।।
‘गु’ण-वान देख तुम प्रमुदित मन ।
‘नै’राश्य भाव विरहित दामन ।।५।।
‘र’स्ता नहीं भेड़ चाल देते ।
‘शे’रों सी बना राह लेते ।।६।।
‘शैश’वन सिर्फ लीला, ‘लीला’ ।
‘सत’ ! इन्द्रिय-इन्दिय मन कीला ।।७।।
‘व’न भव भटकन खोने वाली ।
‘म’न खटपट क्षण रोने वाली ।।८।।
‘सं’श्रित-कतार यह वा में ना ।
‘तो’ते सी नलिनी थामे ना ।।९।।
‘नि’र्भीक, निरीह, निरापद हैं ।
‘रव’ आई नभ, विगलित मद हैं ।।१०।।
‘का’फिला छोड़ आये पीछे ।
‘शत’ इन्द्र विनत बैठे नीचे ।।११।।
‘या’तना इन्होंने दी, न सुना ।
‘मु’ख-बनाना इन्होंने न चुना ।।१२।।
‘नी’हार, कर्म हरि करें दग्ध ।
‘श’त-दश अठ धर लक्षण ! विदग्ध ।।१३।।
‘दो’ गले नहीं, दोगले नहीं ।
‘सै’लानी, पर मनचले नहीं ।।१४।।
‘रु’लना न इन्हें अब और जगत् ।
‘पा’गल-पन ले, बेचें न बखत ।।१५।।
‘त’रसाना इन्हें न आता है ।
‘त’ड़फाना इन्हें न भाता है ।।१६।।
‘वि’धि के अनुरूप काम करते ।
‘वि’धिवत् जिनरूप नाम करते ।।१७।।
‘धा’रा ‘कि बहें, खतरा न रहे ।
‘श्र’म करने से कतरा न रहे ।।१८।।
‘य’ह सिन्धु न नापें भेक-कूद ।
‘जा’मन डालें, गर फटे दूध ।।१९।।
‘त’किया कलाम न लिये चालें ।
‘गर’दन कब फन-गिरगिट डालें ।।२०।।
‘वै’तरणी तरना गये सीख ।
‘ह’म-सफर न करते पल अलीक ।।२१।।
‘स्वप्’-नन भी यहीं लगाये रट ।
‘ना’ता वधु-शिव हो जाये झट ।।२२।।
‘नत’-विनत चरित पाये चोटी ।
‘रे’खा न और करते छोटी ।।२३।।
‘पि’घलें, दृग् गंगा-जमुन देख ।
‘न’ लिखें, विथला पर, अपर लेख ।।२४।।
‘क’द कुछ हटके नाता जोड़ा ।
‘दा’दुर फन बरसाती छोड़ा ।।२५।।
‘चि’न्तन क्षण मनमाना न किया ।
‘द’किया-नूसी फेंकी दरिया ।।२६।।
‘पी’छी इक हाथ कमण्डल है ।
‘क्षि’ति अनुपम आभा मण्डल है ।।२७।।
‘तो’ड़ा न नियम जो अपनाया ।
‘सि’र कभी न दी चढ़ने माया ।।२८।।
को विस्-मयोऽत्र यदि नाम
गुणै-र-शेषैस्-
त्वं सं(स्)-श्रितो नि-र-वकाश-
तया मुनीश !
दोषै-रुपात्त वि-विधा(श्)-
श्रय-जात-गर्वैः,
स्वप्नान्-तरेऽपि न कदाचि-
द-पी(क्)-क्षि-तोऽसि ॥२७॥
(२८)
‘उ’न्नत कर देते यह भविष्य ।
‘च’ल रहे धकाते भक्त-शिष्य ।।१।।
‘चै’त्येक विराग पुजारी हैं ।
‘र’हमान और अवतारी है ।।२।।
‘शो’काकुल नहीं, निराकुल हैं ।
‘क’र देते हाथ-पार, पुल हैं ।।३।।
‘त’लवार छकाते, लिये ढ़ाल ।
‘रु’ख देख हवा कस रहे पाल ।।४।।
‘संश्रित’ परछाई भी बचते ।
‘मु’ख आप प्रशंसा कब रचते ।।५।।
‘न मयू’र नृत्य रस अभिलाषी ।
‘ख’न-खन पैसों की इन दासी ।।६।।
‘मा’टी सदा सुहाती इनको ।
‘भा’ती न खुरापाती इनको ।।७।।
‘ति’कड़म न खोज लाता इन-मन ।
‘रू’कन न बेच आते धन ! क्षण ।।८।।
‘प’ढ़ कोश और इन रखे सभी ।
‘म’द होश इन्हें देखा न कभी ।।९।।
‘म’ञ्जिल से पूर्व न लेते दम ।
‘लम्’-बे-लम्बे भरते न कदम ।।१०।।
‘भ’रने घट किये हुये तिरछा ।
‘व’न आ किये सँगाती बिरछा ।।११।।
‘तो’ड़ें न किसी का शीशमहल ।
‘नि’गलें न किसी के नाहक पल ।।१२।।
‘ता’ता वैसा भो-जन ठण्डा ।
‘न’ भगाते तिमिर लिये डण्डा ।।१३।।
‘त’कना मुख छोड़ा जा गहरे ।
‘म’न हार जीत से हुआ परे ।।१४।।
‘स्पष्’-ट रूप से करें न्याय ।
‘टो’टा न बटोरे, कर कषाय ।।१५।।
‘ल’खते पीछे न बने पिछलग ।
‘ल’ग पीछे, लें मुट्ठी कर जग ।।१६।।
‘सत्’ का इक थाम रखा दामन ।
‘कि’रदार निभाते सुत-माहन ।।१७।।
‘रण’ चितवन, रह ‘भी’तर जीता ।
‘म’न जैनागम चिन्तन तीता ।।१८।।
‘स्त’वन ना रचते मन-मुटाव ।
‘त’र बैठे तरु स्वानुभव-छॉंव ।।१९।।
‘मो’हित करती मन मुलाकात ।
‘वि’हॅंसे करीब इन सबालात ।।२०।।
‘ता’पस, अपना-पन जिन समीप ।
‘नम’ नयन, भांत इन रतन दीप ।।२१।।
‘बि’कना आया निर्दाम सुना ।
‘म’न, हित शबरी इन राम बना ।।२२।।
‘ब’द विरद न पलक मिले चिपके ।
‘मर’तबा कई देखा छिप-के ।।२३।।
‘वे’ क्षण जो छूटे जीवन से ।
‘रि’श्ता न रखें कोई उन-से ।।२४।।
‘व’रवश मन सुमन रीझ पड़ते ।
‘प’त्थर सुन इन्हें सीझ पड़ते ।।२५।।
‘यो’जक योजन-योजन न दिखे ।
‘धर’ती अम्बर इन जोड़ रखे ।।२६।।
‘पा-र’स ऐसा कब अद्भुत सा ।
‘श्व’ आज न करें अभी खुद-सा ।।२७।।
‘वर’-चाहें, परमातम साधें ।
‘ति’र देह-नेह, निज आराधें ।।२८।।
उच्चै-रशोक- तरु सं(स्)-श्रित-
मुन्-मयूख,
मा-भाति रूप म-मलं
भ-वतो नितान्-तम् ।
स्पष्-टोल्-लसत्-कि-रण-मस्त-
तमो-वि-तानम्,
बिम्बं रवे-रिव पयो-धर-
पार्श्व-वर्ति ॥२८॥
(२९)
‘सिं’ह और गौर चरिया-धारी ।
‘हा’रें न खेलते वह पारी ।।१।।
‘स’च यूँ न और चेहरा हँसता ।
‘ने’की का नाप रहे रस्ता ।।२।।
‘मणि मयूख’ भा कर दें दूनी ।
‘शि’व-भावन सब, बिन इन सूनी ।।३।।
‘खा’दी के एक समर्थक हैं ।
‘वि’रले वृष-माहन रक्षक हैं ।।४।।
‘चि’र एक प्यास पाना निज घर ।
‘त्रे’ता, द्वापर, कलि-काल-अपर ।।५।।
‘वि’श्वेक जेय माया ठगनी ।
‘भ्रा’ता नर, हर नारी भगनी ।।६।।
‘ज’न्तर-मन्तर जैसा जानें ।
‘ते’तीस कर तिरेसठ मानें ।।७।।
‘त’बके हर यह पूजे जाते ।
‘व’श में इन, शशि-दूजे आते ।।८।।
‘व’रवश दृग् जुग आ रुकता है ।
‘पु’नि-पुनि मन इन पर झुकता है ।।९।।
‘ह’र लेते यह मुश्किल तमाम ।
‘क’हने बस को, करते न काम ।।१०।।
‘न’ कभी फैलायें और जाल ।
‘का’गा से पालें और बाल ।।११।।
‘व’श में कर चुके वृत्ति बगुला ।
‘दा’मन अपना रखते उजला ।।१२।।
‘त’न तरफी से आँखें मींचीं ।
‘म’न चेतन तन रेखा खींचीं ।।१३।।
‘बि’कते इन-दर बे-मोल सेठ ।
‘म’नहर, अमोल बोली समेत ।।१४।।
‘ब’ल केवल एक अहिंसा मत ।
‘म’न विवेक पय-जल हंसा वत् ।।१५।।
‘वि’प्लव करीब इन जाता थम ।
‘य’श वायु वेग-गमके हरदम ।।१६।।
‘द’रवेश भेष कब इन्हें बोझ ।
‘विल’सित रवि इन लख भवि-पयोज ।।१७।।
‘स’ख्ती खातिर खुद रखें भले ।
‘द’र आगुन्तक हर मिलें गले ।।१८।।
‘न’व तर्ज गुजरती हरिक शाम ।
‘शु’क-भाँत न रटते रहें राम ।।१९।।
‘ल’दना न लादना भाया मन ।
‘ता’जा-पन भाया जिमि सावन ।।२०।।
‘वि’स्तारक कहॉं कषायों के ।
‘ता’रण-हारे कलि गायों के ।।२१।।
‘न’ चुराते नजर कभी करतब ।
‘म’न शोर न याद मचाया कब ।।२२।।
‘तुं’कार स्वाद भूली जुबान ।
‘गो’री संस्कृति से सावधान ।।२३।।
‘द’र ताव न बॅंटता इन तनाव ।
‘याद्रिशि’ न किसी का अर-स्वभाव ।।२४।।
‘र’ह गई दूर बस हाथ-विजय ।
‘सी’पी यह मोती रत्नत्रय ।।२५।।
‘व’र व्रतधर एक निरतिचारी ।
‘सह-स्र’न गुणी विशुद्धि-धारी ।।२६।।
‘र’हतिये वक्त में करते जप ।
‘श’क्ती न छिपा, आदरते तप ।।२७।।
‘मे’रे भगवान् नाम इनका ।
‘ह’र-जन कल्याण काम इनका ।।२८।।
सिं-हा-सने मणि-मयूख-
शिखा-विचि(त्)-त्रे,
वि(भ्)-भ्रा-जते तव वपुः
क-न-का-वदातम् ।
बिम्बं वियद्-वि-लस
दंशु-लता-वि-तानं,
तुङ्गो-दया(द्)-द्रि शि-र-सीव
स-ह(स्)-स्र-रश्मेः ॥२९॥
(३०)
‘कुन्’-दन सा तन, चन्दन सा मन ।
‘दा’मन बेदाग वचन-मन-तन ।।१।।
‘व’रदानी इक संकट-मोचन ।
‘दा’ता अद्वितिय, तृतिय लोचन ।।२।।
‘त’ज दिया, न खुलती देख ग्रन्थ ।
‘चल’ दिया निराकुल एक पन्थ ।।३।।
‘चा’हत से रखी न चाहत है ।
‘म’न औरन किया न आहत है ।।४।।
‘र’हमत वाली चादर ओढ़ी ।
‘चा’हत चाँदी आखिर छोड़ी ।।५।।
‘रु’पये न रूप के ये भूखे ।
‘शो’भा अखण्ड-भारत भू-के ।।६।।
‘भ’गवन् भेजा निज जगह आज ।
‘म’न-मन-करने इक-छत्र-राज ।।७।।
‘वि’श्वेक बनाते हाथ नहीं ।
‘भ्रा’मक फैलाते बात नहीं ।।८।।
‘ज’ल-धारा ‘मोर-तोर’ बहते ।
‘ते’रा-मेरा न कभी कहते ।।९।।
‘त’ज इन्होंने दी खुसर-फुसर ।
‘व’र इन्होंने ली मुकुर हुनर ।।१०।।
‘वपु’ राखा अपनों में कब है ।
‘ह’म कहा बस, कहा मैं कब है ।।११।।
‘कल’ कल बहतीं नदियाँ इनकीं ।
‘धौ’री-कारी गैय्याँ इनकीं ।।१२।।
‘त’करीबन थम ही गया भ्रमण ।
‘कान्’-ती ऐसी, जैसी न भुवन ।।१३।।
‘त’र्पण हित भव अब नगन-भेष ।
‘म’न मगन, न क्षणभर राग-द्वेष ।।१४।।
‘उद्य’त हित चित् अरि चौ खाने ।
‘च’श्मे के कब पल दीवाने ।।१५।।
‘छ’ल-बाज, काज न कभी पड़ता ।
‘शां’ती कर्ता, अशान्ति हर्ता ।।१६।।
‘क’ल किल-किल दी धकेल मन से ।
‘शु’चिता इन सखी बालपन से ।।१७।।
‘चि’र भ्रमण परावर्तन सुन पन ।
‘निर्झर’ बन जाते आप नयन ।।१८।।
‘वा’लिद प्रभु उसके अपने भी ।
‘रि’पुता न किसी से सपने भी ।।१९।।
‘धा’सन नामा तकते न चौथ ।
‘र’हते घर से बाहर न भौत ।।२०।।
‘मु’द्दत ‘कि न देखा मुख लड़ना ।
‘च’रणा छूते जिन आचरणा ।।२१।।
‘चै’तन्य तीर्थ में आते हैं ।
‘सत’ काज न जिया चुराते हैं ।।२२।।
‘ट’र्रा ‘कि मूंग सुन दिल दहला ।
‘म’न इन भव-भीत आज पहला ।।२३।।
‘सुर’ ताने-बाने इन नीके ।
‘गि’र, फिर से उठ बढ़ना सीखे ।।२४।।
‘रे’ला जग पीछे दिया छोड़ ।
‘रि’श्ता चेला-जिन लिया जोड़ ।।२५।।
‘व’र सत्य-धरम सर-ताज राह ।
‘शा’हन के भी हैं आज शाह ।।२६।।
‘त’म लड़ने, हैं दीपक बाले ।
‘कौ’शल इन अचरज में डाले ।।२७।।
‘म’न प्रणव-नाद करता गुंजन ।
‘भं’जन तकरीबन मन-रंजन ।।२८।।
कुन्दा-वदात चल चामर-
चारु-शोभं,
वि(भ्)-भ्रा-जते तव वपुः
कल-धौत-कान्तम् ।
उ(द्)-द्यच्-छशाङ्क शुचि-निर्झर
वारि-धार-
मुच्चैस्-तटं सुर-गिरे-रिव
शा-तकौम्-भम् ॥३०॥
(३१)
‘छ’तरी सिर ताने वृक्ष भाँत |
‘त्र’स जगत आज अध्यक्ष पात्र ॥१।।
‘त्रय’-दण्ड, शल्य त्रय नहीं एक ।
‘य’म रहे छका बस यही एक ।।२।।
‘त’न गाड़ी मान, दिया ईधन ।
‘व’ह यह न जिया अपना जीवन ।।३।।
‘वि’श्वेक उदित नित ध्रुव तारा ।
‘भा’वन बहती पावन धारा ।।४।।
‘ति’हु जग न किसी दृग् कंकर हैं ।
‘श’म-प्रशमकर अलग शंकर हैं ।।५।।
‘शा’न्ती वसु-याम उपासक हैं ।
‘क’ज्जल परिणाम प्रणाशक हैं ।।६।।
‘का’चुल फिर, तजते विष पहले ।
‘नत’ आप बेंत ले फन, विरले ।।७।।
‘मु’खड़ा ‘कि चाँद टुकडा अद्भुत ।
‘च’सके-चसके से दूर बहुत ।।८।।
‘चै’तन्य धाम जा दौड़ छुआ ।
‘ह’र हित मन करे करोड़ दुआ ।।९।।
‘स्थित’ व्रत खड्ग चढ़े जल से ।
‘म’न सुमरे इन्हें, मनें जलसे ।।१०।।
‘स्थिगित’ न करते क्षण सेवा ।
‘भा’रत प्रतिभा-रत फन देवा ।।११।।
‘नु’स्खे नानी-से इन अचूक ।
‘कर’पात्र ! पथ्य दें खोल भूख ।।१२।।
‘प्र’ति छिन लें माँज आप चेतन ।
‘ता’दिन ढ़ले, न दे मन वेतन ।।१३।।
‘प’तझड़ मन कर देते सावन ।
‘म’न पामर कर देते पावन ।।१४।।
‘मुक्ताफल’ वाली सीप आप ।
‘प्र’ज्ज्वल उज्ज्वल संदीप आप ।।१५।।
‘कर’ रेख-सिद्ध प्रकटे, निकले ।
‘जा’मन-मारन ‘कि मिटे निकले ।।१६।।
‘ल’खते चश्मा रख नाक-लोच ।
‘वि’द् नस-मानस, आदर्श सोच ।।१७।।
‘वृ’द्धों का सदा मान रखते ।
‘द’रवेश ! विशेष ज्ञान रखते ।।१८।।
‘ध’रते पग किये बिना धम-धम ।
‘शो’ले पड़ नजर बनें शबनम ।।१९।।
‘भ’ड़-भड़ विसरी माफिक शबरी ।
‘म’न दें बनने न चपल चकरी ।।२०।।
‘प्र’तिदिन खो रही शरारत है ।
‘ख’टपट मन हुई नदारत है ।।२१।।
‘या’चक पन चित् चारों खाने ।
‘प’ण्डित यह जग जाने-माने ।।२२।।
‘य’ति अति-ही भोले भाले हैं ।
‘त’ट-जगत् दिखाने वाले हैं ।।२३।।
‘त्रि-जगत’ गाता गौरव गाथा ।
‘ह’र कोई जुड़ इनसे जाता ।।२४।।
‘प’ल पल दृग्-जुगल लिये रिसता ।
‘र’जधानी इन देखे रस्ता ।।२५।।
‘मे’रा-पन तज, भज अपना-पन ।
‘श’र्वरी साँझ-दिन छुयें गगन ।।२६।।
‘बर्’-ताव ताव से रीता है ।
‘त’हजीब पढ़ रखी गीता है ।।२७।।
‘व’रकत न छुयें, छू चाल उरग ।
‘म’ग-लग चलते, न मिटाते मग ।।२८।।
छ(त्)-त्र(त्)-त्रयं तव वि-भाति
शशाङ्क- कान्त-
मुच्चैः स्थितं स्थगित-
भानु-कर(प्)-प्र-तापम् ।
मुक्ता फल(प्)-प्र-कर-जाल-
वि-वृद्ध-शोभं,
प्र(ख्)-ख्या-पयत्-त्रि-ज-गतः
प-र-मे(श्)-श्वर(त्)-त्वम् ॥३१॥
(३२)
‘गंभीर’ सिन्धु जैसा हिवरा ।
‘ता’छिन सिर लिये और खतरा ।।१।।
‘र’ञ्जो गम किया न तोहफा है ।
‘र’ञ्जो-गम जिया न थोपा है ।।२।।
‘व’र-पोत अहिंसा खेते हैं ।
‘पूरित’ मंशा कर देते हैं ।।३।।
‘दि’न, सुनते और-व्यथा निकले ।
‘ग’ट-गट गम-और, निशा निकले ।।४।।
‘वि’धि बन्ध खातमा करते हैं ।
‘भा’री न आतमा करते हैं ।।५।।
‘ग’लती वैसे आदरते ना ।
‘स’हयोग रबर, ना करते ना ।।६।।
‘त्रैलोक’ ध्वजा लहरे कीरत ।
‘य’ह बैठें कम ही जिह्वा-रथ ।।७।।
‘लो’गों को दें अपना न हाथ ।
‘क’ब करे और सपना, न हाथ ।।८।।
‘शु’भ मंगल इन चित्-चोर संग ।
‘भ’र देता जीवन और रंग ।।९।।
‘सं’देश-प्रेम का लाये हैं ।
‘ग’लबाह राह अपनाये हैं ।।१०।।
‘म’द गद छू, छू ज्यों संजीवन ।
‘भू’तल पाया इन नव जीवन ।।११।।
‘ति’हु जग, न तीसरी दृग् मींचे ।
‘द’किया-नूसी छोड़ी पीछे ।।१२।।
‘क्ष’ण-क्षण छाने अपनी कलशी ।
‘ह’सरत हर एक गई जल-सी |।१३।।
‘सद्-धर्म’ उतारा दिल गहरे ।
‘रा’खा नक़ाब न पहिन चेहरे ।।१४।।
‘ज’ल सा लेते रस्ता निकाल ।
‘ज’ब जीवन छाये विघन जाल ।।१५।।
‘य’ह पावन जल गंगा-जमना ।
‘घो’ली खुशबू इन ने पवना ।।१६।।
‘ष’ट् कायन जीव बचा चलते ।
‘ण’वकार जपें चलते-फिरते ।।१७।।
‘घो’टालों से सन्यास लिया ।
‘ष’ट्-अठ श्रृंगार निराश किया ।।१८।।
‘क’रते न कभी भी मन छोटा ।
‘ह’द लांघ, मिले सहते टोटा ।।१९।।
‘स’र हो भारी, करते न काम ।
‘न’ विसरते दिन से लगी शाम ।।२०।।
‘खे’ रहें सलंगर नाव नहीं ।
‘दु’निया-दारी विद् दाव नहीं ।।२१।।
‘न’ किसी को दुश्मन बना रहे ।
‘दु’श्मन को जा घर मना रहे ।।२२।।
‘भि’न-भिन भी भा इनको जाती ।
‘र’ण टिके अड़ा अपनी छाती ।।२३।।
‘ध’धकी ‘कि अग्नि, खींचें ईधन ।
‘व’शिभूत न द्यूत, पूत जीवन ।।२४।।
‘न’ख-शिख श्रृंगारित रहम-करम ।
‘ति’न-की रज चरण न कम मरहम ।।२५।।
‘ते’बीस पाँच गुण-मूल चूल ।
‘यश’ आप-आप गाते न भूल ।।२६।।
‘सह’सा न उठाते धरते हैं ।
‘प्र’ति-लेखन पहले करते हैं ।।२७।।
‘वा’कई अहिंसा धर्म-शान ।
‘दी’वाल न देते कभी कान ।।२८।।
गम्भीर तार रव-पूरित-
दिग्-वि-भागस्-
त्रै-लो(क्)-क्य-लोक-शुभ सङ्गम-
भूति-दक्षः ।
सद्धर्म-राज जय घो-षण
घो-षकः सन्,
खे दुन्-दुभिर्-ध्व-नति ते
य-श-सः प्र-वादी ॥३२॥
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