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अद्भुत चालीसे

   निंदक चालीसा  

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

=निंदक चालीसा=

आ निन्दक गुण गाएँ भाई ।
बिन साबुन जो करे सफाई ।।
देखा, बूँद न पानी लेता ।
गन्दला-मन, उजला कर देता ।।1।।

पकड़ा देता, जमीं अनोखा ।
देता उड़ा आसमाँ थोथा ।।
मारे अपने पैर कुदाली ।
बने चालनी, रहता खाली ।।2।।

सिर अपने ले काँधे ‘औरन’ ।
पार लगा देता है फौरन ।।
सपने घर अपने लग पाता ।
निन्दक ‘पुल’ किरदार निभाता ॥3।।

खूब मचा ले, कर मनमानी ।
काँदा पिये, कहाँ अब पानी ।।
अच्छा था बन ‘महिषी’ जाता ।
महिषी बन, क्यों हँसी कराता ।।4।।

डाँट लगा पर-नाव तिराई ।
पानी आप उलीच हँफाई ।।
हाँप-हाँप अब डूबो मृग से ।
कहो, न करना निन्दा, जग से ।।5।।

रज शोधा पा जाता सोना ।
निन्दक हाथ लगे वन-रोना ।।
मुफ्त ताँव दे सोला पूरे ।
पूरे स्वप्न हमार अधूरे ।।6।।

भले करीब आँख से इतना ।
दिखता मगर गीड़ कब अपना ।।
निन्दक खड़ा आईना ले के ।
आ ले हटा ‘कि दुनिया देखे ।।7।।

जाने अनजाने छप जाती ।
तिल-परिवार बीच छुप जाती ।।
निन्दक आया लिये फुहारा ।
कालिख कर लो ‘नो-दो ग्यारा’ ।।8।।

तेरा हो या दीपक मेरा ।
रहे बना ही तले अंधेरा ।।
निन्दक जुगुनू बनके आया ।
जब तम देख नदारद छाया ।।9।।

बल पंखों के हुआ पलटना ।
बिना सहारे, स्वप्न सुलटना।।
निन्दक आया करने अंगुली ।
झट लो सुलट कीट ओ बिजुरी ।।10।।

पेंसिल रबर दबा ले आधी ।
आदत बुरी चबा ले आधी ।।
बची खुची भी निन्दक घोरे ।
मन परिणाम बना लो गो’रे ।।11।।

सुना कीमती वक्त बड़ा है ।
निन्दक देने मुफ्त खड़ा है ।।
रोड़े अटके उठा वहाँ से ।
गढ़-परकोट, रहो कछुआ से ।।12।।

हंस चुगे मोती सर-मानस ।
खड़ा पैर इक ‘बक’ बन तापस ।।
निन्दक पात्र दया का समझो ।
भूस न लाठी, सिंह बन सुलझो ।।13।।

मुख-ऊपर कर धूल उड़ाये ।
पहुँच आसमाँ तक कब पाये ।।
भरी आँख में अपनी आके ।
पानी अपना रखो बचा के ।।14।।

सभी आसमाँ नजर टिकाये ।
भूमि, भूल भी किसे दिखाये ।।
निन्दक लगा रहा है डण्डा ।
लहर लहर लहरा लो झण्डा ।।15।।

महक बिखेरे दिश् दिश् अपनी ।
कूबत पास सुमन कब इतनी ।।
निन्दक आया साथ हवा ले ।
करते उसको हाथ हवाले ।।16।।

गलती स्वयं कहे मैं गलती ।
कहाँ नग्न आँखों से दिखती ।।
निन्दक लाया लेंस विदेशी ।
जैसी कहे, मान लो वैसी ।।17।।

सिक्के इक पहलू दो होते ।
उड़े, राज बिन जाने तोते ।।
निन्दक राज उस तरफ खोले ।
झगड़ न बिगड़ उस तरफ हो ले ॥18।।

कहता और बुरा बनता है ।
बाद, हाथ-मल, सिर-धुनता है ।।
मृदा, जुदा ही हुआ विरचना ।
बने, न बनना निन्दक बचना ।।19।।

छोड़ दूसरी और पढ़ाई ।
करें, बनें तब निन्दक भाई ।।
करना रोक-टोक कब आसाँ ।
दीपक बुझे कई निज श्वासा ।।20।।

भले एक से दो सुनते हैं ।
दूजा-निन्दक जो चुनते हैं ।।
एक-एक मिल ग्यारा बनके ।
गढ़ उखाड़ लेंगे दुश्मन के ।।21।।

घुल-मिल हो जाती इक पानी ।
किट्ट-कालिया बड़ी सयानी ।।
लिये निर्मली निन्दक देखो ।
रूठ न पाये, घुटने टेको ।।22।।

सुनी प्रशंसा मति बौराती ।
निन्दा ऊँट कूट तर लाती ।।
करो ‘कि कुछ निन्दक अपना ले ।
आस-पास आवास बना ले ।।23।।

नमीं जरा सी भी क्या पाये ।
काई अपना पैर जमाये ।।
और हमें आता कब चलना ।
टोके निन्दक, कहे सँभलना ।।24।।

पैनी बड़ी नजर निन्दक की ।
चील घूरती घूरे तक ही ।।
रवि, कवि अगम वहाँ जा पहुँचे ।
आँचल अपने कालिख पोंछे ।।25।।

कौन मदद निन्दक सी करता ।।
और अदद सर अपने धरता ।
जहाँ जमाना स्वारथ साधे ।।
धन ! निन्दक पर हित आराधे ।।26।।

निन्दक अपनी राख खरचता ।
चमचम वर-तन और चमकता ।।
बिन फिटकरी-हर्र रँग चोखा ।
देखो खो मत देना मौका ।।27।।

निन्दक महँगा लिये खिलौना ।
आ खेलें, क्यूँ रोते रोना ।।
गैर न निन्दक अपना, हारें ।
अर नहले पे दहला मारें ।।28।।

नजरंदाज करें हम जिसको ।
फेंके खुरच-खुरच के उसको ।।
निन्दक ले रख यूँ नख-बीसा ।
रखे जमाना नाम खबीसा ।।29।।

कान छके सुन आप बढ़ाई ।
सुन कुछ-कुछ नमकीन बुराई ।।
मीठे-पे-मीठा कब भाये ।
निन्दक आ के भूख बढाये ।।30।।

निन्दक नजर पारखी रखता ।
हम हीरे से तभी परखता ।।
शान चढ़ायेगा, न डराना ।
शान बढ़ायेगा, गम खाना ।।31।।

सत-युग सुफदे दामन वाला ।
कल-जुग हरेक दामन काला ।।
नजर सरसरी दाग छुपाई ।
निन्द-दे-बता आँख गढ़ाई ।।32।।

कालिख हाथ लिये जो आता ।
रँगे हाथ सो पकड़ा जाता ।।
खुले न मुट्ठी, कुछ यूँ जपना ।
आखिर निन्दक भाई अपना ।।33।।

देर कान दीवाल सटाना ।
तोते सा फिर चुगली खाना ।।
आता बड़ा मजा तो इसमे ।
पता ! रहे पर तोता किस-में ।।34।।

निन्दक छुपा निशाना साधे ।
रहना जगत-जगत् बतला दे ।।
वरना हम तो रहते सोते ।
जाने कब उड़ चलते तोते ।।35।।

जल में लकड़ी टेड़ी दिखती ।
जल-बाहर सीधी दिख पड़ती ।।
निन्दक का नहिं दोष जरा भी ।
राख नाक पल ‘भी’-चश्मा भी ।।36।।

गढ़ने गहने खोट जरूरी ।
मिल निन्दक, गुम करो फितूरी ।।
जाने निन्दक जादू टोने ।
गहने गढ़े टंच-सौ-सोने ।।37।।

काँटा चुभ जा गहरे हो ले ।
दिल जा चुभे ‘कि निन्दक बोले ।।
काँटे से ही निकले काँटा ।
सो निन्दक अपनों में आता ।।38।।

मन माफिक शिशु भोले-भाले ।
निन्दक सच कड़वा कह डाले ।।
कान अंगुलिंयाँ डाल न लेना ।
अगर खोलना तीजा नैना ।।39।।

‘ई’ ईर्ष्या की सिर्फ हटा ले ।
निन्दक आनन्दिक गुण पा ले ।।
चश्मा हटा निरख बस नासा ।
होना ‘सहज-निराकुल’ आसाँ ।।40।।

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