सवाल
आचार्य भगवन् !
दाँत मर्कट कट-कट करने लगते हैं
साँय साँय की आवाज करती,
हवाएँ चलने लगती हैं,
और मनमानी
ओला, बरफ, पानी
ऐसे में दिन तो,
छिन सा गुजर जाता है
भज सूरज,
लेकिन स्याही रातें,
और सुनते हैं,
बैठने पर कम लगती है ठण्ड़ी,
और वही ठण्ड़ी लेटते ही,
दुगुनी ताकत के साथ वार करती है
तब भगवन् ! बताईये,
क्या जर्रा सी भी रजाई याद नहीं आती है ?
नमोऽस्तु भगवन्,
नमोऽस्तु भगवन्,
नमोऽस्तु भगवन्,
जवाब…
लाजवाब
हाँ…
आती तो है
मगर देव माला मुरझाई
तिर्यच आँख डबडबाई
नरकों की पिटाई
आ करके याद
हाथ-हाथ
रजाई की याद
फीकी बना जाती है
और ‘न रहना रजाई में’
खुद मेरी है, रजा, ई…में
किसी की बलजोरी थोड़ी ही ना
सो ठण्डी लगती थोड़ी भी न
मारना तरंग
बस अन्तरंग
जमाने रंग
ओम् नमः
सबसे क्षमा
सबको क्षमा
ओम् नमः
ओम् नमः
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