पूजन आचार्य श्री समय सागर जी
मुनि श्री निराकुल सागर जी द्वारा विरचित
आचार्य समय सागर जी के,
चरणों में शत शत वन्दन है ।
गंगा का निर्मल जल लाया,
हाथों में मलयज चन्दन है ।।
सौरभ मण्डित अक्षत अखण्ड,
वन नन्दन पुष्प मंगाये हैं ।
नैवेद्य दूसरे अमरित ही,
गो घृत के दीप जगाये हैं ।।
कर्पूर अगर, कस्तूर तगर,
रित रित के मीठे फल आया ।
तुम चरणन मरण समाधि हेत,
पूजन अर्चन करने आया ।।स्थापना।।
हा ! पीछे पड़े हाथ धोके,
रोगत्-त्रय जन्म, जरा, मरणा ।
चरणा गुरुदेव भुला मैंने,
मणि मन्-त्रौषध लीनी शरणा ।।
आँखों में जल भर लाया हूँ,
निज करनी पर पछताया हूँ ।।
राखो भगवान् लाज मेरी,
अब द्वार आपके आया हूँ ।।जलं।।
जाने क्या पुण्य उदय आया ?
मैं इतर निगोदी कहलाया ।
थावर फिर त्रस पर्याय हाथ,
नौ ग्रै-वेयक हद छू आया ।।
पर हन्त ! रहा मिथ्या-दृष्टि,
संसार बढ़ चला यूँ मेरा ।
ले हाथों में सुरभित चन्दन,
दरबार निहारा अब तेरा ।।चन्दनं।।
जैसे ही पद आता समीप,
‘आ’ आप आप आ जाता है ।
पद सभी जान आपद तुमने
जोड़ा अक्षय पद नाता है ।।
गुरुदेव आपके चरणों में,
लाया कण अक्षत अनटूटे ।
बस आप सरीखी इस भव में,
झिर अमरित स्वानुभूति फूटे ।।अक्षतं।।
मैं सुनता कब, वह भले कहे,
मैं सार्थ नाम मन-मथ देता ।
पहुँचूँ मैं कैसे मंजिल पर,
हा ! रेता में नौका खेता ।।
गुरु आज्ञा पाल बाँध तुमने,
बहना चाहा विधि धारा में ।
सुर बाग पुष्प लाया, आया
करने अनुशरण तुम्हारा मैं ।।पुष्पं।।
चुग चुगली हन्त ! पेट अपना,
मैं कण्ठ तलक भर लेता हूँ ।
पल पीछे हाय ! पता लगता,
कोल्हू के चक्कर देता हूँ ।।
खा लेते बनती गम्म आप,
पी लेते गुस्सा देखा है ।
बस तभी लिये षट्-रस व्यंजन,
चरणों में मस्तक टेका है ।।नैवेद्यं।।
पुल बन, बैठा अपने कांधे,
औरों को पार लगाता हूँ ।
रह चले अँधेरा ‘दिया’ तले,
जाने क्यूँ समझ न पाता हूँ ।।
है पास आपके रतन दीप,
मन मेरे कर दो उजियाला ।
मैं चरण शरण आया भगवन्,
ले गो घृत दीपों की माला ।।दीपं।।
पहले से आठ आठ दुश्मन,
हा ! और बनाता जाता हूँ ।
थे पढ़ने ढ़ाई अखर प्रेम,
क्यूँ नफरत तक बढ़ आता हूँ ।।
है सुना आप तीर्थंकर कल,
इसलिये शरण में आया हूँ ।
चन्दन चूरी, अर कस्तूरी,
खेने अगनी में लाया हूँ ।।धूपं।।
परिणाम सॅंभाल न करता हूँ,
करता हूँ फल की अभिलाषा ।
आशा न रखी फल की किंचित,
रख चले आप दृष्टि नासा ।।
फल राज-भोग ना चाह रहा,
रख लो अपनी दिव छैय्या में ।।
है भार नहीं ज्यादा मेरा,
रख लो अपनी शिव नैय्या में ।।फलं।।
श्रद्धा भक्ती से भर कर के,
मैं आप शरण में आया हूँ ।
चरु, दीप, धूप, जल, गंधाक्षत,
फल, पुष्प चरण में लाया हूँ ।।
हो दुख विनाश, हो कर्म नाश,
हो अन्त समाधि मरण मेरा ।
जब बनो आप तीर्थंकर तब,
कहलाऊँ मैं गणधर तेरा ।।अर्घ।।
=दोहा=
गुरु धरती के देवता,
चार-धाम गुरुदेव ।
गुरु सेवा से रीझते,
आदि-ब्रह्म पुरुदेव ।।
जयमाला
गुरुदेव समयसागर जी की,
आओ गाते गौरव गाथा ।
हैं पिता सिरी मल्-लप्पा जी,
माँ श्री मन्ती जिनकी माता ।।
सदलगा ग्राम कर्नाटक में,
गुरुदेव जन्म-उत्सव छाया ।
गाजे बाजे इक साथ सभी,
धरती पर स्वर्ग उतर आया ।।
था दिन वह सोमवार का शुभ,
तिथि आश्विन शरद् पूर्णिमा थी ।
था विक्रम संवत् दो हजार-
पन्द्रह गाती कवि परिपाटी ।।
बालक का रक्खा नाम शान्ति,
यह मिल दो बहन, चार भ्राता ।
शांता, स्वर्णा श्री महावीर,
विद्याधर नंत पंथ नाता ।।
मल्-लप्पा पिता मल्लि सागर,
अर्जिका समय माँ श्री मन्ती ।
विद्याधर मुनि विद्यासागर,
जिनसे प्रारंभ सन्त पंक्ती ।
इक भ्रात अनंत योग सागर,
सागर उत्कृष्ट महावीरा ।
सप्तम प्रतिमाधारी बहनें,
दृग् सजल देख दुखियन पीड़ा ।।
यह महावीर जी पुण्य भूम,
क्या गये न फिर वापिस लौटे ।
करके दर्शन विद्या गुरु के,
मेटे अब्-ब्रह्म भाव खोटे ।।
गुरु ने दिन मार्ग-शीर्ष शुक्ला
की करूणा दी क्षुल्लक दीक्षा ।
दे नाम समय सागर जी फिर,
दी कुन्द-कुन्द गुरुकुल शिक्षा ।।
नैनागिर सिद्धक्षेत्र जी में,
ऐलक दीक्षा दिन दीवाली ।
दीक्षा निर्ग्रन्थ द्रोणगिरि में,
छठ चैत्र मास की अंधियारी ।।
यह ज्ञान ध्यान लवलीन सन्त,
कर पात्री ! पदयात्री विरले ।
मुनि मौनी ! श्रमण निरतिचारी,
बनते आ रहे जन्म पिछले ।।
गुरु शांति, वीर, शिव, ज्ञान बाद,
विद्या फिर आप सूर्य नामी ।
है बाधक काल आप वरना,
कहलाते सिरपुर के स्वामी ।।
हैं भाव बहुत, पर शब्द नहीं,
इसलिए आँख में ले पानी ।
हो सके ‘निराकुल सुख’ मेरा,
अपनी सॅंकोचता नादानी ।।
=दोहा=
लोहा सोना बन चला,
क्या अचरज को थान ।
श्री गुरु बढ़ पारस मणी,
करते स्वयं समान ।।
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