परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रमांक – 53
नैन करुणा भरे ।
वैन मिसरी घुरे ।।
कह रहे खुदबखुद ।
तुम क्षमा दया बुत ।।
अय ! सिन्ध-ज्ञान सुत ।
जय-जय, जयत-जयत ।।स्थापना।।
मणी-माणिक जड़े ।
घट जल-कण भरे ।।
करता तुम्हें समर्पित ।
अय ! सिन्ध-ज्ञान सुत ।।जल॑।।
मण माणिक जड़े ।
तर चन्दन घड़े ।।
करता तुम्हें समर्पित ।
अय ! सिन्ध-ज्ञान सुत ।।चन्दनं।।
पातर सुनहरे ।
धाँ शालिक भरे ।।
करता तुम्हें समर्पित ।
अय ! सिन्ध-ज्ञान सुत ।।अक्षतं।।
थाल दिव उतरे ।
गुल नन्दन भरे ।।
करता तुम्हें समर्पित ।
अय ! सिन्ध-ज्ञान सुत ।।पुष्पं।।
मण पिटार बड़े ।
घृत व्यंजन निरे ।।
करता तुम्हें समर्पित ।
अय ! सिन्ध-ज्ञान सुत ।।नेवैद्यं।।
मृत दिया घृत ‘रे ।
चिन दया उकरे ।।
करता तुम्हें समर्पित ।
अय ! सिन्ध-ज्ञान सुत ।। दीपं।।
हट गन्ध निकले ।
घट गन्ध विरले ।।
करता तुम्हें समर्पित ।
अय ! सिन्ध-ज्ञान सुत ।।धूपं।।
बाग हरे भरे ।
फल लाल गहरे ।।
करता तुम्हें समर्पित ।
अय ! सिन्ध-ज्ञान सुत ।।फलं।।
भाँत खुद छवि ‘रे ।
वसु द्रव्य सबरे ।।
करता तुम्हें समर्पित ।
अय ! सिन्ध-ज्ञान सुत ।।अर्घं।।
“दोहा”
करुणा निस्पृह बाँटते,
करते ना व्यापार ।
श्री गुरु विद्या वे तिन्हें,
वन्दन वारम्बार ।।
“जयमाला”
गुरु भक्ती में कमी हमारी, है वरना ।
कहाँ दूर हमसे अपने, गुरु की करुणा ।।
द्वार हमारे भी रवि सुबहो, आया था ।
हन्त ! हमीं ने खुद को नहीं, जगाया था ।।
देखो ना ये कमल मस्ती में, झूमे हैं ।
करुणा पा रवि की गगनांगन, चूमे हैं ।।
क्यों क्योंकि इनने रवि को, आदर दीना ।
दामन विसर प्रमादी, रवि नयनन कीना ।
बस करुणा क्या चाहे सिर्फ, समर्पण जी ।
मन की निर्मलता चाहे बस, दर्पण सी ।।
सो धर हृदय समर्पण बाँध, कमर बैठो ।
कर-तर-कर वृत्ति तज, कर-धर-कर बैठो ।।
सुबहो होगी पुन: द्वार रवि, आयेगा ।
मिले जागते निश्चित हृदय, लगायेगा ।।
गुरु भक्ती में कमी हमारी, है वरना ।
कहाँ दूर हमसे अपने, गुरु की करुणा ।।
दोहा=
कहाँ सन्त जन के यहाँ,
भेद भाव का काम ।
क्षीर, नीर क्या दे नहीं,
सहसा अपना नाम ।।
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