सवाल
आचार्य भगवन् !
इतनी तपती दोपहरी रहती है,
धरती फट पड़ती है,
पत्ते-पत्ते पीले हो, झड़ चलते हैं
कूप-धूप की लड़ाई में, कूप हार जाते हैं
लू पेट का पानी सुखाने,
रोम-रोम से घुस-पैठ मचाती है
ऐसी गर्मी में,
कुछ गिनी चुनी ही अंजुली जल लेना,
क्यों भगवन् !
सच बताना,
जल की याद नहीं आती है ?
नमोऽस्तु भगवन्,
नमोऽस्तु भगवन्,
नमोऽस्तु भगवन्,
जवाब…
लाजवाब
हाँ…
आती तो है
पर
आ करके मंजिल की याद
बन जाती है ‘दहला’
और ‘नहला’ जल की याद
फिर-के बाद
कभी न आती है
मगर ये मुआ मनुआ,
बड़ा खुरापाती है
‘एन्काउण्टर’ कराना
इसकी चिर परिपाटी है
बस प्रभु यही मिल माटी में जाये
काश, वो दिन शीघ्र मेरी जिन्दगी में आये
ओम् नमः
सबसे क्षमा
सबको क्षमा
ओम् नमः
ओम् नमः
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