परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक 235
जी विधाता ।
दीन त्राता ।।
इक शरण ओ ।
रख चरण लो ।। स्थापना ।।
नीर लाये ।
तीर आये ।।
इक शरण ओ ।
रख चरण लो ।। जलं ।।
गन्ध लाये ।
ऽऽनन्द छाये ।।
इक शरण ओ ।
रख चरण लो ।। चंदनं ।।
अछत लाये ।
विपद् जाये ।।
इक शरण ओ ।
रख चरण लो ।। अक्षतम् ।।
फूल लाये ।
भूल जाये ।।
इक शरण ओ ।
रख चरण लो ।। पुष्पं ।।
नविद् लाये ।
क्षुध् विलाये ।।
इक शरण ओ ।
रख चरण लो ।। नैवेद्यं ।।
‘दिया’ लाये ।
दया छाये ।।
इक शरण ओ ।
रख चरण लो ।। दीपं ।।
धूप लाये ।
डूब भाये ।।
इक शरण ओ |
रख चरण लो ।। धूपं ।।
सजल आये ।
गहल जाये ।।
इक शरण ओ ।
रख चरण लो ।। फलं ।।
अरघ लाये ।
अघ पलाये ।।
इक शरण ओ ।
रख चरण लो ।। अर्घं ।।
==दोहा==
माथे ली ज्यों ही लगा,
श्री गुरु चरणन धूल ।
वो देखो कह अल्विदा,
चली दूर से भूल ।।
।। जयमाला ।।
मेरे रब !
तेरे बिन,
जी न पायेंगे अब ।
मेरे रब !
ऐ ! मेरे रब !
क्या रह सके मीन बिन पानी ।
नहिं तेरे बिन मेरी कहानी ।।
होना जुदा न पल भर को भी ।
रह पायेगी न जिन्दगानी ।।
नहीं तेरे बिन मेरी कहानी ।
नहीं तेरे बिन मेरी कहानी ।।
मेरे रब !
ऐ ! मेरे रब !
तेरे बिन जी न पायेंगे अब ।
क्या उड़ सके पंख बिन पाँखी ।
क्या ‘भाई’ बिन बहना राखी ।।
ये मुमकिन, पे तेरे बिन मेरी ।
है न जिन्दगी, होगी ना थी ।।
क्या उड़ सके पंख बिन पाँखी ।
क्या भाई बिन बहना राखी ।।
मेरे रब !
ऐ ! मेरे रब !
तेरे बिन जी न पायेंगे अब ।
जी न पायेंगे अब,
मेरे रब !
ऐ ! मेरे रब !
।। जयमाला पूर्णार्घं ।।
==दोहा==
अन्त लगे है बन गया,
थवन न, ये त्रुटि-पिण्ड |
खण्ड-खण्ड कर दीजिये,
त्रुटि वे ‘ज्योति-अखण्ड’ |
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