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आचार्य श्री पूजन

गुरु-पाद पूजन – 993

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 
  • परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित

पूजन क्रंमाक 993

कलजुग तुम एक गुपाला ।
मोहन है नाम तिहारा ।।
मय्यूर पंख तुम रखते ।
गज-रेख, शंख तुम फबते ॥

तुम ही पूर्णायु प्रणेता ।
जित-चितवन ! ऊरध-रेता ।।
बाबा प्रतिभा-थलि वाले ।
प्रतिभा मण्ड़ल रखवाले ।।

जग-भर के छोटे बाबा ।
मेरे तो काशी-काबा ।।
आओ आओ आ जाओ ।
आ मेरे हृदय समाओ ।।
हृदयागन म्हारो सुनो ।
आ करो शारदी पूनो ।।स्थापना।।

तोता रट राम लगा ले ।
बुन लेती मकड़ी जाले ।।
विष-ले ‘री कहे खरीदा ।
हो चली घुणाक्षर गीता ।।
नहीं जमा जमाना मुझको ।
जल भेंट रहा सो तुझको ।।जलं।।

चीता नव लेता दूना ।
हा ! माथ सुहागन सूना ।।
गुम जुबां जायका घर का ।
महॅंगा लागा हथकरघा ।।
नहीं जमा जमाना मुझको ।
सो चन्दन भेंटूॅं तुझको ।।चन्दनं।।

बन्दर के हाथ तराजू ।
मुख राम कटारी बाजू ।।
‘माँ’ खड़ी कसाई-खाने ।
बस मिले दवाई ‘खाने’ ।।
नहिं जमा जमाना मुझको ।
सो अक्षत भेंटूॅं तुझको ।।अक्षतं।।

बेटी धन कहा पराया ।
बेटा फूँके हा ! काया ॥
लग पाँत बिके मदिरा है ।
मन्दिर लग दूर रहा है ।।
नहीं जमा जमाना मुझको ।
सो पुष्प चढ़ाऊँ तुझको ।।पुष्पं।।

लड़ते सजात इक दूजे ।
बस ‘नाग’ पंचमी पूजे ।।
सिगरेट छुयें मिल बच्चे ।
सी-ग्रेड छुयें दिल-सच्चे ।।
नहिं जमा जमाना मुझको ।
नैवेद्य भेंट सो तुझको ।।नैवेद्यं।।

पैसा सिर चढ़-के बोले ।
विष अपना बनके घोले ॥
चुप्पी माँओं ने साधी ।
बच्ची ने चुनर उड़ा दी ॥
नहिं जमा जमाना मुझको ।
सो दीप चढ़ाऊँ तुझको ।।दीपं।।

गिरगिट रँग बदले अपना ।
कर्कट पर-सहाय सपना ।।
रिश्तों के बीच दिवालें ।
फीकी शकुनी की चालें ॥
नहिं जमा जमाना मुझको ।
सो धूप चढ़ाऊँ तुझको ।।धूपं।।

लहराया जहर कृषी में ।
इत्तर इतराया घी में ।।
अब पड़े न दूध मलाई ।
माँ नागिन उपाध पाई ॥
नहिं जमा जमाना मुझको ।
फल-थाल भेंट सो तुझको ।।फलं।।

बाजी मारे बेताबी ।
हर चेहरा हुआ नकाबी ।।
आँखों से दया नदारत ।
धस बसा दिलो-जाँ स्वास्थ ॥
नहिं जमा जमाना मुझको ।
सो अर्घ चढ़ाऊँ तुझको ।।अर्घ्यं।।

दोहा-
चार-धाम यात्रा रखें,
और तुला गुरु नाम ।
भारी पलड़ा दूसरा,
श्री गुरु-देव प्रणाम ॥


जयमाला-
श्री गुरु महिमा अपरम्पार ।
इक साँचा गुरु का दरबार ।।

एकलव्य कह रहा खड़ा ।
गुरु प्रतिमा का असर बड़ा ।।
गुरु साक्षात् मिले जिसको ।
भगवन्-दर्श हुआ उसको ।।
कम जीवन भी करो निसार ।
इक साँचा गुरु का दरबार ।।
श्री गुरु महिमा अपरम्पार ।
इक साँचा गुरु का दरबार ।।

देख दूसरों की बढ़ती ।
सारी ही दुनिया जलती ।।
मगर बिठा सिर, काँधे पर ।
दें गुरुदेव छुवा अम्बर ।।
करे बिना व्यापार, दुलार ।
इक साँचा गुरु का दरबार ।।
श्री गुरु महिमा अपरम्पार ।
इक साँचा गुरु का दरबार ।।

दुर्गम पन्थ थकान नहीं ।
काफी इक मुस्कान रही ॥
गुरु ने नजर उठा देखा ।
छटा अंधेरा, अभिलेखा ॥
टके चुनरिया चाँद-सितार ।
इक साँचा गुरु का दरबार ।।
श्री गुरु महिमा अपरम्पार ।
इक साँचा गुरु का दरबार ।।

जुवाँ जुग-सहस लिये धरण ।
कर न सका गुरु-गुण वर्णन ।।
पुण्य कराये पार सुना ।
तब तुम-गुण-गुँजार चुना ॥
लागी खुशी अश्रु जल-धार ।
इक साँचा गुरु का दरबार ।।
श्री गुरु महिमा अपरम्पार ।
इक साँचा गुरु का दरबार ।।
।। जयमाला पूर्णार्घं ।।

दोहा-
पीछे से पहले भले,
रख लो पर गुरुदेव ।
अपने भक्तों में मुझे,
विनती यही सदैव ।।

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