(९१)
‘मुझसे हाई… को ?’
*सीपी ओढ़नी
मेहरबानी
मोति आषाढ़ी पानी*
‘मेरे साथ क…वीता’
*सारी दुनिया ही चाहती
‘के मेहरबानी हो
पर मेहरबानी क्या चाहती
उसका ‘शर्तनामा’ भी तो सुनो
वैसे कम न इसकी कृपा
प्रश्न में ही इसने रक्खा उत्तर छुपा
शर्त पहली
मैं हर वाणी हो
और शर्त विरली
मेह…रवानी हो
मेह यानी ‘कि बारिश
सो बार-इस
निस्पृह-नेह चुनो*
‘सुन लीजिए ना, क… हानी ?’
*प्रेशर कुकर ले गया बाजी मार के
एक प्रतियोगिता थी
जल्द से जल्द
बढ़िया चावल कौन पका सकता है
आई थी, तपेली भी आई थी
पर लड़ झगड़ के आई थी
जाने क्यों न सुन पाई थी
‘पारा’ पार कराया जिसने कई बार
तब कहीं जाकर के कहा होगा
इस स्वारथी दुनिया ने ‘पारा’
जाने मति मारी गई
जो पारे के बिना ही मैदान में उतरी
पर
अब पछताये होत क्या ?
खा रही है,
कसम खा रही है
‘के कुछ चीजें बोझ नहीं होतीं हैं
उनके साथ रहने पर
हमारा ओज ही बढ़ता है
इसलिये सांझ रोजनामचा मिलाते वक्त
‘के सिर न पकड़ना पड़े,
सुनो मन !
अपने अनूठे को साथ ले लो
अंगूठे सा ही है यह
अंगुलियां बगलें झांकती दिखती हैं
इसके बिना
सो
एक से भले दो
हमेशा याद रक्खो*
‘मैं सिख… लाती’
*शब्द ही कह रहा ‘साथी’
रखना हमेशा अपने साथ…ई*
(९२)
‘मुझसे हाई… को ?’
*झाड़ी चिड़ियों बिन
‘ना…गिन’
ना’री चुड़ियों बिन*
‘मेरे साथ क…वीता’
*चिड़िया
‘उड़ा दी’
चुड़िया
अब साधो ईश्वर
सा, रे, गा, मा, थी, पा, धा, नि
सात साथ में
थे वैसे अपने हाथ में
ई-स्वर
चलो,
चुड़िया लिये चिड़िया उड़
जा ना पाई होगी ज्यादा दूर
ले आते एक बार फिर के मना,
वैसे माना भी न अच्छा गुरूर*
‘सुन लीजिए ना, क… हानी ?’
*एक बार एक प्रयोग-शाला में
प्रयोग करके देखा गया
एक घड़ी को तोला गया
घड़ी का वजन निकला अखण्ड अंक में
अब इसमें से कुछ कम करता था
सबसे पहले भारी काँच अलग किया
घड़ी का वजन उतना ही रहा
अब नम्बर नम्बर अलग करने का आया
नम्बर के पीछे की बिंदियां
अलार्म का काँटा
सेकण्ड का काँटा
मिनट का काँटा
घड़ी का वजन उतना ही रहा
चूंकि घड़ी समय सही बदला रही थी
और लगभग कहकर के
जो बतलाती है दुनिया समय
अब और कुछ कम करने की बात आई
तो घड़ी की आँखों से
आँसू ढुलक पड़े
लेकिन तोलने वाले ने
घंटे का काँटा जैसे ही अलग किया
‘के घड़ी का वजन शून्य हो चला
सेल लगे होने ले
टिक टिक की आवाज तो बराबर हो रही थी
पर किसी की नजर अब
टिक न रही थी उस पर*
‘मैं सिख… लाती’
*वजन सारी
वस्तु का नहीं
बलिहारी वस्तु का होता है*
(९३)
‘मुझसे हाई… को ?’
*दो पट्ठे हैं
न सिर्फ दुपट्टे हैं
लाजो !
राखिजो*
‘मेरे साथ क…वीता’
हा ! ‘री
अब तक हाथ लगो धोखो
क्यूँ ना’री
राख लो ना दुपट्टो
चित्त अपने हाथ है
पट्ट उसके साथ है
और का ?
जोई तो कहाय
हर्र लगे न फिटकरी
और रंग आय चोखो*
‘सुन लीजिए ना, क… हानी ?’
*एक बच्ची थी
इन्टरव्यू देने अपने घर से निकली
संस्थान में जहां
दूर-दूर से विद्वान आये थे
एक अनोखे
बच्चे का चुनाव करने के लिए
उन्होंने जैसे ही
इस बच्ची के मस्तिष्क पर
स्वस्तिक बना देखा केशर का
‘के निर्णायक लोग उसे देखकर के
बड़े खुश हुये
बच्ची एक अनूठी अदब के साथ
सबका अभिवादन करके बैठ चली
एक निरीक्षक ने उससे पूछा
बेटा
एक और एक दोनों मिल करके
कितने होते हैं
बच्ची सहजता के साथ जवाब देती है
महाशय
इसका कोई एक जवाब नहीं है
विद्वान बोले क्या मतलब ?
बच्ची बोलती है
एक और एक दो एक
एक और एक ग्यारह,
एक और एक दो नौ मिलकर के तेरा
एक और एक दो नौ मिलकर के
एक हजार एक सौ उन्नीस
निर्णायक लोगों की आँखें
फटीं की फटीं रह गईं
वह बोलते हैं
बेटा
कहाँ पढ़ाई की है आपने
वह बच्ची कहती है
महानुभाव
मैं दूसरे मदरसे की
दूसरी कक्षा में ढ़ाई आखर पढ़ती हूँ
बच्ची की सभी लोगों ने
भूरी भूरी प्रशंसा की*
‘मैं सिख… लाती’
*गणित के अलावा भी
अगणित गणित हैं
वो भी सीखना चाहिए हमें*
(९४)
‘मुझसे हाई… को ?’
*फुर चिड़िया हया
फिर गुड़िया
है ही हाथ क्या*
‘मेरे साथ क…वीता’
*यदि कोई कहता है
कि
चलते वक्त
कदमों के निशाँ
हर जगह पड़ते कहाँ ?
पर रेत में
तर-खेत में
अर धूल में
‘रे मत रहना भूल में
हम तो यहाँ तक कहते हैं
‘कि गलत कदमों के निशाँ
पड़ते रग रग में भी
न ‘कि मारग में ही
सुनो कदम कहे क…द…म
कादा
यानि ‘कि कीचड़
जगह जगह
संभल संभल चलना हमें*
‘सुन लीजिए ना, क… हानी ?’
*मान सरोवर के तट पर
एक गुरुकुल था
जिसमें बगुला और हंस पढ़ते थे
एक बार गुरुजी ने
दोनों के लिए एक डिब्बी में कुछ दिया
जिससे घर ले जाकर
कल सुरक्षित डिब्बी
वापिस लाकर गुरु जी को देना था
डिब्बी का ढ़क्कन बड़ा सुन्दर था
मोतियों से जो बना था
‘के हर किसी का मन
करने लगता था
उसके लिए खोलने का
‘के एक बार तो देखो ?
है क्या इसमें
हंस संयमी था
उसने ज्यों की त्यों डिब्बी
सुबह लाकर गुरुदेव के हाथों में थमा दी
जब बगुले का बारी आई
तो बगुला बगलें झांकने लगा
गुरुजी ने कहाँ
डिब्बी कहाँ है बेटा
तब उसने सहमे-सहमे थमाई डिब्बी
गुरु जी ने खोल कर देखा
तो डिब्बी खाली निकली
पता है गुरु जी ने
उसमें क्या रख के दिया था
कपूर
जो ढ़क्कन में बार बार उघड़ने से
हर बार कपूर को
कुछ कुछ कापूर कर देता था
और चूंकि खुशबूदार जो रहता है
सो बगुले ने रात भर ढ़क्कन
खुल्ला ही रख छोड़ा था*
‘मैं सिख… लाती’
*सिर ढ़का न ऐसा वैसा
दूध पै मलाई जैसा*
(९५)
‘मुझसे हाई… को ?’
*शुभ शगुन
सुन’री कृत्य पुन
चुन’री चुन*
‘मेरे साथ क…वीता’
*कृत्य
‘कि…रत
कीरत प्रदाता वो
पुण्य
पुन
पूर्णिमा लाता जो
चूँकि कलिकाल
काली
रात अमावस वाली
सुन
चुनरी
कृत्य पुन*
‘सुन लीजिए ना, क… हानी ?’
*एक दफा
बन्दरों का कार्यक्रम था
रंग मंच पर आना था,
और कोई पौराणिक चित्र
सजीव खींच करके लाना था
एक सहजो-परिवार
श्रवण कुमार बना
बच्चे को तो बस कांवड़ उठानी थी
धोती-पंचे पहिने हुए
एक मन्द मुस्कान
सो ज्यादा परेशानी नहीं थी
पर श्रवण कुमार के मां-पिता अंधे जो थे
यह बतलाने के लिए
सबसे पहले काला चश्मा लगाना चाहा
लेकिन तभी ध्यान आया
‘कि उस समय चश्मे कौन लगाता था
तब दूसरा उपाय खोजा
कोई बोला
क्यूॅं न आंखों का मिलमिलाना
बतला दें
जैसा ‘कि महाभारत सीरियल में
धृतराष्ट्र करते हैं
लेकिन ऐसा करना भी
ज्यादा अच्छा न लगा
तब उस परिवार की दादी मां बोलतीं हैं
बेटा सबसे अच्छा है
एक गोमुखी ले लो केशरिया रंग की
और आंखें बन्द कर लो
ध्यान मुद्रा में
क्या अंधे क्या आंखों वाले
सभी एक से
जो लगते हैं
बस काम बन चला
अद्भुत प्रस्तुति रही
गोमुखी लिए माँ पिता बन्दर की
अंगुलियां वैसे ही चल रहीं थीं
जैसे गाय जुगाली करती है*
‘मैं सिख… लाती’
*कक्षा दूसरी पढ़ी
चुन’री
लाज बचाने खड़ी*
(९६)
‘मुझसे हाई… को ?’
*चूनर बिन
चांद तारे
टकें तो कहां बहिन*
‘मेरे साथ क…वीता’
*ऐसी वैसी न चूनरी
अम्बर ही दूसरी
अपने चाँद-तारे टक जाने दिये
ठोके बगैर मान-हानी
चुनरी लासानी
होगी ही होगी
कोई न कोई बात
चाँद-तारे लगते कहाँ सभी के हाथ
और टकना ही बता रहा
‘के आसमाँ के पास तो
ऐसे-वैसे सभी हैं
पर , चुनरी के पास चुनिन्दा
तुरुप से धुरुव तारे
और दूज-पून चन्दा*
‘सुन लीजिए ना, क… हानी ?’
*एक चींटी और एक तितली
दोनों बड़े अच्छे मित्र थे
एक बार चींटी के गुरु जी आये
दोनों दर्शन के लिये वहां गए
गुरु जी ने कहा
‘चींटी के पंख आना मतलब मौत’
इसलिये अच्छा है
हम सभी जमीन के ही बने रहें
आसमान तो किसी ने छुआ भी नहीं
मतलब सीधा सीधा है
गुरु जी सहजो-निराकुल रहने की बात
बतलाकर तीर्थ यात्रा पर निकल पड़े
गुरु जी के जाने के बाद
दोनों मित्र निद्रा की गोद में पहुंचे
तितली ने एक सपना देखा
‘के
अपने पंख निकलवा लिये है उसने
डॉक्टर के जा करके
और तभी सपने में
आकाश वाणी हो चली
‘के सभी लोग अपने पंखों में
रंग भरवा लें
आज भगवान् का जन्मदिन जो है
सभी के पंखों में नये नये रंग आ चले
लेकिन यह तितली
अब अफ़सोस कर रही थी
डॉक्टर के यहां जो छोड़ आई थी
पंख अपने
अब भगवान् भरें तो भरें रंग कैसे ?*
‘मैं सिख… लाती’
*कुछ चीजों की जोड़ी बेजोड़ रहती है
एक के बिना दूसरा
कोई काम का ही नहीं बनता है*
(९७)
‘मुझसे हाई… को ?’
*पश्चिमी हवा मोहन धूल
बिष ले ‘री क़बूल*
‘मेरे साथ क…वीता’
*सपना
अपना
अप टू-डेट बनना
जाने फिर क्यूँ चुना
कुछ छुपाया भी नहीं
साफ-साफ कह ही रहीं
मैं बैक’री
मैं ‘पाप-सी
हमारी अपनी ही भूल
‘किससे’ क्या कहें
सच
पश्चिमी हवा मोहन-धूल*
‘सुन लीजिए ना, क… हानी ?’
*मिल करके चूहों ने
बिल्ली को एक बार छकाने की सोची
उन्होंने बिल्ली को
दावत पर बुलाया
और सभी चूहों ने
आक नाम एक पेड़ के
पत्तों को तोड़ कर
बूँद बूँद करके दूध इकठ्ठा किया
जो देखने में गाय के दूध सा ही
सफेद लग रहा था
और था भैंस के दूध सा ही गाड़ा
देखते ही बिल्ली मौसी की जीभ में
पानी का चला
आँखें तो ठीक
नाक की बन्द करके वह
एक बार में
कर चली उस दूध को
अपने हलक के नीचे
फिर ?
फिर क्या
गिर पड़ी जमीन पर पीछे*
‘मैं सिख… लाती’
*’रे हँसिया
कुछ हटके ही हंस धिया*
(९८)
‘मुझसे हाई… को ?’
*लहर खुशी दौड़े
जो माटी ‘हरी’
चुनर ओड़े*
‘मेरे साथ क…वीता’
*न ओढ़नी पानी जहाँ
उन ग्रहों में जिन्दमानी कहाँ
पानी चूनरी
भू हरी-भरी
वजह यही
इस जैसा
न रुपया पैसा
अनूप
बाद इसके रूप-रंग
यह आईना अन्तरंग
सो चुन’री*
‘सुन लीजिए ना, क… हानी ?’
*बड़े परेशान थे रत्न
चाहे जो आंखों से ही नहीं
हाथों से भी छूकर
तंग करता रहता था उन्हें
वे खोज में थे एक अच्छे से
सुरक्षित स्थान की
भव पूर्व पुण्य फल मानो
मिल ही गया सागर उन्हें
जो पानी रूप चूनर ओढ़े रहता है
वो भी ऐसी वैसी नहीं
लहर, भँवर, मगर, रूप सितारों से जड़ी
अब उन रत्नों को
सपने में भी देखने पर
पहले आते थे नजर
लहर, भँवर, मगर
फिर ? फिर क्या
जाता है वह रत्न प्रेमी सिहर
और नशा सारा जाता है उसका उतर*
‘मैं सिख… लाती’
*घाव तो धीरे धीरे नासूर बन जाते हैं
बनती कोशिश ठोकरें से
बचाब अच्छा है*
(९९)
‘मुझसे हाई… को ?’
*दुपट्टा यानी दो पाट
बीच जिन पता सरिता*
‘मेरे साथ क…वीता’
*माना बहुत कुछ सिख…लाता
‘उपट्टा’
पर आगे उप’ लगाये
यानि ‘कि कुछ-कुछ छुपाये
चलो खोज लाते
सुनते हैं,
ताले चाबी साथ आते
बिछुड़ जाते बस
धन-धन !
भगवन्
मिल गया शब्द दुपट्टा
दो-उप
मतलब
मायनस, मायनस
बराबर प्लस*
‘सुन लीजिए ना, क… हानी ?’
*एक हिरण और हिरणी थी
दोनों को भव पूर्व पुण्य से
एक छौना नशीब हुआ
छौने का एक हाथ हिरण
और दूसरा हाथ हिरणी थामती थी
इस तरह उसे बीच में चलाते थे
वह हिरण और हिरणी
सलौना छौना तो दूर रहा
दुश्मन उसकी परछाई भी
छू ना पाते थे
लेकिन एक दिन
किसी चालबाज ने
एक सुरीली तान छेड़ी
‘कि छौना छलांगें भरते हुये
जा पहुंचा हिरण और हिरणी की
आँखों से दूर
और दुश्मन तो तांक लगाकर के
बैठे हो थे
याद शेष है अब उस छौने की
हिरण और हिरणी मिलते है उससे
अब सिर्फ सपने में*
‘मैं सिख… लाती’
* असंयम की बाड़ उजाड़ती है
और और ही है संयम की बाढ़
जो निखारती है*
(१००)
‘मुझसे हाई… को ?’
*नादाँ !
दो पट्ठे कम
विश्वसनीय टुपट्टे ज्यादा*
‘मेरे साथ क…वीता’
*मसी-ए-कथन
कबूल दुआ
क्यों हुआ मशीनीकरण
क्यूंकि
मोती चुनता है
जुड़
‘मा…नस’
बिछुड़ कटौती चुनता है
सोच जो छोटी चुनता है
तभी उड़ चली दिश्-विदिश् सुगंध
‘दुपट्टे’
दो पट्ठों से ज्यादा भरोसेमंद*
‘सुन लीजिए ना, क… हानी ?’
*सारा जंगल
*एक बार तीर्थ यात्रा पर निकला
तीर्थ स्थान पर
भक्तों की भीड़
कुछ ज्यादा ही रही
इसलिए रुकने के लिए
सभी को कमरे न मिल पाये
बड़ी मगज़ मारी करके
शेर से कोई कह रहा था
मेरा बैग रख लो
कोई कह रहा था
मेरा पर्स रख लो
शेर ने किसी के लिये भी
मना नहीं किया
तभी एक मक्खी आई
उसने कहा
ओ जंगल के राजा
मुझे एक कोना भी नहीं चाहिए
मैं तो उड़ती उड़ती ही
रात निकल लूगीं
मुझे तो बस
आप अपने कमरे की
छत के नीचे रख लो
शेर ने तुरंत कह दिया
नो नो नो
उसने कहा क्यों ?
तुम अभी तो
सभी के लिए हॉं भर रहे थे
हमें क्यों न कह रहे हो
तब वह बोला
बेजान चीजों से क्या खतरा ?
खतरनाक तो हम तुम हैं
एक दुसरे के लिए
जो नाक में दम करके रखते हैं*
‘मैं सिख… लाती’
* ऐसे मत चलो
‘के किसी को खलो*
(१०१)
‘मुझसे हाई… को ?’
*समाधि
होगी ही निष्कण्ट
‘मंगल-सूत्र’ जो कण्ठ*
‘मेरे साथ क…वीता’
*ना’री
ऐसा वैसा नहीं
‘मंगलसूत्र’
मम कार अहंकार को गलने वाला है
मंग-उमंग को लाने वाला है
सु-सुई का रखवाला है
त-तुरपाई करने वाला है
र-रक्षक निराला है
नाद-नन्त धारा प्रवाह
धारा साथ विवाह
वि-विशेष वाह-वाह भिटाने वाला है
भव दाह-आह मिटाने वाला है
हाँ, री
पैसा-वैसा यही ‘मंगल-सूत्र’
‘सुन लीजिए ना, क… हानी ?’
*एक कागज का टुकड़ा
माँ के गर्भ में था
तब से ही भावना भा रहा था
‘के मुझे आसमान में छाना है
आकाश छूना है
पुण्य प्रताप समझियेगा
बन चला पतंग
सबसे सुन्दर
बनाते वक्त बड़ी ही सावधानी से
बनाया उसे शिल्पी ने
अब क्या देखते है बन्डल बनाते वक्त
बीच में रखा उसे
फिर रस्सी बांधी
कोई आंच न आई
दुकान पर बिकने आ चली
एक व्यक्ति ने खरीद लिया उसे
घर ले आया वह व्यक्ति
तभी एक छोटा बच्चा मचल गया
कि मुझे पतंग दे दो
और रोने लगा
मकरसंक्रांति
पर उड़ाने लाये थे
लेकिन अब करे क्या
वह व्यक्ति
बच्चे की जिद पूरी करने
पतंग से बॉंध करके
उस बच्चे को थमाने
सूतली खोजने लगा
‘के
भगवान् से प्रार्थना की
पतंग ने
तभी अन्दर से बच्चे की मम्मी ने
मिठाई दे करके
बच्चे के लिए चुप कर लिया
पतंग ने जान में जान आई
आज मकरसंक्रांति है
यह मंगल दिवस
इसमें सूत्र मतलब धागा
लेकर घर के बड़े व्यक्ति ने
वह पतंगे उड़ाई
हवा ने साथ दिया
पल भर में पतंग
आसमान छू चली
पतंग ने धागे को धन्यवाद दिया
वह व्यक्ति पतंगबाजी में
जीत कर के आया
इसका श्रेय
उस व्यक्ति ने
पतंग और धागे के लिए दिया
‘कि इतनी हवा झेल पाई पतंग
और धागे ने दूसरी पतंगों के धागे
काट कर के जीत दिलाई*
‘मैं सिख… लाती’
*बगैर सूत्र के
सुई के लिए घुमना ही घुमना है*
Sharing is caring!